Letter – ‘C’
एक बड़ी कंपनी के प्रेसिडेंट ने बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की मीटिंग बुलाई और सबके बीच उन्होंने कहा कि मुझे वह सारे उपाय बताओ जिससे हमारी कंपनी फ़ैल हो जाए। सारे के सारे लोग सकते में आ गए कि कंपनी को ग्रोथ देने के लिए तो मीटिंग हमेशा होती है और सारी मीटिंग में चर्चा होती है कि कंपनी कैसे ग्रोथ करें लेकिन यहां तो उलटा कंपनी को फेल करने की बात कर रहे हैं। सबने आश्चर्य के साथ मालिक की तरफ देखा। प्रेसिडेंट ने कहा- मैं कह रहा हूं कंपनी कैसे फ़ैल हो वह मुझे बताओ। फिर क्या था, कंपनी को फेल करने के जितने भी कारण हो सकते थे सबने एक स्वर में गिना दिए। प्रेसिडेंट ने चुपचाप सारी बातें सुनी और कहा- मैं यही चाहता हूं कि हमारी कंपनी को इन बातों से बचा कर रखो जिन कारणों से कंपनी डूबती है, फ़ैल होती है, उन बातों से बचा कर रखो हमारी कंपनी अपने आप बदल जाएगी।
बंधुओं! बाहर की कंपनी को ग्रोथ देने के लिए लोग कई तरह से सोचते हैं, चिंतन करते हैं, विचार करते हैं। अपने जीवन की कंपनी को ग्रोथ देने के लिए भी हमें विचार करना जरूरी है। एक बात बहुत मायने की है कि कंपनी को ग्रोथ देने वाले कारकों को हम भले ना अपना पाए, नुकसान पहुंचाने वाले कारकों से अपने आप को बचा ले। ग्रोथ तो स्वाभाविक रूप से हो जाएगी। किन कारणों से हमारी जिंदगी की कंपनी को नुकसान पहुंचता है? ABCD चल रही है, आज C की बात है। C का मतलब कंपनी है, लेकिन अपनी जिंदगी की कंपनी को ग्रोथ देना है। वह स कैरेक्टर हमारा कैसे ठीक हो, अपनी जिंदगी की कंपनी को हम कैसे ग्रोथ दें तो बस कुछ नहीं कहता चार चीजों को रिफ्युज़ कीजिए। वह है- कॉम्पिटीशन (Competition), कंपैरिजन (Comparison), कॉन्ट्रोवर्सी (Controversy) और कंडेम (Condemn)।
अपने जीवन को सुखी और शांत बनाना चाहते हो, अपने जीवन को वास्तविक ग्रोथ देना चाहते हो तो इन चार से बचकर चलो।
पहला- कॉम्पिटीशन का मतलब ‘प्रतिस्पर्धा’। मनुष्य की सुख, शांति और चैन को लीलने वाला सबसे बड़ा कारण। संत कहते हैं- ‘अपने जीवन को सुखी बनाना चाहते हो, प्रसन्न बनाना चाहते हो तो कभी किसी के साथ कॉम्पिटीशन मत करो। अपने आप अपना पुरुषार्थ करके आगे बढ़ो लेकिन दूसरों से होड़ मत करो। खुद को प्रगतिशील बनाना बुरी बात नहीं है, बनाना भी चाहिए। प्रगतिशीलता कतई बुरी नहीं है, प्रतिस्पर्धा कभी अच्छी नहीं है। प्रगतिशील बनो, आगे बढ़ो, खुद को अपना लक्ष्य बनाकर आगे बढ़ने का पुरुषार्थ करो पर किसी से प्रतिस्पर्धा मत करो। उससे आगे निकलूँ, उससे आगे निकलूँ यह मत करो। मैं आगे बढ़ूँ यह एक सकारात्मक भावना है पर मैं उसको पीछे धकेल उससे आगे बढ़ूँ यह एक नकारात्मक आवेग है जो मनुष्य को दुखी बनाता है। हर व्यक्ति आजकल कॉम्पिटीशन करना चाहता है, हर चीज में कॉम्पिटीशन है। व्यापार है तो व्यापार में कॉम्पिटीशन, अपना रहन-सहन है तो रहन-सहन में कॉम्पिटीशन, पढ़ाई में कॉम्पिटीशन, शादी है तो उसमें कॉम्पिटीशन। हर जगह कॉम्पिटीशन, ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा जिसमें व्यक्ति एक दूसरे के साथ कॉम्पिटीशन ना करता हो। यह कॉम्पिटीशन की प्रवृत्ति बहुत अच्छी प्रवृत्ति नहीं है। संत कहते हैं- ‘अपने जीवन को आगे बढ़ाओ प्रगति करोगे पर किसी को सामने खड़े करके आगे बढ़ोगे पीछे आ जाओगे। और कॉम्पिटीशन होड़ होती है तो किसमें होती है? एक व्यक्ति धर्म क्षेत्र में आगे बढ़ रहा है उससे कोई कॉम्पिटीशन नहीं करेगा, एक व्यक्ति त्याग-तपस्या कर रहा है तो इससे कोई कॉम्पिटीशन नहीं करेगा। दुनियादारी के कामों में सब कॉम्पिटीशन करने के लिए तत्पर रहते हैं और यही मनुष्य के जीवन को उलझा कर के रख देते हैं। महाराज! आप कहते हैं कॉम्पिटीशन ना करें पर आज तो हर मामले में गला काट प्रतियोगिता चल रही है अगर उसमें कॉम्पिटीशन नहीं करेंगे तो हम पीछे नहीं रह जाएंगे? मैं पुनः दोहरा रहा हूं- आप पीछे रहो मैं यह बात कभी नहीं कहता, मैं हमेशा कहता हूं आगे बढ़ो, आगे बढ़ने का प्रयास करो, प्रेरणा लो लेकिन इससे आगे, उससे आगे की बात छोड़ो। आप गाड़ी चलाते हैं, अपनी मस्ती में गाड़ी चला रहे हैं। जितनी गति आप गाड़ी में दे सकते हैं दीजिए आपको आनंद रहेगा। लेकिन आप अपनी मस्ती में गाड़ी चला रहे हैं किसी ने आपको ओवरटेक किया, आगे बढ़ा और अब आपके मन में आया इसने मुझे ओवरटेक किया मैं इसको पीछे करूं। आपने अपनी स्पीड और