Letter ‘B’ – Behaviour
कोरल काव्य में लिखा है- भूमि की उर्वरता का पता उसमें बोए गए बीज से चलता है। भूमि की उर्वरता का पता उसमें बोए गए बीज से चलता है। उसी तरह मनुष्य के व्यवहार से उसके कुल का पता चलता है। कौन व्यक्ति कैसा है, इसका आकलन हम उसके व्यवहार के आधार पर ही कर सकते हैं। अच्छे व्यक्ति का व्यवहार अच्छा होता है और बुरे व्यक्ति का व्यवहार सदैव बुरा होता है। जो व्यक्ति अच्छा आचरण करने वाला होता है, अच्छा व्यवहार करने वाला होता है, वो सबका आदरणीय बन जाता है। सब उसे अपनाना चाहते हैं सब उसको लाइक करते हैं। और जिसका व्यवहार ख़राब होता है, बुरा होता है, बर्ताव अच्छा नहीं होता उसे कोई लाइक नहीं करता। यह रोज का अनुभव है।
हमारे जीवन में हमारे व्यवहार का बहुत बड़ा रोल है। हमारा व्यवहार हमारे जीवन को ऊँचा भी बनाता है, लोकप्रिय भी बनाता है, सुंदर भी बनता है तो व्यवहार जीवन को ओछा, अलोकप्रिय, असुंदर या बदसूरत भी बना देता है। हमारे संपर्क में कई लोग ऐसे होते है, जिनको देखते ही हम खींचे चले आते हैं। वो बहुत गहरे तक प्रभावित करते हैं और कई ऐसे होते हैं जिनसे बात करने की भी इच्छा नहीं होती। आख़िर बात क्या है? कोई तो ऐसा है जो एकदम दिल में उतर जाए और कई ऐसे हैं जो दिल से उतर जाए। दिल में उतरने वाले भी लोग हैं और दिल से उतर जाने वाले लोग भी है। किनको आप दिल में उतारते और किन को आप दिल से उतारते हो? किसे आप मन में बसा लेते हो और किससे आप दूर भागने की कोशिश करते हो? कौन है? किस को दिल में बसाते हो? जिसका व्यवहार अच्छा हो, जिसका बर्ताव अच्छा हो, जिसका व्यक्तित्व अच्छा हो वो व्यक्ति हमारे दिल में बस जाता है। उस की अमिट छाप थोड़ी देर के लिए उस के संपर्क में रहते हैं लेकिन पूरे जीवन पर्यंत उसकी छाप बनी रहती है। कभी याद भी आए तो लगता है वो आदमी दो मिनट को मिला लेकिन अपनी छाप छोड़कर गया। छाप तो सबकी छूटती है, अच्छी भी छूटती है और बुरी भी छूटती है। अच्छी भी छूटती है, बुरी भी छूटती है। अच्छी की जब स्मृति आती है तो हमारे हृदय में प्रसन्नता की लहर उत्पन्न होती है और बुरी कि जब स्मृति आती है तो मन में नफरत के भाव उत्पन्न हो जाते हैं। एक में लाइकिंग है, एक में डिसलाइकिंग है। हम क्या कर रहे हैं, अपने व्यक्तित्व को देखें कि मेरा व्यवहार कैसा है?
अल्फ़ाबेट में आज B की बात है। B यानी बिहेवियर (Behaviour)
अपने व्यवहार को टटोल कर देखो। कैसा व्यवहार है मेरा? कभी आपने सोचा? मेरा व्यवहार ख़ुद के प्रति, औरों के प्रति कैसा है? आपसे एक सवाल करता हूँ- आपको कैसे लोग पसंद हैं? कैसे आदमी को आप पसंद करते हैं? निष्कपट, जिसका व्यवहार अच्छा हो, जो साफ-सुथरा जीवन जीता हो, उसको हम पसंद करते हैं। जैसे को आप पसंद करते हैं लोग भी वैसे को ही पसंद करते हैं। आप जैसे को पसंद करते हैं लोग भी वैसे को पसंद करते हैं। जिसका व्यवहार बुरा होता है आप उसको पसंद नहीं करते तो आपका व्यवहार बुरा होगा तब लोग आपको पसंद कैसे करेंगे? आप चाहते हो लोग मुझे चाहें? कौन है ऐसा जो चाहता हो कि लोग मुझे न चाहें? संत कहते हैं- ‘अगर तुम चाहते हो कि लोग मुझे चाहें तो लोगों से वही व्यवहार करो जो लोग चाहते हैं’। वही व्यवहार करो। साथ में अगर अपने व्यवहार के विषय में बात करूं तो मैं इतना कह सकता हूँ दूसरों का जो व्यवहार तुम्हें अच्छा लगे और दूसरों का जो व्यवहार तुम्हें अच्छा न लगे, सामने वालों के प्रति वैसा ही व्यवहार करो। जो अच्छा लगे वो करो और जो अच्छा न लगे वो न करो। यही व्यवहार की कसौटी है। तुम्हें अगर लगता है, सामने वाले का कौन सा व्यवहार अच्छा लगता है? मीठे बोल बोलता है, विनम्रता पूर्ण व्यवहार करता है, निष्कपट वृत्ति रखता है, सादगी रखता है, हमें अट्रैक्ट करता है, करता है या नहीं करता है। इसके अलावा, इसके विपरीत यदि कोई करता है, तो हमारे मन में उसके प्रति रंचमात्र आकर्षण नहीं होता। कोई खिंचाव नहीं होता। हम उससे दूर भागने की कोशिश करते हैं। कहाँ फँस गए, कौनसा आदमी है? हमारे लिए उसका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता। आख़िर क्यों? देखिए हमारे संपर्क में अनेक प्रकार के लोग आते हैं। कुछ लोग जिन्हें हम बड़े आदमी के रूप में जानते हैं और आदमी एकदम साधारण। व्यक्ति का बड़ा होना और साधारण होना- एक बाहर के स्टैटस से दिखता है और एक उसके व्यवहार और चरित्र से होता है। हम किस से प्रभावित होते हैं? एक आदमी है जो कहने को बहुत बड़ा आदमी है, ख़ूब पैसा है, पावर है और उसकी अप्रोच है। लेकिन उसका व्यवहार खराब है, मिज़ाज उग्र है और वाणी का बड़ा कटू है। एक ऐसा व्यक्ति और दूसरा व्यक्ति- जो है तो साधारण, लेकिन मृदुभाषी, मिलनसार है, निष्कपट व्यवहार है, शांत स्वभावी है। आप दोनों में किससे ज्यादा प्रभावित होंगे? साधारण व्यक्ति से, आप साधारण से प्रभावित होंगे। निश्चित जैसे आप साधारण से प्रभावित होंगे, लोग भी ऐसे ही साधारण से प्रभावित होंगे। पर आपकी तैयारी क्या है? साधारण व्यक्ति को अपना आदर्श बना करके चलने को आप राज़ी हो? या जिस ढर्रे में चल रहे हो उसी ढर्रे में चलने के लिए आप राज़ी हो? क्या कर रहे हो आप? संत कहते हैं कि यदि तुम चाहते हो कि लोग मुझे लाइक करें तो अपने जीवन को लायक बनाओ, सब लाइक कर लेंगे। उस लायक बनोगे तो लाइकिंग बढ़ेगी। हमारा बिहेवियर अच्छा हो, व्यवहार सुंदर हो। आज चार बातें आपसे करेंगे। अच्छे व्यवहार की पहचान- किसको हम अच्छा व्यवहार मानेंगे।
