कोई सन्तान अगर अपने माता-पिता का दुःख का कारण बन जाए तो उस सन्तान के लिए आपका क्या संदेश और क्या प्रेरणा होगी?
जब सन्तान माँ-बाप के दुःख का कारण बने तो मैं तो समझता हूँ उस सन्तान का जन्म लेना ही बेकार है। जिस सन्तान को देखकर, जिस सन्तान के व्यवहार से पीड़ित होकर माँ-बाप के मुख से कभी यह निकले कि ‘ऐसी सन्तान को जन्म देने की अपेक्षा मर जाना ज़्यादा अच्छा था, मैं मर जाना पसन्द करती…, यह जीते जी मर गया होता…, निपूत रह जाती..’ ऐसी बात अगर किसी माँ-बाप के मुँह से निकले तो समझ लेना वह सन्तान जिंदा होकर के भी मुरदे के समान है क्योंकि माँ-बाप बहुत वेदना के बाद ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं। सन्तान को चाहिए कि अपने माता-पिता के प्रति सदैव वफादार बने रहे, कृतज्ञ बने रहे, उनके गुणों का स्मरण करें और गुणों का स्मरण न कर सके पर ऋणों का स्मरण जरुर करें।
हम लोगों का झुकाव किसी के प्रति भी होता है, किसी-किसी के पुण्य के कारण उससे प्रभावित होते हैं या किसी के गुण के कारण हम प्रभावित होते हैं। एक स्टार है, सारी दुनिया उसके पीछे लग जाती है या कोई गुणी होता है, तो उसके सद्गुणों को देखकर लोग उससे आकर्षित हो जाते हैं लेकिन सन्त कहते हैं माता-पिता के प्रति तुम्हारा झुकाव पुण्य के कारण या गुण के कारण नहीं, उनके ऋण के कारण होना चाहिए। तुम्हारे माँ-बाप का पुण्य कम हो तो भी और तुम्हारे माँ-बाप के गुण कम हो तो भी उनके ऋण को याद करते हुए उनके चरणों का अनुरागी बनना चाहिए। उनमें सौ कमियाँ हों, हजार दुर्बलतायें हों तो भी उनका जो ऋण है उसे कोई पूरा नहीं कर सकता क्योंकि उन्होंने तुम्हें जन्म दिया, जीवन दिया है, संस्कार दिये हैं। माँ-बाप नहीं होते तो तुम इस धरती पर प्रकट कैसे होते? आज लाखों बच्चों को विश्व में पेट से ही परलोक पहुँचाया जाता है, मुझे किसी ने आंकड़ा बताया था कि प्रतिवर्ष में करोड़ों की संख्या हो जाती तो ऐसे लोगों की, जो सन्तान को पेट से ही परलोक पहुँचा देते हैं। तुम अपने आप को भाग्यशाली मानो कि तुम्हारे माँ-बाप में ऐसी दुर्बुद्धि नहीं आई, नहीं तो तुम्हें पेट से परलोक पहुँचा दिया होता तो तुम्हारा क्या होता?
लाखों सन्तानें ऐसी होती हैं जिन्हें जन्म देने के बाद माँ-बाप उसे ऐसे ही लावारिस छोड़ देते हैं, झाड़ियों में फेंक देते हैं और स्याल-कुत्ते उनसे अपना पेट भर लेते हैं। अपने आप को भाग्यशाली समझो कि तुम्हारे माँ-बाप ने तुम्हारे साथ ऐसा सलूक नहीं किया। ऐसी हजारों सन्तानें होती हैं जिनके जन्म लेने के बाद माँ-बाप उनकी अच्छी तरीके से परवरिश नहीं करते या कर नहीं पाते, तुम अपने आप को भाग्यशाली मानो कि तुम्हारे माँ-बाप ने तुम्हारी अच्छी तरह से परवरिश की, तुम्हारे हितों का ख्याल किया, तुम्हारे सुखों का ख्याल किया, तुम्हारी एक-एक बात का ध्यान रखा, बीमार पड़ने पर डॉक्टर को दिखाया, भोजन की आवश्यकता होने पर भोजन कराया, पानी की जरूरत पड़ने पर पानी पिलाया, क्या-क्या उपकार हैं!