बढ़ा दी, उसको पीछे किया फिर एक को और पीछे किया, फिर एक को और पीछे किया। कितनो को ओवरटेक करोगे? अपनी गति से गाड़ी चलाने में जो आनंद है क्या ओवरटेक करने में वह मजा है? बोलो। भाई! तुम्हारी जितनी क्षमता, तुम्हारी जितनी शक्ति तुम अपनी गति बढ़ाओ। इसका कतई निषेध नहीं लेकिन ओवरटेक, ओवरटेक, ओवरटेक करने की प्रवृत्ति कतई अच्छी नहीं। कितनों को ओवरटेक करोगे एक को, दो को, तीन को, चार को, पांच को, दस को। ओवरटेक करते करते तुम पर ही अटैक हो जाएगा, मामला गड़बड़ हो जाएगा। आज तुम क्या कर रहे हो? आगे बढ़ रहे हो या ओवरटेक कर रहे हो? यह ओवरटेकिंग की प्रवृत्ति अच्छी नहीं है।
दो तरह की प्रवृत्ति होती है। एक मछली की और एक केकड़े की। मछली क्या करती है? एक मछली दूसरी मछली को क्रॉस करके आगे बढ़ जाती है, दोनों को कोई फर्क नहीं पड़ता क्रॉस करने वाली मछली और जिसे क्रॉस किया जाता है। वह मछली सब अपनी गति से चलती हैं, अपनी मस्ती में चलती हैं। आगे निकल गई, अपनी गति बढ़ाई आगे निकल गई। वहां मछली का भाव सामने वाली मछली को पीछे करने का नहीं होता, खुद को आगे बढ़ाने का होता है। यह है स्वस्थ प्रतिस्पर्धा जो आगे बढ़ने की प्रेरणा दें। आप अपने आप को आगे बढ़ाओ यह प्रगति है लेकिन दूसरी तरफ केकड़े को देखो। केकड़ों का हिसाब क्या होता है? एक केकड़ा आगे बढ़ता है तो चार उसकी टांग खींचते हैं। केकड़ों की यह बड़ी विचित्रता होती है वह खुद को आगे बढ़ने और बढ़ाने के लिए पुरुषार्थ नहीं करते। सामने वाले को पीछे धकेलने की चेष्टा करते हैं, खींचते हैं। राजनीति शास्त्र का प्रोफेसर अपने स्टूडेंट्स के साथ जा रहा था। सड़क के किनारे एक तालाब था। देखते हैं कि एक व्यक्ति तालाब के किनारे केकड़ों को पकड़ रहा है। टोकरी खुली है उसमें कुछ केकड़े पड़े हैं। विद्यार्थियों को यह बड़ा अटपटा लगा। कहीं गड़बड़ हो ना जाए, यह आदमी कैसा बेवकूफ है, खुली टोकरी में केकड़े रखे हैं तालाब के किनारे हैं अगर केकड़े उछलकर छलांग लगाएं तो एक छलांग में पानी में चले जाएंगे और इसकी सारी मेहनत बेकार चली जाएगी। प्रोफेसर ने कहा ऐसा कभी नहीं होगा। क्यों? तुम नहीं जानते यह केकड़े हैं। यह केकड़े हैं। बोले- क्यों? बोला- यह केकड़े जन्मजात राजनीतिज्ञ हैं, यह सब पैदाइशी पॉलिटिशियन है। एक केकड़ा उछलेगा चार उसकी टांग खींचेंगे। यह कॉम्पिटीशन से उत्पन्न प्रतिद्वंदिता की भावना है, इसमें प्रगति नहीं प्रतिगति है।आज हर कोई प्रतिगामी बनकर अपनी प्रगति में अवरोध खड़ा कर रहा है। आप किसी एक को टारगेट बनाकर चलना शुरु करते हैं तो आपका सारा समय और शक्ति उसी पर केंद्रित हो जाती है, उससे आपके अंदर और जो क्षमताएं हैं आप उसका उपयोग नहीं कर पाते लेकिन जब मेरा लक्ष्य व्यापक हो तो मैं अपना शत-प्रतिशत उसमें समर्पित करूं और अपने आपको आगे बढ़ा सकता हूँ। तय कीजिए आज से किसी से कोई कॉम्पिटीशन नहीं, किसी से कॉम्पिटीशन नहीं। हम किससे कॉम्पिटीशन करें, हम किस को पीछे छोड़ने की बात करें। यह बात ठीक नहीं है।
दूसरी बात है- कंपैरिजन। कंपैरिजन मतलब तुलना। एक दूसरे से तुलना, एक तरफ होड़ होती है, बाद में तुलना करता है आदमी। उससे कौन बड़ा, किस पर कौन भारी, कौन अच्छा, कौन खराब यह तुलना बहुत होती है। आजकल तो आप तुलना करने में माहिर हैं। सब एक दूसरे की तुलना ही करते हैं और तो छोड़ो महाराज लोगों की भी तुलना करते हैं। वह महाराज थे तो ऐसा हुआ था, यह महाराज है तो है तो ऐसा हुआ। वह ऐसा बोलते हैं यह ऐसा बोलते हैं। उनके प्रवचन ऐसे होते हैं इनके प्रवचन ऐसे होते हैं। वह सबसे मिलते हैं यह किसी से नहीं मिलते। यह सब तुलना। अरे! भैया तुम उनकी तुलना कर रहे हो खुदको तो तोलो तुम कहां हो। तुम्हें यह जिम्मेदारी किसने दी? किसकी तुलना, किससे तुलना। आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए तो संसार का हर प्राणी समान है और सब अपने आप में अतुल हैं, अनुपम है। किसी से किसी की तुलना करने की जरूरत ही नहीं है। पर मनुष्य की छुद्र वृत्ति उसे एक दूसरे के साथ तुलना करने के लिए बाध्य कर देती है, वह एक दूसरे के साथ तुलना करता है और तुलना में अपने आप को जब थोड़ा ऊपर महसूस करता है छाती फूलाता है और जैसे ही ग्राहक नीचे की और दिखता है मन आकुल-व्याकुल हो जाता है। इन्फेरिओरिटी और सुपेरिओरिटी यह जो काम्प्लेक्स हैं वह इसी तुलना के नतीजे हैं। तुम अपने आपको देखो तुम्हारी क्या स्थिति है। आजकल हर कोई व्यक्ति की योग्यता और परिस्थिति को देखे बिना दूसरों से तुलना करते हैं। उसी अनुरूप अपेक्षा भी रख लेते हैं। एक मां-बाप अपने बच्चे की तुलना करते हैं। बच्चा है पढ़ रहा है की तुलना करेंगे जिससे जो मेरिट में आया उससे। भैया! मेरिट में सब आ जाएं तो मेरिट का मजा क्या। सब तो मेरिट में नहीं आता, कोई आता है, कोई-कोई आता है।