नंबर वन- विनम्रता।
विनम्रता हमारे जीवन में होनी चाहिए। जो व्यक्ति विनम्र होगा वो हमें गहरे तक प्रभावित करता है। विनम्र व्यक्ति को सब आदर सम्मान देते हैं क्योंकि वो औरों को सम्मान देता है। हमारे जीवन में विनम्रता आनी चाहिए, जीवन पोलाइट होना चाहिए। विनम्रता का उल्टा है अक्खड़पन। कुछ लोग बड़े अक्खड़ होते हैं, अकड़मिज़ाजी होते हैं और कुछ लोगों होते हैं विनम्र। विनम्र का मतलब- विनम्र, किसको कहते हैं विनम्र- जो बड़ों को सम्मान दे। विनम्र वो नहीं जो बड़ों को सम्मान दे, विनम्र वो है जो छोटे का भी मान रखे। बड़े का तो सम्मान दे ही और करे ही पर छोटे का भी मान रखे। सच्चा विनम्र व्यक्ति वो वही होता है जो जितना विनय बड़ों की करता है उतनी ही कद्र छोटे की भी करता है। छोटे को छोटा समझ करके उपेक्षित ना करे। उसके लिए भी उतना ही मान होना चाहिए सम्मान होना चाहिए। तब हमारे जीवन में विनम्रता अपेक्षित हो जो सच्चे अर्थों में बड़े लोग होते हैं वे छोटों का भी ख्याल रखते हैं। बड़ा कौन है? आपसे मैं कहूँ- किसी बड़े आदमी की बात करूँ ये बड़ा आदमी है। आपकी आँखों के आगे कैसे व्यक्ति की छवि उभरेगी? ख़ूब पैसे वाला है, बड़ा स्टेटस है, गाड़ी मोटर है, नौकर-चाकर है, बंगला है, मकान है, वो बड़ा आदमी है। मेरी नजर में वो आदमी बड़ा आदमी नहीं है जिसके बड़े ठाट-बाट हैं। बड़ा आदमी वो नही जिसके बड़े ठाट-बाट हैं। बड़ा आदमी वो है जिसके पास जाने के बाद आप अपने आप को छोटा महसूस ना करें। फिर से दोहराता हूँ बड़ा आदमी वो है जिसके पास जाने के बाद तुम अपने आप को छोटा महसूस न करो। समझ में आयी बात। थोड़ी देर में समझ में आती है।
अगर किसी के पास जाने के बाद सामने वाला अपने आप को छोटा महसूस करता है तो समझना वो बड़े आदमी के पास नहीं गया अपने आपको बड़ा मानने वाले के पास गया। बड़प्पन इसी में है कि हम अपने साथ सामने वाले की भी कद्र करें, वो बड़ा आदमी है, ये विनम्रता है। विनम्र व्यक्ति की पहचान है कि वो चाहे कितनी भी ऊँचाई का स्पर्श क्यों न करें, छोटे से छोटे व्यक्ति की कद्र करेगा। एक छोटे से बच्चे से भी इज़्ज़त से बात करेगा। एक छोटे से बच्चे से भी शालीनता से बात करेगा। एक छोटे साधारण व्यक्ति के साथ भी बड़े अच्छे तरीके से बात करेगा। आप क्या करते हैं? अपने जीवन को देखिए। ध्यान रखना ऊँचाई सदैव गहराई सापेक्ष होती है। जीवन को ऊँचा उठाना चाहते हैं तो आप गहरे जाइए। पेड़ उतना ही ऊपर उठता है, जितनी की उसकी जड़ें गहराती हैं। जड़ें भी गहरी होनी चाहिए। विनम्रता हमारी घुट्टी में होना चाहिए। महापुरुषों के जीवन चरित्र को पलट करके देखोगे तो आप पाओगे कि वे जितने आगे बढ़े हैं उतने ही गहरे उतरे हैं। उन्होंने जितना अपने आप को ऊँचा उठाया उतना ही वे जमीन से जुड़े है, डाउन टू अर्थ होना चाहिए। आजकल ये चीजें लोगों में कम होते जा रही हैं। लोगों में ये बातें दिनोंदिन कम होते जा रही हैं, घटते जा रही हैं। लोगों की सोच, लोगों की प्रवृत्ति कुछ अलग होने लगी। आदमी थोड़ी सी उपलब्धियाँ क्या अर्जित कर लेता है आसमान में उड़ना शुरू कर देता है। वह भूल जाता है की आसमान में उड़ने वाले हर इंसान को एक दिन जमींदोज होना पड़ता है। हम अपनी इस अकड़ को कम करें क्योंकि अकड़ वाले मनुष्य को कोई लाइक नहीं करता। तो जब मैं, मुझे किसी की अकड़ पसंद नहीं तो मैं अकड़ूँगा तो लोग मुझे कैसे पसंद करेंगे। मुझे विनम्र होना चाहिए।
महापुरुषों के जीवन को आप देखिए। उनके जीवन में कैसी विनम्रता चाहे रामचंद्रजी हो, श्रीकृष्ण हो, महावीर हों, गुरुदेव हों। आप इनके जीवन में गहराई से उतर कर देखिए, हर जगह विनम्रता के लक्षण प्रगट होंगे। रावण मारा गया, रामचंद्र जी लक्ष्मण के साथ रावण की मृत काय के पास पहुँचे और रामचंद्र जी ने लक्ष्मण से कहा- लक्ष्मण! अब रावण हमारा शत्रु नहीं है, इस समय ये एक प्रतापी राजा है, जो युद्ध में मारा गया है, इसका शव अनावृत है, खुला है। ये ठीक नहीं है, ये इसकी शान के खिलाफ है, इसे ढक देना चाहिए। हमें इसकी कद्र करनी चाहिए। रामचंद्रजी के ऐसा कहने पर लक्ष्मण ने अपना उत्तरी या अपना दुपट्टा उस पर ओढ़ाया, उसे ढाँका। ये कहलाती है एक बड़े व्यक्ति की विनम्रता। एक बड़े व्यक्ति की विनम्रता छोटे से छोटे व्यक्ति की कद्र करना जानती है।