यदि माँ-बाप के उपकारों को याद करो तो भुलाया नहीं जा सकता। आज तुम्हारे जीवन में जो भी है, तुम्हें जन्म दिया, जीवन दिया और फिर संस्कार दिए, पढ़ाया-लिखाया, तुमको बनाया है। यदि वे तुम्हें बनाकर अच्छे संस्कार नहीं देते तो आज तुम लुच्चा- लफंगा बनकर के फिरते रहते, कोई अपराधी बनते, जेल के सींखचों में होते। लेकिन आज एक सभ्य इंसान की तरह इस धरती पर इज्जत पा रहे हो, यह तुम्हारे माँ-बाप का ही परिणाम है, उनकी ही कृपा का फल है कि तुम एक अच्छे इंसान की तरह पहचाने जाते हो। उन्होंने ही तुम्हें पढ़ाया-लिखाया, कितना बड़ा उपकार है। यदि उनके उपकारों को याद करो तुम्हारे शरीर का एक-एक बूँद खून उनकी कृपा का प्रसाद है। यदि उनके उपकारों को याद करोगे तो जीवन में कभी भी उनके प्रति उपेक्षा का भाव नहीं होगा। उनको दुखी करने का तो सवाल ही नहीं, सारे जीवन उनके चरण धोकर के पीने का मनोभाव रहेगा, ऐसा भाव अपने जीवन में आना चाहिए।
उनके प्रति श्रद्धा होनी चाहिये, उनके प्रति अपने बहुमान का भाव होना चाहिए। उनकी उपेक्षा करना कतई उचित नहीं है, जो लोग ऐसा करते हैं, वह घोर अधर्म करते हैं। मैं कुछ ऐसे लोगों को भी जानता हूँ जो समाज में अग्रणी भूमिका रखते हैं लेकिन अपने माँ-बाप के साथ बदसलूकी करते हैं। धर्म ध्यान में आगे हैं, पूजा पाठ करने में आगे हैं लेकिन अपने माँ-बाप के साथ बड़े क्रूर बने हैं, ऐसे लोगों का व्रत उपवास, ऐसे लोगों का दान-धर्म, ऐसे लोगों का पूजा-पाठ, सब व्यर्थ है क्योंकि वे कृतघ्नी हैं। हमारे यहाँ कहा गया है कि सब पापों में सबसे बड़ा पाप कृतघ्नता है। कुरल काव्य में लिखा है कि अन्य सब पापों का प्रायश्चित्त तो फिर भी सम्भव है पर उस अभागे कृतघ्नी का कभी उद्धार नहीं होगा। इससे बड़ा कृतघ्नी कौन होगा जिसने अपने जन्म दाता को ही भुला दिया, उसे दुःख दिया, उसे ही कष्ट दिया। जन्मदाता को, जीवनदाता को, संस्कार दाता को कष्ट देना नीचता की सीमा को लांघ देना है ऐसा कभी नहीं होना चाहिए।
लिखा गया है कि इस धरती के समस्त रजकण को और समुद्र के सारे जलकण को एक कर देने पर भी माँ-बाप के उपकारों को पूरा नहीं किया जा सकता, उनके ऋण को चुकाया नहीं जा सकता और तुम क्या कर रहे हो? विचार करो और उस घड़ी जब माँ-बाप को वेदना होती है, तो मन मर्म आहत होता है। कई ऐसे लोगों को मैंने देखा है जो अपनी ही सन्तान की उपेक्षा के शिकार बनकर घोर तकलीफ का अनुभव किये है। मैं सम्मेद शिखरजी में था, एक महिला मेरे पास आई, बुजुर्ग महिला थी। उसने कहा ‘महाराज जी मैं गुणायतन में कुछ दान देना चाहती हूँ।’ उसने अपनी तरफ से बताया कि एक अच्छी राशि गुणायतन में दान देना चाहती थी। उसे देख करके मुझे लगा कि “यह महिला पता नहीं कैसे दे पाएगी, क्यों देगी?” मैंने पूछा “आपने यह दान देने के भाव रखे हैं, दे रही हो, अपने बच्चों से पूछ लिया?” जैसे ही बच्चों का नाम लिया, आँखों से टप टप आँसू की धार बहने लगी। ‘महाराज! बच्चों से पूछने की कोई जरूरत नहीं है। बच्चों के कारण ही मैं आपकी शरण में आई हूँ।’ “क्या बात है?” ‘महाराज मेरी एक बेटी, एक बेटा है। बेटे को पढ़ाया मैंने उसने IIT कराया, उसका एक बड़ी कंपनी में जॉब लगा, इंजीनियर लड़की से मैंने उसकी शादी भी कर दी, दोनों जॉब कर रहे हैं।’ उत्तरप्रदेश के एक शहर में रहती है, शहर का नाम नहीं बता रहा हूँ, बोली कि ‘दोनों अच्छा पैसा कमाते हैं लेकिन मेरे बेटे ने अपना मकान खरीदने के नाम पर मुंबई में फ्लैट खरीदने के नाम पर एक दिन आकर मुझ पर दबाव डालकर मेरी सारी सम्पत्ति पर उसने पावर ऑफ अटॉर्नी ले ली और लेकर के चले गए। उसके बाद मेरे पास कुछ पैसे थे, वह पैसे भी मुझसे दबाव देकर के बार-बार आकर ले गया। अब महाराज जी पिछले ६ साल से बेटे का मैंने मुँह नहीं देखा, न वह आता है न मुझसे कोई सम्पर्क रखता है। मैं घर से बाहर एक किराए के मकान में रहती हूँ। महाराज जी! यह तो गनीमत है कि मैं टीचर थी, आज मुझे पेंशन मिलती है, उससे मैं अपना खर्चा चलाती हूँ लेकिन बेटा आज तक मेरे पास नहीं आया। मैं सोचती हूँ ऐसे बेटे से तो मैं निपूत रह जाती तो अच्छा था’ और रोते रोते पल्लू से अपनी आँखें पोंछने लगी। ‘मेरी बेटी है जो मेरे लिए बहुत सपोर्ट करती है। आज जिस मकान में मैं रहती हूँ, बगल में ही बेटी का घर है, मेरा बहुत ख्याल रखती है। आज आप सब की कृपा से मेरे हाथ-पाँव ठीक हैं।’ उस महिला की ७९ साल की उम्र थी और बोली ‘महाराज मेरा कोई खर्च नहीं, २४ घंटे में एक बार भोजन करती हूँ, पानी पीती हूँ, शुद्ध खाती हूँ, कोई खर्च नहीं, मेरा जो पैसा बचा है मैं सोचती हूँ परमार्थ में लगा दूँ इसलिए बहुत दिन से मन बनाया था। आज यहाँ आई हूँ मेरे पैसे का सदुपयोग करवा दो।’
ये वेदना, यह दशा उस महिला की। ऐसी सन्तान के जन्म लेने का क्या मतलब? बन्धुओं प्रसंग इतने सारे हैं यदि उनका उल्लेख करें तो लोग भूल जाएँ, आपका हृदय एकदम द्रवित हो उठेगा। बस संक्षेप में मैं इतना ही कहना चाहूँगा, जीवन में ऐसा कभी मत करना। माता-पिता को अपने जीवन में सबसे ऊँचा स्थान देना क्योंकि उनके बिना हमारे जीवन की शुरुआत ही नहीं हो सकती।
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