एक ने अपने बेटे की शिकायत करते हुए कहा- महाराज! मेरा बेटा पढ़ता नहीं है, आप थोड़ा इसको पूछो समझाओ। मैंने बोला- क्या बात है? महाराज! हमारे भतीजे के मार्क्स बहुत अच्छे आए वह मेरिट में आया है। इसको मैं खूब समझाता हूं पर सुनता ही नहीं है, इसके मार्क्स ही नहीं आते। मां भी साथ में थी। मैंने बोला कितने मार्क्स आए? बोला- 75%। मैंने बोला- 75% कम थोड़ी है। बोला- महाराज! भतीजे का 92% आया।मैंने बोला- आ गया तो आ गया, सबका टैलेंट एक सा थोड़े ही होता है। बोला- महाराज! दोनों एक क्लास में पढ़ते हैं, एक सी टूशन पढ़ते है, एक ही स्कूल में पढ़ते हैं, अच्छा नहीं लगता। मैंने बोला- ध्यान रखो, दोनों एक स्कूल में पढ़ सकते हैं, एक क्लास में पढ़ सकते हैं, एक सी टूशन ले सकते हैं पर दोनों की बुद्धि एक सी हो यह व्यवस्था हमारे हाथ में नहीं है। यह तो प्रकृति ने प्रदान की स्वीकार करो। सब का टैलेंट एक सा नहीं होता, अलग-अलग होता है, तुम इस बात को जोड़कर अपने बच्चे के प्रति एक अपराध कर रहे हो। वह फ़्रस्ट्रेट होगा, उसके अंदर जो क्षमता है वह करो। तभी उसका मित्र भी बैठा था। वह बोला- महाराज! यह फालतू परेशान होते हैं। लड़का 75% भले लाया लेकिन उसकी क्षमता असाधारण है, बड़ा टेक्निकल माइंड का आदमी है, छोटी मोटी बातों को भी इस उम्र में वह ऐसे कर देता है जैसे कोई इंजीनियर कर रहा हो। हमने कहा- देख केवल उस परसेंट को देखेगा तो जिंदगी भर दुखी रहेगा और उसकी योग्यता को देखेगा तो जीवन में कभी भी दुखी नहीं होगा। इसकी योग्यता को उभारो, उससे उसकी तुलना ना करो और फिर मैंने उससे पूछा कि तुम अपने बेटे के 75% लाने पर इतना दुख अनुभव कर रहे हो तुमने अपनी पढ़ाई की मैंने बोला कहां तक पढ़ाई की? पति बोला मेट्रिक, पत्नी बोली नाइंथ क्लास। मैंने पूछा- तुम कितने परसेंटेज लाए थे? बोले- महाराज! उस जमाने में 45% लाए थे। पत्नी से पूछा, बोली- हम तो पास हो जाते थे यही बहुत था। हम बोले प्रोडक्ट तो तुम्हारा है तुम 45 और 30 दोनों मिलाकर 75 ले आये, कम थोड़े ही है और इसमें दुखी हो रहे हो। बेकार दुखी होने के अलावा और क्या है। तुम्हारा 45 इसका 30 दोनों को मिला दिया और उसके बाद भी तुम्हें संतोष नहीं।
यह कंपैरिजन की प्रवृत्ति कॉम्पिटीशन को जन्म देती है। इससे व्यक्ति बहुत दुखी होता है। अंदर से टूटता है। आज आत्महत्या की प्रवृत्ति क्यों बढ़ रही है इसीलिए बढ़ रही है। बच्चे हो या बड़े किसी से तुलना मत करो। जिसके अंदर जो योग्यता है उसे ही उभारने की कोशिश करो। वह जीवन में कभी दुखी नहीं होगा और एक दूसरे के साथ ऐसी तुलना करते रहोगे तो सिवाय दुखी होने के कुछ भी हासिल नहीं होगा। अब तक तो यही हुआ है हर बात में कंपैरिजन, क्या मिलता है मत करिए, कंपेयर मत करिए। कॉम्पिटीशन भी मत करिए। आजकल तो लोग होड़ में बहुत फिजूलखर्ची करते हैं। शादी ब्याह में कितना फिजूलखर्ची होता है, सारे हिंदुस्तान में है यह बोल रहे हैं दिल्ली में ज्यादा है, यह बीमारी सब जगह है। उसने इतना खर्चा किया तो मैं इतना खर्चा करूंगा। अच्छा आप एक बात बताओ जितने शादी-विवाह होते हैं, इस तरह के खर्च के कार्यक्रम होते हैं उसमें शरीक होने वाले लोगों की क्या प्रतिक्रिया होती है? शादी-विवाह या ऐसे समारोह में जाने के बाद लोग क्या कहते हैं? अरे! उसके यहां इतना आइटम है इसके यहां इतना आइटम है, इसके यहां की मिठाई अच्छी है, इसके यहां यह कमी रह गई उसके यहां वह कमी थी। क्या हुआ? कंपैरिजन होता है, क्रिटिसाइज़ होता है। तुम्हारा ही माल खाया, माल भी तुम्हारा ही खाया और मन के मुताबिक माल खाया और चखकर खाया। माल भी खाया और आलोचना भी की। अक्सर यह होता है कि नहीं? फिर भी लोग कैसी आत्ममुग्धता में जीते हैं। इसके उपरांत भी अपने आप को बदलते नहीं, सब उसी होड में लगे हुए हैं। मैं आपसे कहता हूं- ऐसा कोई काम मत करो जिससे किसी के अंदर कॉम्पिटीशन की भावना आए, ऐसा काम करो जो तुमसे कोई कॉम्पिटीशन ही ना कर सके, जिसमें कॉम्पिटीशन ही ना हो। बोलो कॉम्पिटीशन वाला