महाभारत का प्रसंग है। महाभारत में विजय के बाद पांडवों ने राजसूय यज्ञ किया। राजसूय यज्ञ में श्री कृष्ण को आमंत्रित किया। यज्ञ की योजना बनाई जा रही थी। सबको अलग-अलग कार्यभार सौंप दिया गया। कार्यभार सौंपने के क्रम में अब श्री कृष्ण को क्या जिम्मा दिया जाए वो भी कुछ लेना चाहते थे। तो कहा प्रभु! अब आपको जो काम पसंद हो आप कर लो। आप जो करना चाहो वो कर लो। श्रीकृष्ण ने कहा कि मैं बिना किए तो रहूंगा नहीं, मैं भी कुछ ना कुछ करूंगा। यज्ञ आप कर रहे हो, मैं भी उसमें सहभागी बनूंगा और मैं भी पूरी तरह से एक वॉलंटियर की तरह रहूँगा। मुझे और कुछ काम नहीं करना है, मैं एक ही काम करना चाहता हूँ। इस यज्ञवेदी में झाडू लगाऊँगा और लोगों के झूठे पत्तल उठाऊँगा। यज्ञवेदी में झाड़ू लगाना पसंद करूंगा, लोगों के झूठे पत्तल उठाना पसंद करूँगा। आप सोच सकते हैं, एक नारायण, कृष्ण, झाड़ू लगाने की बात कर रहे हैं। नारायण कृष्ण पत्तल उठाने की बात कर रहे हैं। ध्यान रखना छोटे व्यक्ति को ऐसा लग सकता है कि ये छोटा काम इतना बड़ा आदमी कैसे करेगा। लेकिन सच्चे अर्थों में जो आदमी बड़ा होता है, उसे कोई काम छोटा नहीं दिखता सब काम बड़ा दिखता है। क्योंकि बड़े का काम भी बड़ा ही होता है। इसे कहते है बड़प्पन। तुम कोई भी काम हो उसे अपने शान के विरुद्ध मानते हो, हुकुम चलते हो, छोटी सी भी बात होगी, ये काम मैं नहीं करूँगा। एक मिनट का काम है, उसको लेकर आओ। आदमी को बुलाएँगे। ये आदमी कभी ऐसा नहीं होता।
एक किसान गाँव से शहर की ओर आया। उसके साथ पाँच साल का बच्चा था। उसे प्यास लग रही थी, गरमी का समय था। बस्ती में जैसे ही प्रवेश किया उसे एक हवेली दिखी। बेटा बहुत देर से पानी के लिए मचल रहा था। पानी का कोई प्रबंध नहीं था वो सेठ की हवेली में चला गया। और सेठजी से कहा- ‘सेठजी! मेरे साथ पाँच साल का बच्चा है, पानी पीना चाहता है, कृपा कर पानी पिला दीजिए। सेठ अख़बार पढ़ रहा था, बोला- बैठो, आदमी आने दो। बैठ जाओ, आदमी आने दो। अब बच्चा तो बच्चा था। क़रीब दसेक मिनट बीत गए। ओ दादा पानी। किसान ने दोबारा सेठजी से कहा – सेठ जी, पानी पिला दीजिए न। कह दिया न, आदमी आने दो। आता है, कह दिया न आदमी आता है, आदमी आने दो। किसान ने विनम्रता से हाथ जोड़े और कहा सेठजी थोड़ी देर के लिए आप ही आदमी बन जाइए। थोड़ी देर के लिए आप ही आदमी बन जाइए। मैं आपसे कहना चाहूंगा उस आदमी को हम आदमी कैसे कहें जो प्यासे को पानी न पिला सके। उस आदमी को आदमी कैसे कहा जाए जो भूखे को रोटी न खिला सके। वो आदमी, आदमी कैसे कहलाये जो किसी के आँसू न पोंछ सके। लेकिन बड़ा कथित रूप से अपना बड़ा रुआब दिखाने वाले लोग, क्या कई बार ऐसा ही नहीं करते। मैं ऐसा करूँगा तो छोटा बन जाऊँगा। संत कहते है– ‘छोटा बने या ना बने खोटा तो बन ही जाएगा’। खोटा तो बनेगा क्योंकि ये प्रवृति खोटी है। सीख लो जब, जहाँ, जैसी जरूरत हो उस अनुरूप काम कर लो।
एक बात बोलूं- छोटा आदमी यदि कोई छोटा काम करता है तो यह उसकी ड्यूटी होती है, छोटा आदमी यदि कोई छोटा काम करता है तो यह उसकी ड्यूटी होती है लेकिन बड़ा आदमी जब जरूरत होने पर छोटा काम करता है तो वो उसकी ब्यूटी बनती है। एक ही ड्यूटी उसमे उसका बड़प्पन दीखता है। अरे ! में ऐसा काम कैसे करूँ, काम क्या करूँ करना है सो अब करना है। मैं आपसे सवाल करता हूँ, सुबह अपने शरीर से निवृति का काम है, बड़े से बड़ा आदमी भी अपने हाथ से ही करता है, अपने ही हाथ से करता हैं या उसके लिए भी आदमी लगता है। क्यों भाई यह तो छोटा ही काम ना। तो जब अपने शरीर की अशुद्धि का निवारण व्यक्ति अपने ही उत्साह से करता है तो जब बाहर की अशुद्धि दूर करने की बारी आए तो उसमें भी उतना ही उत्साह रखना चाहिए। अपना उत्साह रखना चाहिए, उसे छोटा नहीं मानना चाहिए। ऐसे व्यक्ति की स्थायी छाप पड़ती है।
गुरुदेव अमरकंटक में थे। अमरकंटक 1008 जोड़ों का सिद्धचक्र महामंडल विधान हो रहा था, सन 1994 की बात है। अमरकंटक में मूलनायक प्रतिमा को विराजमान करने का सौभाग्य बाबूलाल जी सिंघई अमरकंटक के प्रति उनका बहुत बड़ा योगदान रहा उस समय । आज तो बहुत लोग जुड़ गए है वैसे। उस समय वो वहाँ के अध्यक्ष थे। विधान हो रहा था तो व्यवस्था में बहुत लोग जुड़े हुए थे। उस विधान के समय मैंने उनके हाथ में झाड़ू देखी उनके हाथ में झाड़ू। और जैसे ही उनके हाथ में झाड़ू आयी तो सारे लोग झाड़ू लगाने में लग गए। पल भर में सब मामला साफ़ हो गया। उनकी ऐसी छवि आज भी, वह छवि मेरी आँखों आंखों में अंकित है कि इस स्टेटस का व्यक्ति जिसके एक इशारे पर सैकड़ों आदमी काम कर सकते हैं वो व्यक्ति भी जरूरत पड़ने पर झाड़ू उठाने में संकोच नहीं करता, यही व्यक्ति के बड़प्पन की पहचान है, यह ही व्यक्ति की, व्यक्तित्व की महानता का परिचय है। हम क्या करें? यह जो हमारे अंदर का ईगो है यह हमारे लिए अवरोध उत्पन्न करता है। विनम्र बनाने की भावना हमारे अंदर होनी चाहिए। महापुरुष- महापुरुष तभी बनते हैं जब विनम्र होते हैं।