काम अच्छा है या जिसमें कोई कॉम्पिटीशन नहीं वह अच्छा है। कॉम्पिटीशन वाले काम में लगोगे तो कल हार भी सकते हो लेकिन जिसमें कोई कॉम्पिटीशन ही नहीं तुम्हारा कोई मुकाबला ही नहीं। क्या करो- साधारण प्रवृत्ति को अपनाओ असाधारण छाप पड़ेगी और तड़क-भड़क में रहोगे तो जिंदगी बहुत भागमभाग रहेगी और कुछ नहीं होगा। इस भागमभाग आपाधापी से अपने आप को बचाइए। कॉम्पिटीशन और कंपैरिजन इन दोनों से अपने आप को बाहर निकालिए। मैं अपने जीवन में किसी से कोई कॉम्पिटीशन नहीं करूंगा, अपने आप को आगे बढ़ाने की कोशिश करूंगा पर मुझसे आगे कौन है यह देखने का प्रयास कभी नहीं करूंगा। अगर कदाचित दूसरों को से प्रेरणा लूं तो अच्छे के लिए लूंगा, बुरे के लिए नहीं और कभी किसी से कंपैरिजन नहीं करूंगा। ध्यान रखना दूसरों से जब भी तुम कंपैरिजन करोगे अपने आप को छोटा महसूस करोगे, तुम्हारे अंदर फ्रस्ट्रेशन आएगी। कंपैरिजन करना है तो तुम अपने से नीचे वालों को भी सामने रखो और देखो कि मैं कहां हूं। जीवन तुम्हारा संतुलित होगा।
कॉम्पिटीशन, कंपैरिजन, कॉन्ट्रोवर्सी जीवन में कभी किसी से विवाद नहीं करें। आजकल बात-बात में विवाद होता है। विवाद क्यों होता है? आप लोगों का विवाद कभी किसी से हुआ कि नहीं? ऐसा कोई व्यक्ति है जिसका कभी किसी से विवाद नहीं हुआ। महाराज! रोज ही होता है। विवाद क्यों होता है और विवाद के बाद परिणाम क्या होता है? बोलो। विवाद करने के बाद मजा आता है? कषाय बढ़ती है, दुख होता है, आकुलता होती है, टेंशन होती है फिर भी विवाद करते हैं। विवाद क्यों? यह हमारे अंदर के ईगो का परिणाम है, हमारे अंदर का अहंकार हमें विवादी बनाता है। बंधुओं! कॉम्पिटीशन हो, कॉन्ट्रोवर्सी हो या कंपैरिजन हो यह सब हमारे अंदर के अहंकार पूर्ण उद्धत मानसिकता का परिणाम है। जब व्यक्ति अहमन्यता से भर जाता है- अरे! मुझसे बड़ा कोई नहीं, मैं ही सब कुछ, मैं ही सब कुछ बाकी सब तुच्छ या मैं सब कुछ बनूं बाकी कुछ रहे ही नहीं। यह जो अहमन्यता पूर्ण अवधारणाएं हैं वह व्यक्ति को ईर्ष्यालु बनाती है, प्रतिस्पर्धी बनाती है, प्रतिद्वंदी बनाती है। उस कारण उसके हृदय में बैर-विरोध की भावनाएं जन्म लेने लगती है, विवाद उत्पन्न होता है।
विवाद कैसे होता है? दो मित्र थे। एक दार्शनिक था और एक साधारण। दोनों में अच्छी बातें होती रहती थी, मिलते थे। एक दिन साधारण मित्र ने अपने दार्शनिक मित्र से कहा कि यह विवाद कैसे जन्मता है? विवाद कैसे जन्म लेता है? उसने कहा- कभी बताऊंगा। बातचीत का दौर आगे बढ़ा और बातचीत के क्रम में उसने कहा- मैं दक्षिण जाऊंगा हिमालय चढ़ना है। दार्शनिक मित्र ने कहा- मैं दक्षिण भारत जा रहा हूं, मुझे हिमालय चढ़ना है।दूसरा मित्र बोला- पागल हो गया क्या? हिमालय तो उत्तर में है, दक्षिण में थोड़े ही है। किसने कहा उत्तर में है, दक्षिण में है। उसने कहा- हो गया, हिमालय उत्तर में है, मुझे बेवकूफ बना रहा है। बोला- तुम तो शुरु से ही बेवकूफ हो, मुझे जो पता है तो पता है। मुझे पता है हिमालय दक्षिण में है तो दक्षिण में ही है, मैं और किसी की नहीं सुनता। हिमालय दक्षिण में है, दक्षिण में है। बोला- पागल हो गए क्या? हिमालय उत्तर में है। अब एक कह रहा है उत्तर में है एक कह रहा है दक्षिण में है, दोनों अपनी-अपनी बात पर अड़े, बात बढ़ गई, अड़ोस -पड़ोस के लोग इकट्ठे हो गए और बोले तुम दोनों में आज क्या हो गया, झगड़ा कैसे हो गया, आपस में उलझ क्यों रहे हो? जैसे ही आस पड़ोस के लोगों ने पूछा कि आपस में उलझ क्यों रहे हो। दार्शनिक ने पल में अपना पैंतरा बदलाऔर कहा कि भैया! मैं उलझ नहीं रहा हूं, मैं तो इसके प्रश्न का उत्तर दे रहा हूं। इसके प्रश्न का उत्तर दे रहा हूं। इन्होंने प्रश्न किया- विवाद कैसे होता है। मैंने विवाद करके दिखा दिया। जब व्यक्ति अपनी बात पर अड़ते हैं आपस में लड़ते हैं। अड़ियल रवैया अपनाने से विवाद उत्पन्न होता है। अपनी बात पर अड़ जाओ-विवाद। एडजस्टमेंट- संवाद। अड़ो मत विवाद कभी होगा ही नहीं। हमारे यहां विवाद की बात नहीं कही, संवाद की बात कही। सबके साथ अच्छा संवाद बनाकर रखने की बात कही गई। अपने अच्छे संवाद के साथ हम जिएंगे हमारा जीवन में निहाल होगा लेकिन आजकल लोग संवाद कम विवाद ज्यादा करते हैं। देखो, कई बार आप लोगों में जो विवाद होता है क्यों होता है? दो तरह की स्थितियां बनती है- कभी-कभी तो विवाद बोलचाल के कारण हो जाता है और कभी-कभी विवाद के बाद बोलचाल बंद हो जाती है। कम्युनिकेशन गैप होने से विवाद होता है और कभी-कभी विवाद होने से कम्युनिकेशन गैप बढ़ जाता है। दोनों स्थितियां है।
एक दंपत्ति मेरे पास आए। उनके एक मित्र ने शिकायत की कि महाराज इनमें बड़ा विवाद चल रहा है आप थोड़ा मार्गदर्शन दें तो धर्मपत्नी जो बगल में बैठी थी उन्होंने कहा कि महाराज ऐसा कुछ नहीं है 6 महीने से हमारी बोलचाल बंद है। यह क्या है? यह विवाद की परिणति है। आज से तय कीजिए कि मैं कभी किसी से विवाद नहीं करूंगा, कहीं कोई विवादास्पद स्थिति उत्पन्न हो जाए मैं वहां से साइड हो जाऊंगा, वहां से खिसक जाऊंगा। यदि यह भाव ह्रदय में आ गया तो मनुष्य के जीवन में कभी उलझन नहीं होगी लेकिन लोग हैं जो अपने जीवन को संभालने की चेष्टा नहीं करते, निरंतर उलझते हैं और उलझाने में रुचि रखते हैं। तो कंट्रोवर्सी अच्छी बात नहीं है इससे अपने आप को बचाइए।
चौथी बात- कंडेम। कंडेम का मतलब किसी की भत्सर्ना करना, अपमान, अवमानना और तिरस्कार करना। अपने जीवन को सुखी बनाना चाहते हो, अपने चरित्र को निर्मल और पवित्र बनाना चाहते हो तो तय करो कि जीवन में मैं कभी किसी की भत्सर्ना नहीं करूंगा, कभी किसी का अपमान नहीं करूंगा, कभी किसी का तिरस्कार नहीं करूंगा, कभी किसी को नीचा दिखाने का प्रयास नहीं करूंगा। व्यक्ति जब अपमानित हो जाता है तो उसे बहुत वेदना होती है। मान ना मिले तो कोई कठिनाई नहीं लेकिन अपमान हो जाए और सार्वजनिक अपमान हो जाए तो व्यक्ति का मन टूट जाता है, सीने में गांठ बन जाती है। कई बार ऐसा देखने में आता है, इस तरह की घटनाएं घटती है और लोग उस अपमान और तिरस्कार के परिणामस्वरूप प्रतिशोध की ज्वाला में झुलस जाते हैं। महाभारत क्यों हुआ? दुर्योधन ने अपने आप को अपमानित और तिरस्कृत महसूस किया वह कुंठा महाभारत का रूप ले ली। क्या बात थी- अन्धो के अंधे होते है। यह अपमान वह झेल नहीं सका और महाभारत हो गया। वह महाभारत तो एक बार हुआ आज तो रोज होता है। क्यों किसी का अपमान करो, क्यों किसी का तिरस्कार करो, क्यों किसी की भत्सर्ना करो, क्यों किसी को नीचा दिखाने की कोशिश करो। कभी-कभी किसी को अपमानित करने के बड़े भयावह परिणाम आ जाते हैं।
लाला लाजपत राय जी का नाम आपने सुना होगा। लाला लाजपत राय जी जो स्वाधीनता संग्राम के एक बड़े योद्धा थे। वह स्थानकवासी जैन थे। लाहौर में जन्मे थे, पढ़-लिखकर बाहर से आए और युवा थे, नए विचारों के थे। जब वह लौट कर आए तो उनके स्थानक में एक साधु थे। परिवार के लोग लाला लाजपत राय को लेकर उनके पास गए। वह महाराज पुराने विचारों के थे और जाते ही उनसे आलू वगैरह त्यागने की बात कही। इनका मन तार्किक था। उन्होंने कहा- आलू क्यों छोड़े? तर्क करने लगे, उन्होंने कहा- साधु से तुम तर्क करते हो, वितर्क करते हो। साधु महाराज गरम हो गए और परिवार के लोग उन पर चढ़ बैठे। लाजपत राय उस पल अपने आपको घोर अपमानित महसूस करने लगे। इसका यह कुपरिणाम निकला कि लाजपत राय ने जैन धर्म को त्याग कर आर्यसमाज को स्वीकार कर लिया। यह अपमान का फल है। यह रहस्य की बात बहुत कम लोग जानते हैं। लाला लाजपत राय एक जैन परिवार में जन्मे थे और इस घटना के बाद वे जैन धर्म से बहीरभूत हो गए तो कभी किसी का अपमान, तिरस्कार, अवज्ञा मत करो।
तो चार बातें हैं जिनको रिव्यूज़ करना है किसलिए- अपनी कंपनी को ग्रोथ देने के लिए।
कॉम्पिटीशन से बचना,
कंपैरिजन से बचना,
कॉन्ट्रोवर्सी से बचना और
कंडेम नहीं करना।
यह चार बातों को रिफ्यूज़ करो और भैया रिसीव नहीं कर सकते तो कर कम से कम रिड्यूस करो। पूरी तरह खत्म नहीं कर सकते तो कम करो। चार बातें रिफ्यूज़ करने की कि अब चार बातें प्रोड्यूस करने की करूंगा। चार बातें प्रोङ्यूस कीजिए जो हमारे जीवन को सुंदर बनाए, हमारे जीवन में आनंद का रस घोले। हमारे जीवन में पवित्रता की लहर उत्पन्न करें। वह चार बातें हैं- पहली- कोऑपरेशन। कॉम्पिटीशन छोड़ो कोऑपरेशन अपनाओ। कॉम्पिटीटिव मत बनिए कोऑपरेटिव बनिए। कॉम्पिटीशन में प्रतिस्पर्धा है और कोऑपरेशन में प्रेम है, आत्मीयता है, आनंद है। क्या चाहते हो? अगर तुमने किसी कॉम्पिटीशन में किसी को पछाड़ दिया जीवन भर वह तुम्हें अपना प्रतिद्वंदी मानेगा और तुमने किसी पिछड़ते को सहयोग करके आगे बढ़ाया तो जीवन भर तुम्हारा प्रेमी बनेगा। क्या चाहते हो? दुनिया तुम्हारी प्रतिद्वंदी बने या प्रेमी। क्या चाहते हो? बोलो प्रेम चाहते