भगवान महावीर जब छोटे थे तो उनकी परीक्षा के लिए संगम देव बाल क्रीड़ा में उनके साथ हो गए। वह एक तिंदूकश नाम का खेल खेल रहे थे। तिंदूकश खेल था पुराने जमाने का। उसमें एक किसी टारगेट को टच करके आना होता था और जो छू नहीं पाता था उसे सामने वाले प्रतिद्वंदी को अपने कंधे पर बिठा कर लाना पड़ता था। जिसने पहले वाले को छू लिया तो दूसरा उसके कंधे पर बैठ कर आएगा। अब मान लीजिए सौ मीटर की डिस्टेंस है, सौ मीटर तक छूकर आया तो दूसरा उसके कंधे पर बैठे हैं। तो संगम देव ने एक बालक का रूप लिया और वहाँ उनके साथ खेलने लगे। वर्धमान ने आगे आकर टच कर लिया। खेल के शर्त के अनुसार उसने उन्हें अपने कंधे पर बिठाया और बिठाते ही संगम देव ने विकराल आकृति बना ली। वर्धमान छोटे से और वह संगम देव दैत्याकार हो गए, आसमान छू लिया। सारे साथी, मित्र उस दृश्य को देख कर भाग गए, सब के सब भाग खड़े हुए। लेकिन वर्द्धमान तो बिल्कुल डरे नहीं, अविचलित रहे, मुस्कुराते रहे, खेल रहे थे सो खेलते रहे। बाद में उस संगम देव को लगा वाकई में यह बड़े साहसी हैं अपने आकार-विक्रिया को समेटा और भगवान की स्तुति करने लगा। जब वापिस जाने को हुआ तो सारे साथी लौट आए। साथियों ने कहा- इसने आपको छल किया है। आपने इसको दंडित क्यों नहीं किया? इसने आपके साथ छल किया है, क्या आप इसे दंडित नहीं करेंगे? तो वर्धमान ने कहा- नहीं मैं इसे दंडित क्यों करूं? इसने मेरे साथ कोई छल नहीं किया, इसने तो मेरे साथ खेल खेला है। और खेल तो खेल होता है, इसमें दंडित करने की क्या बात?
यह है विनम्रता, दिख रहा है छल, पर मान रहे हैं खेल। महानता ऐसे प्रकट नहीं होती है, बहुत तपना और खपना पड़ता है। हमारे अंदर वह गुण आना चाहिए। सच्चे अर्थों में जिनका व्यक्तित्व गहरा होता है उसमें ही यह सारे गुण स्वभावत: प्रकट हो पाते हैं। जो महान होता है उनमें यह सब चीजें दिखती है। गंभीर नदी की थाह का पता ही नहीं चलता पर पहाड़ी नदी उथली होती है जो इतनी तेज गति से चलती है, ऐसा लगता है कि अपने साथ सभी चीजों को बहाकर ले जाएगी। उथले लोग ऐसे ही होते हैं, उछलते ज्यादा हैं, हे कुछ नहीं पर भागदौड़ ज्यादा करते है। उथले लोग भी ऐसे ही होते हैं, उछलते ज्यादा है, अंदर कुछ सत्व नहीं होता। पर महान लोग ऐसे होते हैं कि उनकी थाह लेना मुश्किल होता है। बड़े साइलेंस वे में वह अपना काम करते हैं। जीवन को ऊँचा उठाते हैं, तो विनम्र कौन? जो बड़ों को बड़ा मानने के साथ-साथ बहुमान के साथ-साथ छोटे की भी कद्र करें।
हमारे गुरुदेव, 1999 की बात है। नेमावर में हम लोगों को मूलाचार पढ़ा रहे थे और पढ़ाते-पढ़ाते एक दिन उन्होंने कहा कि मैं जब भी तुम लोगों को देखता हूँ तो मुझे यह नहीं दिखता कि यह मेरे शिष्य हैं। ध्यान से सुनना- आप लोगों को देखता हूँ तो मुझे ऐसा नहीं लगता कि आप मेरे शिष्य बैठे हो। जब भी मेरी नजर आप लोगों पर जाती है तो मुझे ऐसा लगता है कि आप लोगों में आचार्य कुंदकुंद की छवि देख रहा हूँ। यह है महान व्यक्ति की छोटो के प्रति विनम्रता, महानता का परिचय और व्यक्ति की छोटों के प्रति विनम्रता। आज कोई सामान्य व्यक्ति ऐसा कर सकता है, क्या? और कोई बड़ा व्यक्ति अगर किसी छोटे व्यक्ति के प्रति ऐसा व्यवहार करें तो मैं पूछता हूँ कि उस समय छोटे के हृदय में अपने बड़े के प्रति कैसी धारणा होती है, अमिट छाप होगी कि नहीं। आप क्या करते हो? बड़े बन गए तो हुकुम चलाना शुरु कर दिया। यह गलत है, हुकुम मत चलाइए। ऐसा व्यवहार कीजिए कि आप उसके दिल में बैठ जाए। उसके दिल में राज करो। आपको हुकुम देने की जरूरत ना पड़े वह खुद आप के आदेश, निर्देश की प्रतीक्षा को आतुर हो जाए। तो व्यवहार को विनम्र बनाइए। सबके साथ जो जिस लायक है उसको उतना वेटेज दीजिए।
मैं ऐसे अनेक लोगों को जानता हूँ जो आज समृद्धि के शिखर पर बैठे हैं पर उनका व्यवहार बहुत विनम्र है। वह अपने नौकर-चाकर और ड्राइवर को भी बड़े सलीके से पुकारते हैं। इज्जत से बुलाते हैं। ड्राइवर जी या ड्राइवर साहब बोलते हैं। अरे-तेरी की भाषा का प्रयोग नहीं करते हैं। और बाकी लोग तू-तकारे की भाषा का प्रयोग, सामने वाले को कोई इज्जत ही नहीं देते हैं। ध्यान रखना आप सामने वाले को जितना मान दोगे, उतना ही मान पाओगे। इज्जत देने से ही इज्जत मिलती है, इज्जत चाहने से इज्जत नहीं मिलती है। जितना मान दोगे उतना ही माननीय बनोगे तो मान देना सीखिए। जो जिस लायक है उसका उस लायक कद्र कीजिए। अरे! तू! मेरे आगे कहाँ लगता है, इसका कोई मतलब नहीं। हमारे अंदर ऐसी विनम्रता के भाव विकसित होने चाहिए। पहली बात हमारा नेचर विनम्र बने। हम विनम्रता के रास्ते पर चलें। हमारा व्यवहार अपने आप प्रभावी होगा। सबके साथ विनम्रता पूर्ण व्यवहार करें। उसकी शुरुआत घर-परिवार से करें। देखिए कई जगह आप लोग कई विनम्र होते हैं। दफ्तर व्यापार में आप कितने विनम्र हो जाते हैं, होते हैं कि नहीं।