हो कि सब मुझसे प्रेम करें तो प्रेम बरसाना शुरू करो, सहयोग करना शुरू करो। एक दूसरे को सहयोग करोगे जीवन आगे बढ़ेगा और एक दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करोगे जीवन नर्क बनेगा। ध्यान रखना प्रतिस्पर्धा ईर्ष्या को जन्म देती है और सहयोग से प्रेम की भावना पनपती है। सहयोग मूलक दृष्टि होनी चाहिए। अंदर उदारता होगी सहयोग करोगे। कुछ लोग होते हैं जिनका नेचर बड़ा कोऑपरेटिव होता है हर किसी को मदद करते हैं, हर किसी के साथ कोऑपरेशन की भावना उनके साथ जुड़ी रहती है। वह सबको कोऑपरेट करके चलते हैं और कुछ लोग होते हैं जिनका स्वभाव बड़ा विचित्र होता है वह रंच मात्र भी किसी को कोऑपरेट करने की कोशिश नहीं करते बल्कि सबको पीछे धकेलने का प्रयास करते हैं। अपने आपको बदलिए। कोऑपरेशन की प्रवृत्ति अपनाएगा किसी से कॉम्पिटीशन नहीं होगा और तुम्हारा सबसे जो रिलेशन होगा वह प्रेमपूर्ण बना रहेगा। कॉम्पिटीशन करोगे ईर्ष्या पूर्ण संबंध बनेगा। तुम चाहते हो कि तुम्हारे मन में किसी के प्रति ईर्ष्या ना हो कॉम्पिटीशन छोड़ दो और तुम चाहते हो कि तुम से कोई ईर्ष्या ना करें कोऑपरेशन शुरू कर दो। मेरे मन में कोई ईर्ष्या ना पनपे तो कॉम्पिटीशन की भावना को खत्म करो और मेरे प्रति किसी के मन में ईर्ष्या ना हो कोऑपरेशन शुरू करो। पता लग जाए कि इसके ह्रदय में मेरे प्रति ईर्ष्या है उसको भी कोऑपरेट करो, देखिए कितना मजा आता है।
मेरे संपर्क में दो भाई हैं। देखिए, जीवन क्या होता है मैं प्रायः प्रेक्टिकल बातें करता हूं, आप लोगों की सुनी हुई ही आप लोगों को सुनाता हूं। दो भाई- एक भाई अपने पैतृक नगर में रहा और दूसरा भाई महानगर में चला गया। महानगर में जाने वाले भाई की व्यापारिक स्थिति बहुत सुदृढ़ हुई, बहुत तेजी से बढ़ी। उसने थोड़े समय में काफी कुछ राइज किया। पैतृक नगर में रहने वाले की स्थिति साधारण थी, जैसी थी वैसी ही रही। लेकिन छोटा भाई जो महानगर में गया, पैसा कमाया पर उसके मन में जैसा भाव होना चाहिए वह नहीं आ पाया, अहंकार आ गया, बड़े भाई को हीन भावना से देखने लगा, उनके प्रति उसके मन में अच्छे भाव नहीं थे और संयोग जितनी तेजी से कमाया उतनी ही तेजी से उसका डाउन फॉल हो गया। जैसे बरसाती पेड़ होता है 4-6 महीने में तेजी से बढ़ता है और बरसात खत्म होते ही सुख भी जाता है। उसकी स्थिति बिल्कुल बरसाती पेड़ जैसी हुई, तेजी से बड़ा और झटका लगा तो वापस नीचे आ गया। पहले से भी कमजोर हालत में। अब उसके मन में यह दुर्भाव आ गया कि यह सब मेरे भाई का किया कराया है, मेरे बड़े भाई के कारण हुआ। उसके मन में बड़े भाई के प्रति अंदर ही अंदर द्वेष जलन की भावना आने लगी। बहुत अच्छे रिलेशन दोनों के बीच में नहीं थे, उसको नुकसान हुआ, कुछ कर्ज़दार भी हो गया लेकिन बड़े भाई से बोले कैसे। मन में उल्टी बात बैठी है और अगर हम बोलेंगे तो छोटे पड़ जाएंगे। बड़े भाई को यह सब बात पता लगी, उसे यह भी पता लग गया कि मेरे प्रति उसके मन में क्या भाव है। लेकिन देखो संयोग व्यक्ति के हृदय को कैसे बदलता है और कैसा हृदयशील व्यक्ति सहयोग के लिए हाथ आगे बढ़ाता है। बड़े भाई को सब पता लगा और (उसमे उसकी धर्मपत्नी का भी बहुत योगदान था जो कि बहुत कम होता है) चुपचाप उसने अपनी धर्म पत्नी को अपने भाई की स्थिति बताई और उसे मालूम पड़ गया कि भाई की स्थिति गंभीर है, वह आत्महत्या करने की मानसिकता बना रहा है। धर्म पत्नी ने कहा- आज भगवान की दया से अपने पास है और भाई है तो सब कुछ है। ठीक है उसके मन में कुछ आ गया सो आ गया, अपने को अपना कर्तव्य करना चाहिए। आज पिताजी होते तो यह स्थिति नहीं होती। आप बड़े हो तो बड़े भाई का जो रूप होता है वह पिता से कम नहीं होता, आप एक पिता की तरह अपना कर्तव्य निभाइए। आप जो कुछ अच्छा कर सकते हैं कीजिए। पति-पत्नी दोनों बिना पूर्व सूचना के गए। टैक्सी लेकर घर पहुंचे। अचानक भाई और भाभी को घर में आया देखकर वह एकदम सकपकाया क्या बात है आज अचानक कैसे आ गए। उसे लगा कुछ लेने देने तो नहीं आ गए। अंदर बैठे, भाई ने कहा- मैं आया हूं और तुझसे ही बात करने आया हूं। बोला- भैया! अभी मैं बात करने लायक नहीं हूं। बोला- इसीलिए तो मैं आया हूं और बात भी मुझे तुझसे ही बात करनी है और केवल तुझसे ही बात करनी है। मैंने सुना है कि तुझे बिजनेस में लॉस हुआ है। बोला- लॉस तो हुआ है। तेरे ऊपर कर्ज भी चढ़ गया? बोला- चढ़ गया, अब कमाएंगे तो चुकाएंगे। बड़ा भाई बोला- तेरे ऊपर कर्ज है, अभी मेरे सामने मेरा फर्ज है। तू बता तेरा किससे कितना क्या लेना-देना है। संकोच करने लगा। बोला- संकोच मत कर, तेरा जिसको भी जो लेना-देना है बता। उससे क्या होगा। बोला- वह तेरा काम नहीं है। तुझे सिर्फ बताना है बाकी मैं कर लूंगा। पहले तो संकोच किया लेकिन भाई के बार-बार कहने से उसने वास्तविकता प्रकट की। 92 लाख रुपए की देनदारी थी। 92 लाख की देनदारी जोड़ने के बाद पूछा- और भी कुछ देना है? बोला- नहीं अब सब हो गया। बड़े भाई ने वह लिस्ट अपनी जेब में रखी और कहा- निश्चिंत रहो, कुछ दिन तू घर चल, अब यह देनदारी तेरी नहीं मेरी है अब यह सब तो भूल जाओ और नए सिरे से अपना काम शुरू करो, अपने जीवन को संभाल। जैसे ही भाई ने यह कहा वह बड़े भाई के चरणों में गिर गया और बोला- मैं तो आपके लिए कुछ और सोचता था, मेरे मन में तो आपके प्रति ईर्ष्या और बैर की भावना थी लेकिन आपका हृदय इतना विशाल है मैं कभी कल्पना भी नहीं कर सकता। मुझे क्षमा करें और जीवनभर मैं आपके चरणों का दास बन कर रहूंगा। बड़े भाई ने उससे कहा- भाई! दास बनने की जरूरत नहीं। छाती से लगाया अब तू मेरा भाई है, उस भाई की भावना से प्रेरित होकर मैं यहां आया हूं। तू कर और नए सिरे से अपना काम शुरू कर। 92 लाख रुपए की देनदारी उसने की। उसके किसी एक मित्र को जब मालूम पड़ा तो बोला तुमने यह क्यों किया? बोला- आज रुपया हमारे पास है और पास में रुपया होते हुए भी भाई अगर आपत्ति में मारा-मारा फिरे तो उस रुपए का कोई अर्थ नहीं। मैंने जो किया उसकी मुझे बहुत खुशी है, पैसा तो रोज कमाते और गवांते है पर अच्छे काम में जो लग जाता है वही सच्चे अर्थों में होता है। यह है कोऑपरेशन का उत्कृष्ट उदाहरण। आप कर सकते हैं ऐसा कोऑपरेशन? बोलो। हैं आजकल ऐसे भाई? यह मैं कोई किस्सा नहीं बता रहा हूं। यह मेरे सामने घटित मुझ से जुड़े हुए व्यक्ति हैं। नाम तो मुझे सेंसर करना पड़ता है, लोगों की प्रतिष्ठा जुड़ी है, लाइव में पूरा देश सुनता है लेकिन यह कोई कथा नहीं यह सच्चाई है। ऐसे भाव रखने वाले लोग भी हैं।
एक सज्जन और थे जिनके भाई को ऐसा क़र्ज़ चढ़ा, मालूम पड़ा, पति-पत्नी दोनों सीधे गए और उसका सारा हिसाब-किताब नक्की कर दिया। वह तो मुझे अभी यहीं आकर बता कर गए। अभी यह जो 13 दिन के प्रवचन चल रहे थे (भाई-भाई कैसा हो) उस प्रवचन के बाद मुझे अपनी कथा सुना कर गए। हमने कहा- तुम्हारी कथा भी कभी सुनाऊंगा बिना नाम के, राजस्थान के ही है। तो ऐसे लोग भी आज हैं जो एक दूसरे को सहयोग करते हैं। ऐसा सहयोग कीजिए। आप बोलो अगर आपके भाई के यहां शादी हो और बर्तन मांगे तो दोगे कि नहीं? दोगे गिनके दोगे कि बिना गिने? बस यह देख लो। क्या हुआ? पोल खुल गई। कहां है हम? कितना कमजोर है मन। हालांकि हाल आजकल तो कैटरीन का सिस्टम हो गया, बर्तन लेने देने का कोई सिस्टम ही नहीं है लेकिन मैं केवल एक उदाहरण दे रहा हूं अपने आप को जांचने और परखने के लिए पर्याप्त है। कोऑपरेशन करो, कॉम्पिटीशन खत्म हो जाएगा, प्रेम बढ़ेगा, प्रतिद्वंदिता मिट जाएगी, ईर्ष्या नष्ट हो जाएगी, आत्मीयता पनप जाएगी। तो पहली बात- कोऑपरेशन।
दूसरी बात- कोआर्डिनेशन। कोआर्डिनेट करो, कोई कंपैरिजन की जरूरत नहीं, कोई कॉन्ट्रोवर्सी होगी नहीं, कोआर्डिनेशन करो। एक दूसरे को कोआर्डिनेट करके चलो, एक दूसरे के पूरक और प्रेरक बन कर चलो। सब एक-दूसरे को कोऑर्डिनट करें तो जीवन की गाड़ी कहां से कहां पहुंच जाएं लेकिन लोग एक-दूसरे से तुलना करें, कंपैरिजन करें, खींचातानी करें तो मामला गड़बड़ हो जाए। कोआर्डिनेशन की भावना आते ही कंपैरिजन खत्म हो जाता है। अरे! किसी के पास 10, किसी के पास 20, किसी के पास 5 और किसी के पास 2 गुण हैं तो सबके गुण अपने-अपने अलग-अलग हैं। 10-20-5-2 यह तो सब अलग-अलग हो गए, सबको मिला देते हैं तो पूरे 27 हो जाते हैं और जीवन को आगे बढ़ाने में निमित्त बनते हैं। हम अपने आप को एक-दूसरे से कोऑर्डिनेटर करके चलना सीखें। कोआर्डिनेशन की आजकल बहुत कमी होती जा रही है। लोग एक-दूसरे को बिल्कुल भी कोआर्डिनेट करना पसंद नहीं करते हैं यह हमारी दुर्बलता है। आज से सीखिए, तालमेल बनाएंगे, समन्वय बनाकर चलेंगे, चलो कुछ काम तुम करो, कुछ काम हम करें, मिलजुल करके काम करें, मिलाजुला करके काम करें। यह प्रवृत्ति अपनाइए चाहे घर-परिवार की बात हो, चाहे समाज की बात हो, चाहे संघ की बात हो, कहीं की भी बात हो। यह भावना हृदय में आएगी व्यक्ति अपने जीवन को ऊंचाई पर पहुंचा देगा और जिसके हृदय में ऐसी भावना नहीं है वह रसातल में चला जाएगा।