एक बार एक व्यक्ति ने कहा- महाराज जी! किसी को विनम्रता सिखानी हो तो उसको साड़ी की दुकान खुलवा दो। किसी को विनम्रता सिखानी हो तो साड़ी की दुकान खुलवा दो। हमने बोला- क्या मतलब? वह बोला महाराज जी साड़ी की दुकान और दुकान में महिलाएं बहुत ज्यादा दिमाग चाटती है। पचास तरह की साड़ियाँ देखती है पर एक भी पसंद नहीं करती। ऊपर से टिप्पणी और कर देती है कि तुम्हारी दुकान में तो कुछ है ही नहीं। फिर भी दुकानदार बड़े खिसियाते हुए आदर देते हुए कहता है, कोई बात नहीं बहन जी! कल आइएगा। हमारा नया माल आने वाला है। ट्रांसपोर्ट पर नया माल आ गया है। आप कल आइएगा, बड़ी ही विनम्रता से कहते हैं कि नही, विनम्रता आती है कि नहीं। तो मैं यह कहता हूँ कि दुकान में आने वाली लुगाई के इस दुर्व्यवहार के प्रति भी तुम विनम्र बनने को राजी हो। ध्यान से सुनना- दुकान में आकर दिमाग को चाटने वाली लुगाई के साथ भी तुम विनम्रता से प्रस्तुत होने के लिए राजी हो तो जिस लुगाई को सात फेरे पाड़ कर घर लाए हो उसके प्रति कटु व्यवहार को भी विनम्रता के साथ स्वीकार करने को राजी क्यों नहीं होते हो? सात फेरे पाड़ कर लाए, बैंड बाजा बजवा कर लाए और आज कुछ थोड़ी सी बात आ गई तो बर्दाश्त से बाहर। मामला गड़बड़ है कि नहीं, क्यों हम बदलाव नहीं ला सकते हैं? अपने भीतर परिवर्तन की भावना जगाइए सारा व्यवहार बदलेगा और जब व्यवहार बदलेगा तब ही संसार बदलेगा तो पहली बात विनम्रता।
दूसरी बात- मृदु संभाषण, मधुरता, माधुर्यता।
चार बातें मैं कह रहा हूँ- विनम्रता, मधुरता, सरलता और सादगी। व्यवहार में विनम्रता, वाणी में मधुरता, चित्त में सरलता और प्रवृत्ति में सादगी एक अच्छे इंसान की पहचान है। जिसके जीवन में यह चारों बातें होती है वह सबके लिए आदर का पात्र बनता है। वाणी में मधुरता- मीठा बोलो। अब आप बोलो कि कोई आदमी है उसमें बहुत सारे गुण हो और जबान खोटी हो तो आप उससे बात करना पसंद करोगे। उसके साथ रहना पसंद करोगे, नहीं करोगे ना, क्यों? उसकी जुबान खोटी है। इस आदमी से बात करना ही नहीं, यह आदमी बात करने लायक ही नहीं है, ऐसा लगता है। जब खोटी जबान का आदमी तुम्हें बात करने लायक नहीं होता तो तुम अपनी जबान को खुद ही खोटा क्यों करते हो? जबान मीठी रखो, खोटी क्यों बनाते हो? मधुरता होनी चाहिए।
जिसके मुख में मिठास, उसका हर दिल में निवास,
जिसके मुख में खटास, कोई ना फटके उसके पास।
कोई सामने आने को राजी नहीं अपने मुख में मिठास घोलिए। मधुरता आनी चाहिए, माधुर्य का रस घुलना चाहिए। ऐसा बोलिए, ऐसा बोलिए, ऐसा बोलिए कि सामने वाला आपका कायल हो जाए। क्या बोलते हैं, गजब! अरे! इससे बोलो तो मन हल्का हो जाता है। जी ऐसा करें कि बस उस से 2 मिनट बोल तो ले। पर आप लोग कैसे बोलते हैं, सारा जहर उगलते हो, जहर उगलते हो।
एक बार मुझे दो चित्र देखने को मिले। एक स्त्री का चित्र था और एक पुरुष का चित्र था। स्त्री के चित्र में कान से कुछ प्रवेश हो रहा था और मुँह से निकल रहा था और पुरुष के चित्र में एक कान से प्रवेश हो रहा था और दूसरे कान से निकल रहा था। उसके नीचे जो बात लिखी हुई थी वह मैं आपको बता रहा हूँ कि स्त्रियाँ भले ही मीठा बोलती हैं, स्त्रियाँ भले ही मीठा बोलती हैं पर मीठा सुनने के बाद या किसी का कड़वा सुन ले तो जहर उगलती है, बर्दाश्त नहीं होता है, वह सब मुँह से निकाल देती हैं और आदमी भले ही मीठा नहीं बोलता, कड़वा बोलता है पर किसी के कड़वे को सुनकर एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकालने की क्षमता भी रखता है। इधर से सुनकर इधर से निकाल दो, हो सकता है। आप इससे सहमत ना हो कुछ अपवाद भी होते हैं लेकिन यूजअली ऐसा ही होता है। पुरुष जितना इग्नोर करते हैं स्त्रियाँ उतना इग्नोर नहीं कर पाती बातों को पकड़ लेती है और पकड़ना ही प्रतिक्रिया है इसलिए मामला उल्टा पड़ जाता है। हमारा कहना यह है कि अगर आप कड़वे को भी मीठा बनाकर बाहर निकालें तो जीवन में मधुरता आ जाएगी। लेकिन मीठे को भी कड़वा बना दें तो जीवन खारा-खारा हो जाएगा। हम क्या कर रहे हैं हमें यह देखने की जरूरत है। वाणी में मधुरता हमेशा होनी चाहिए। यह माधुर्य हमारे जीवन का आधार है, रस है। उसके बिना कोई किसी को लाइक नहीं करता। जब भी बोले अच्छा बोले। बोलते हैं ना-
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय,
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।
यह तो बचपन में ही सब ने पढ़ा है। पर बस पढ़ा ही है, गढ़ना चाहिए, उतरना चाहिए। मधुर, संभाषण, व्यंग्य उक्ति, कटोक्ति, कटु मर्म गति शब्दों का प्रयोग कभी नहीं करना चाहिए। कई ऐसे लोग हैं जो बड़े मृदुभाषी होते हैं। बोलते हैं तो सामने वाले का मन हल्का करते हैं। कभी-कभी गुस्सा भी करें तो उसमें भी मिठास दिखती है। होना ऐसा चाहिए कि हमारे मुख में मिठास हो, मधुरता हो। एक अच्छे व्यक्ति की पहचान है। कहते हैं वचनों से व्यक्ति की पहचान होती है। कौन व्यक्ति, कैसा बोलता है वह कहानी आप लोगों को याद होगी।
एक बार राजा शिकार के लिए गया। राजा जंगल में शिकार के लिए गया तो भटक गया। सारे सैनिक, मंत्री सभी लोग भटक गए। जंगल में वो सब लोग चलते-चलते कहीं खो गए। एक दूसरे को खोजते हुए रास्ते में जब गुजरे तो सबसे पहले सैनिक गुजरा। उसने देखा एक कुटिया में अंधा वृद्ध व्यक्ति बैठा था। सैनिक ने रुआब झड़ते हुए कहा- क्यों बे अंधे! इधर से किसी को गुजरते हुए देखा क्या? अंधा व्यक्ति बोला- नहीं सिपाही जी! अभी इधर से तो कोई भी नहीं गुजरा। थोड़ी देर बाद वहाँ से सेनापति भी गुजरा। सेनापति ने वहाँ से ही, घोड़े पर ही बैठे-बैठे पूछा- क्यों जी! इधर से कोई गुजरा है क्या? अंधा व्यक्ति बोला- सेनापति जी! अभी तो इधर से कोई भी नहीं गुजरा। फिर थोड़ी देर बाद मंत्री आया। वह घोड़े से उतरा, नीचे आया, पूछा बाबा- यहाँ से कोई गया है क्या? वृद्ध व्यक्ति बोला- मंत्री जी! अभी थोड़ी देर पहले आपका सिपाही और सेनापति यहाँ से गुजरे हैं। थोड़ी देर बाद राजा आया। राजा घोड़े से उतरा। उसने दोनों हाथ जोड़े और कहा- सूरदास जी! प्रणाम, मैं जंगल में भटक गया हूँ। इधर से कोई गुजरा तो नहीं। वृद्ध व्यक्ति बोला- हाँ महाराज! थोड़ी देर पहले, सबसे पहले आप का सिपाही गुजरा, फिर सेनापति, फिर उसके बाद मंत्री और अब आप आए हो। राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। राजा को आश्चर्य हुआ कि यह आदमी है तो अंधा, फिर कह कैसे रहा है कि कौन-कौन यहाँ से गुजरा है? चारों के चारों जब आपसे में मिले तो सभी वहाँ पहुँच गए और वृद्ध व्यक्ति से पूछें कि आपने हम सबको पहचाना कैसे? आपको तो दिखता भी नहीं है। तो वह वृद्ध व्यक्ति बोला- आदमी को पहचानने के लिए देखना जरूरी नहीं है, सुनने से भी आदमी को पहचाना जा सकता है। पहला आया उसने रुआब झाड़ा और शालीनता से बोला तो हमने समझ लिया कि यह पुलिसया भाषा है, पुलिस का आदमी है। दूसरे में सेनापति घोड़े पर चढ़े-चढ़े बात कर रहे थे तो उस समय उसके अधिकार का अहम था। मैंने समझ लिया यह अधिकार की भाषा बोल रहा है, यह सेनापति ही होगा। उसके बाद फिर मंत्री आया। उसने अपेक्षाकृत विनम्रता तो दिखाई। जब उन्होंने मुझसे बाबाजी कहा, लेकिन फिर भी अपने मंत्री होने का गुरूर उनके साथ था तो मैं समझ गया कि यहाँ भी मंत्री पद का अहंकार है। फिर राजा जी आप आए। आप नीचे उतरे, दोनों हाथ जोड़कर मुझे प्रणाम किया और मुझे प्यार भरा संबोधन दिया, सूरदास जी कहा तो मैं समझ गया कि ऐसा संबोधन कोई साधारण व्यक्ति नहीं दे सकता। निश्चित तौर पर वह राजा ही होगा, इसलिए मैंने आपको राजा कहा।
वचनों से व्यक्ति की पहचान होती है। हमारे व्यक्तित्व के निर्माण में हमारे वचनों का बहुत बड़ा रोल है इसलिए मृदुभाषी बनना सीखिए। मृदुभाषी व्यक्ति मिलनसार होता है, सब उसको पसंद करते हैं और जो अंट-शंट बोलने वाला होता है कोई उसको लाइक नहीं करता है, इसलिए दूसरी बात मृदुभाषी बनिए।
तीसरी बात- सरलता। सरलता का मतलब- निष्कपट व्यवहार। जिसका सरल व्यवहार हो, धोखेबाजी कपट ना हो, साफ-सुथरी जिंदगी हो। जीवन में किसी भी प्रकार की जटिलता नहीं, किसी भी प्रकार की कृत्रिमता नहीं, कोई छल-छद्म नहीं। ठीक है, जैसे भीतर वैसे ही बाहर दोहरापन ना हो। बहुत सारे लोग हैं, जो होते कुछ हैं और दिखाने की कोशिश कुछ और ही करते हैं। कुछ दिनों तक तो उनका सिक्का चलता है लेकिन बाद में जब भेद खुलता है तो कहीं के भी नहीं रहते हैं। उनकी दशा रंगा सियार जैसी हो जाती है। रंगा सियार की कहानी बड़ी पुरानी कहानी है, पंचतंत्र की कहानी है।
एक सियार था, वह जंगल में था। एक दिन जंगल से भागा। भागते-भागते एक रंगरेज के हौज में घुस गया और हौज में जैसे ही घुसा तो उसके शरीर में रंग लग गया। अब वह रंग लगा तो उसका शरीर ही अलग रंग का बन गया। अब जैसे ही रंगरेज ने देखा तो वहाँ से वह जंगल की और भागा। भागते-भागते जंगल पहुँचा तब तक रंग सूख चुका था। जंगल जैसे ही पहुँचा तो जानवरों ने देखा कि यह कौन सा जानवर आ गया है, यह तो कोई अजनबी सा दिख रहा है। ऐसा जानवर तो हमने पूरे जंगल में कहीं नहीं देखा है, यह सब से हटकर, सबसे अलग है। अब उसने अपने आपको कहना शुरू कर दिया कि मैं दिव्य लोक से आया हूँ, भगवान ने मुझे भेजा है तुम सबका राजा बना कर। सारे जंगल के जानवरों ने उसको अपना राजा मान लिया और उसकी अधीनता को स्वीकार करके सारा काम करने लगे। अब क्या था, रंग तो ऊपर का था तो कितने दिन तक चलता। बारिश का समय आया। बारिश होने लगी तो धीरे-धीरे उसका रंग फीका पड़ने लगा। जैसे ही रंग फीका पड़ा उसकी असलियत प्रकट हुई। जानवरों को पता लगा यह तो कोई बेईमान है, यह था कुछ और हमें कुछ और बताया। सारे जानवरों ने मिलकर उसकी जमकर मरम्मत की, उसकी असलियत प्रकट हो गई। रंगा सियार का तो पता नहीं कि वो कब हुआ लेकिन हर मनुष्य के भीतर ऐसी ही दशा देखने को मिलती है। रंगा सियार बनना ठीक बात नहीं। अपनी वास्तविकता को छिपाकर यह जीवन में कृत्रिमता का लबादा मत ओढिए। जब ऐसे व्यक्ति जो होते कुछ है और दिखाते कुछ है। साधारण आदमी भी जब अपना बड़ा स्टेटस शो करने के लिए होड़ में होता है तब अनेक प्रकार के कृत्रिम लबादे को ओढ़ लेता है। बाद में जब भेद खुलता है तो उसे मुँह की खानी पड़ती है। वह कहीं का नहीं रहता।
संत कहते हैं- भैया! ऐसा कच्चा काम करते क्यों हो? जैसे हो, जितने हो, जिस रूप में हो उसी रूप में रहो और अपने जीवन का मज़ा लो। एक साधारण आदमी भी इज्जत से अपनी जिंदगी जी लेता है। लेकिन साधारण होने के बाद असाधारण दिखाने की ख्वाहिश तुम्हें कहीं का नहीं छोड़ेगी। आजकल ऐसी कृत्रिमता बहुत तेजी से फैल रही है और कई कई बार तो ऐसी घटनाऐं सामने आती है कि आज की इस आधुनिकता में एक-दूसरे की देखा-देखी की होड़ में मनुष्य कितना नीचे आ जाता है।
एक महिला जो बड़े बेशकीमती आभूषण और बड़े ही कीमती गहने पहनकर बढ़िया महंगी साड़ी पहनकर कहीं गई हुई थी। बढ़िया साड़ी और महंगे कीमती गहनों के साथ जब सहेली ने देखा तो उससे पूछा- क्या बात है! आज तो तुम बहुत बढ़िया गहने और अच्छी साड़ी पहने हो। क्या बात है, तुम्हारे पति ने व्यापार बदल लिया या उनकी आमदनी बढ़ गई? क्या तुम्हारे पति की इनकम बढ़ गई या उन्होंने अपना व्यापार बदल लिया? उस स्त्री ने छूटते ही कहा- छोड़ो इन्हे सब मैंने तो अपना पति ही बदल लिया, पति ही बदल लिया। क्या कहानी है यह, क्या यह कृत्रिमता हमारे जीवन को सुखी बना पाएगी?
क्या ऐसे व्यक्ति से आप प्रभावित होंगे? कतई नहीं, ध्यान रखो- दो तरह से व्यक्ति के व्यवहार के बारे में सोचा जाता है। एक व्यवहार तो अपने व्यवहार से दूसरों को प्रभावित करने के लिए प्रयास करे और एक व्यवहार से अपने जीवन को सुखी और संतोषी बनाए रखे। जब तुम्हारा व्यवहार कृत्रिम होगा तो कुछ पल के लिए तुम सामने वालों को भले ही प्रभावित कर पाओ पर जीवन भर दु:खी होओगे और तुम्हारा व्यवहार स्वभाविक सहज जैसा होगा वैसा होगा तो तुम औरों को प्रभावित भी करोगे और हर पल आनंदित भी रहोगे, जीवन भर प्रसन्नचित रहोगे। तो अपने व्यवहार को ऐसा बनाइए जो तुम्हें सुखी करें और सामने वाले को संतुष्टि दे, प्रसन्नता दे, तुम्हारा अनुगामी बने। तीसरी बात जीवन में सरलता हो, कृत्रिमता ना हो, कुटिलता ना हो। सहज तरीके से अपने जीवन को जीने की कोशिश करें मिलनसार बन कर अपना जीवन को जिए।
चौथी बात- सादगी। सादगी को अपने जीवन का आदर्श बनाइए। जो प्रभाव सादगी का पड़ता है वह चमक दमक का नहीं। चमक दमक का प्रभाव अल्पकालिक होता है और सादगी का प्रभाव दीर्घ स्थाई होता है। लेकिन आज की दुनिया केवल ऊपर की चमक दमक के पीछे पागल है। उसे सादगी का मूल्य और सादगी का महत्व समझ में नहीं आता है। लेकिन संत कहते हैं अंततः सभी को सादगी ही चाहिए। देखिए, मैं आप सबसे एक बात पूछता हूँ कि दिन भर आप चाहे जितने महंगे कपड़े पहनते हो, तड़क-भड़क वाले डिजाइनर कपड़े पहनते हो, पर सोते समय आप लोग कैसे कपड़े पहनने पड़ते हैं? क्या बात हुई? विश्राम के समय क्या करते हो? आप कहोगे- महाराज! सादे कपड़े पहनते हैं, पर क्यों, क्यों? महाराज! आराम तो उसी में ही मिलता है, रोज का अनुभव, है कि नहीं? बताइए। कभी जींस और टीशर्ट पहनकर सोए हो? लोग कहेंगे कि महाराज! सोते समय लुंगी पहनकर सोने में जो मजा है, जींस टीशर्ट में नहीं। है ना, पर क्यों? क्या बात है यह, रोज का अनुभव है कि नहीं। ध्यान रखना, तड़क-भड़क में चमक भले ही हो सकती है पर आराम तो सादगी में ही मिलता है, यही जीवन का सूत्र बना लो। आराम चाहिए तो सादगी अपनाइए। जितना सादा जीवन होगा उतना ज्यादा अच्छा लगेगा।
एक स्थान पर मैं था। वहाँ के महिला मंडल ने दसलक्षण के समय में अपने ड्रेस कोड के लिए दस दिन की दस अलग-अलग तरह की साड़ियाँ बनवाई। जब वह सभी दर्शन करने आती थी तो रोज दस अलग-अलग तरह की साड़ियाँ और सब एक साथ ग्रुप में आती थी। मैंने देखा रोज सब साथ में आ रही है और रोज सबकी साड़ियाँ भी चेंज हो रही है। तो मैंने एक दिन उनसे पूछा- वहाँ पर ही समाज के कुछ लोग भी बैठे थे। उन्होंने कहा- महाराज जी! दस दिन की दस तरह की साड़ियाँ हैं। मैंने बोला क्या जरूरत थी दस दिन की दस तरह की साड़ियों की। समाज के लोग बोले- महाराज जी! दस दिन की दस तरह की साड़ियाँ हुई तो हम लोगों की बहुत कुछ बचत हो गई। मैंने पूछा कि क्या बचत हो गई? तो वह लोग बोले कि यह एक ही रेंज की साड़ियाँ है। नहीं तो दस दिन की दस तरह की साड़ियाँ होती और पर सौ के दाम लग जाते। दस दिन के दस होती तो सौ के दाम लग जाते और सबकी अपनी-अपनी होड़ होती। महाराज जी! हम तो इस में भी खुश हैं कि दस दिन की दस तरह की अलग-अलग साड़ियाँ हैं, पर एक जैसी रेंज है और टाइम भी बचता है। इससे टाइम की भी बचत है। साड़ियों का एक रंग होने से एक और फायदा है कि टाइम बच गया कि अब आज तो यह ही पहनना है, इसके अलावा किसी और साड़ी को नहीं पहनना है, नहीं तो चूज़ करने में बहुत मुश्किल होती है, यह सब किसके लिए?
दुनिया को रिझाने के लिए मनुष्य खुद को दु:खी बनाता है। यह कृत्रिमता है इसे समाप्त करना चाहिए। सादगी को अपनाने की कोशिश कीजिए जो सिंपल और सोबर हो। कहीं बहुत डार्क कलर हो, तड़क-भड़क वाला रंग हो तो पसंद आता है क्या? और एकदम सादा हो, सात्विकता हो तो क्या होता है-सिंपल सोबर। ध्यान रखना जो जो सिंपल होता है वही सोबर होता है। आप सोबर बनना चाहते हैं तो आप सिंपल बनिए। जो मजा सिंपली-सिटी में है वह हाई-फाई में नहीं है, सीखिए।
‘सादा जीवन उच्च विचार’ के आदर्श को अपनाइए, जीवन पर गहरा असर होगा।
गांधी जी जब दक्षिण अफ्रीका गए तो वहाँ का एक पादरी, एक दिन उसने सोचा कि गांधी बड़ा ही प्रभावशाली व्यक्ति है। इसे यदि बदल दिया जाए तो पूरे हिंदुस्तान को ईसाई बनाया जा सकता है। उन्होंने गांधी जी से दोस्ती का हाथ बढ़ाया और प्रति रविवार को अपने घर पर भोजन करने का निमंत्रण दिया। गांधी जी ने उसके निमंत्रण को बड़ी विनम्रता से स्वीकार लिया और कहा मैं शाकाहारी हूँ। तो पादरी ने कहा- ठीक है गांधी जी! आपके लिए मैं शाकाहारी भोजन का ही प्रबंध करूँगा। रविवार के दिन उस पादरी के यहाँ जो ईसाई था पूरा भोजन पानी आदि का प्रबंध बिल्कुल हटकर किया जाने लगा। शाकाहारी भोजन बनने लगा तो उसके पुत्रों ने बोला- क्या बात है कि आजकल हमारे लिए जो रूटीन में खाना बनता है तो इस तरह का खाना क्यों बनने लगा? पादरी ने कहा कि मेरे गेस्ट मित्र गांधी जी आ रहे हैं। पुत्रों ने कहा- गांधी आ रहे हैं तो यह भोजन क्यों बन रहा है? पादरी बोला- वह नॉन वेज नहीं खाते हैं वह वेज खाते है। पुत्र बोले वह नॉनवेज क्यों नहीं खाते है। पादरी बोला कि गांधी जी बोलते हैं कि नॉनवेज खाने में पाप लगता है। वह लोग कहते हैं कि यह धर्म के विरुद्ध है। बच्चों ने कहा- अरे! नॉनवेज खाने में पाप लगता है तो पाप हमको भी लगता है। हमें भी वेज ही खाना चाहिए। पादरी बोला- अरे! नहीं नहीं यह तो उसका धर्म है। बच्चों ने कहा उसका और मेरा धर्म क्या होता है? धर्म तो बस धर्म होता है, जो अच्छी चीजें हैं, उन्हें तो अपनानी ही चाहिए। अब गांधी जी हर रविवार को घर में आने लगे। गांधीजी से मिलते-मिलते उनके बच्चों के मन में उत्सुकता जगने लगी। गांधी जी की सादगी पूर्ण वेशभूषा और सदाचार परक प्रवृति के परिणम से बच्चों को बड़ा अच्छा लगने लगा। वह बच्चे गांधी जी से धार्मिक चर्चाएँ भी सुनने लगे। तीन-चार हफ्ते हुए कि बच्चे इतने प्रभावित हुए उन्होंने अपने पिता से कहा- अब हम भी पूरी तरह शाकाहार ही अपनाएंगे। हम भी गांधी की तरह शाकाहार अपनाएंगे। गांधी जी का भोजन बहुत अच्छा लगता है अब हम इसे ही रोज खाएंगे। पाँचवे हफ्ते में पादरी ने गांधी जी से कहा- मिस्टर गांधी! मैं अपना निमंत्रण वापस लेता हूँ। मैंने तो तुम्हारे से दोस्ती का हाथ सिर्फ इस ख्याल से बढ़ाया था कि मैं तुम्हें बदल दूँ तो तुम पूरे हिंदुस्तान को बदल डालोगे पर तुमने तो उल्टा मेरे घर में ही सेंध लगा दी।
यह सादगी का प्रभाव है, शालीनता का प्रभाव है। अगर तुम अपने व्यक्तित्व को अच्छा आकर्षक और व्यवहार को सुंदर शालीन बनाना चाहते हो तो जीवन में सादगी अपनाइए, मधुरता लाइए, सरलता लाइए, सादगी अपनाइए। हमेशा अपना व्यवहार ऐसा बनाओ कि घर से बाहर जाओ तो लोग तुम्हारे आने का इंतजार करें, घर से बाहर जाओ तो लोग तुम्हारे लौटने का इंतजार करें। जब तक तुम लौटो नहीं तब तक तुम्हें याद करें और लौट आओ तो जी भर कर तुमसे प्यार करें। यह व्यवहार तुम्हारा होना चाहिए। ऐसा व्यवहार मत बनाओ कि कहीं जाने लगे तो लोग सोचने लग जाएँ कि इसे जाने दो, बला टली, इससे छुट्टी। दोनों तरह के लोग होते हैं। जितनी देर बाहर उतनी देर शांति।
एक बार ऐसा हुआ कि एक अम्मा आई कि महाराज जी! हमें TV का त्याग दो, TV नहीं देखना है, TV छोड़ना है। वहीं पर बहू भी बैठी थी, बोली कि महाराज! यह नियम मत दो। सास बोल रही थी- TV छोड़ना और बहू बोल रही है कि महाराज नियम मत दो। मैंने कहा- क्या बात हो गई? बहु बोली- महाराज जी! टीवी छोड़ेगी तो मुझे पकड़ लेगी। कई बार मामला गड़बड़ हो जाता है। लोग सोचते हैं कई बार मंदिर में बैठे हैं जितनी देर भी मंदिर में बैठे हैं, बैठे रहे, घर में तो शांति है। ऐसी स्थिति कभी मत नहीं बनाएं। मनुष्य को उसका व्यवहार ही आदरणीय बनाता है और दुर्व्यवहार उसे अप्रासंगिक बनाता है। अपना व्यवहार ऐसा बनाइए जो सब आपको समादर करें, समाश्रित करें, आदर करें, सम्मान दें। ऐसा व्यवहार ना करें जो आप अपने ही घर परिवार में अप्रासंगिक बन जाए, सब की उपेक्षा और तिरस्कार के पात्र बन जाओ।
तो अल्फाबेट के आज बी(B) की बात हुई अपने व्यवहार को सुंदर बनाए सरल बनाइए और आगे चलें।”
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