कोआर्डिनेशन की भावना हृदय में होनी चाहिए। जितना बने आप एक-दूसरे के साथ कोऑर्डिनट करने की कोशिश कीजिए कंपैरिजन की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। देखिए, हमारे हाथ में पांच उंगलियां हैं। है ना? पांचों उंगलियों की तुलना आप करते हैं क्या? तुलना करेंगे तो पांचों उंगलियां अलग-अलग है। एक मोटी है, एक छोटी है, एक लंबी है, एक बहुत छोटी है, एक पतली है, सब अलग-अलग है तो यह पांच उंगलियां अलग-अलग है और इनकी तुलना करेंगे तो हर एक उंगली का महत्व कम हो जाएगा। यह पांचों उंगलियां आपस में तुलना करती है, आपस में उलझती है या एक-दूसरे को कोऑर्डिनट करती है। हर उंगली का अपना-अपना महत्व है और जब काम करना होता है रोटी खाते हैं तो पांचों उंगलियां मिलानी पड़ती है तब ग्रास बनाकर हम भोजन कर पाते हैं। एक उंगली भी बाहर हो जाए तो काम ढंग से नहीं होता तो हर उंगली अलग-अलग है और काम साथ में मिलकर के करते है, एक-दूसरे को कोऑर्डिनट करते है तो हमारा हाथ ठीक ढंग से काम करता है। थोड़ी देर के लिए सोचो सारी उंगलियां होड़ करती और एक-दूसरे के समान बनने की कोशिश करती और सारी समान हो जाती तो हाथ की शक्ल कैसी दिखती। हाथ हाथ जैसा दिखता या एक ब्रश जैसा दिखता? सुंदर लगता? नहीं लगता। पांचों अलग-अलग है लेकिन फिर भी सुंदर लग रहे हैं और पांचों एक दूसरे के पूरक बने हैं इसलिए अपना काम कर रहे हैं। जैसे यह पांचों उंगलियां मिलजुल कर अपना काम करती हैं संसार में जिनके साथ तुम्हें रहना है मिलजुल कर अपना काम करो जीवन में परम सौंदर्य की अभिव्यक्ति होगी। मिलाजुला करके चलो, मिलजुल करके चलो, एक-दूसरे को कोऑर्डिनट करके चलोगे तो जीवन का उत्कर्ष होगा अन्यथा पतन अवश्यंभावी है।
तीसरी बात है- कोम्प्रोमाईज़, जिसे प्रोड्यूस करना है। कंट्रोवर्सी जहाँ आए कोम्प्रोमाईज़ करो। किसी से विवाद हुआ समझौता करो। पहली कोशिश कॉन्ट्रोवर्सी हो ही नहीं और विवाद हो तो उसे गहराने मत दो, तुरंत क्षमा मांग लो, समझौता कर लो, हम छोटे बन जाएंगे कोई दिक्कत नहीं है लेकिन हम इस विवाद को ज्यादा तोल देना नहीं चाहते हैं, इस विवाद को यहीं खत्म करें, यहीं खत्म करें, खत्म करें, ऐसी भावना हृदय में आनी चाहिए। जो व्यक्ति कोम्प्रोमाईज़ की प्रवृति अपनाता है उसके जीवन में हमेशा आनंद रहता है और जो व्यक्ति कभी किसी से कोम्प्रोमाईज़ करना नहीं चाहता उसके जीवन में हमेशा उलझन बनी रहती है। कोम्प्रोमाईज़ करना सीखिए। जहां हमारा प्रेम नष्ट होता हो, शांति खंडित होती हो, आत्मीयता भी नष्ट होती हो, अहम् और उत्तेजना बढ़ती हो आप तुरंत कोम्प्रोमाईज़ करने के लिए अपना हाथ बढ़ा लीजिए। भैया! नहीं हमें टकराव नहीं समझौता का रास्ता अपनाना है। हम जीवन में अडामेंट रहने की आदत नहीं रखते, एडजस्ट करके जीने के अभ्यासी हैं। एडजस्टमेंट कर लेंगे जीवन में आनंद आएगा और एक दूसरे के बीच अड़ जाएंगे जिंदगी भर लड़ते रहेंगे तो जहां भी जैसी भी स्थिति हो समझौता करने का रुख अपनाइए। अगर लोग एक-दूसरे के साथ समझौतावादी दृष्टिकोण अपना लें तो मामला सलट जाता है।
चार भाई थे। चार भाइयों का परिवार और थोड़ी सी संपत्ति को लेकर के आपस में बड़ा गहरा विवाद था। विवाद ऐसा की मां की मृत्यु होने के बाद तीन भाई एक तरफ और एक भाई एक तरफ और उस भाई का नाम भी पत्री में नहीं लिखा (बरसी के लिए जो कार्ड छपता है)। तीन भाइयों ने नाम लिखा, चौथे भाई का नाम ही हटा दिया और सब के सब धनी लेकिन बात क्या? कोई कोम्प्रोमाईज़ करने के लिए तैयार नहीं। तीन भाई तो इकट्ठे हो गए लेकिन एक भाई एक तरफ। सब अपनी बात पर अड़े रहे, कहीं से कोम्प्रोमाईज़ करने के लिए राजी ही नहीं। अब क्या करें? उलझन, समाज के लोगों को भी बुरा लगता था। संयोगतः मेरा प्रवास हुआ, मुझसे जुड़े हुए थे। मैंने उनको समझाया कि यह क्यों कर रहे हो? बोले- महाराज! संपत्ति की बात नहीं है, बात तो बात है। यह बात रोग बहुत खराब होता है। बात लग गई, ईगो का विषय बना लिया, आपस में लड़ गए। मैंने उन्हें समझाया कि भैया लड़कर आज तक तुमने कुछ नहीं पाया, प्रेम करके देखो जो पाओगे वह असीम होगा, उसकी कभी पूर्ती नहीं होगी। एडजस्ट करो, थोड़ा कोम्प्रोमाईज़ करने की कोशिश करो, थोड़ा झुक जाओगे तो क्या फर्क पड़ेगा। मैंने तीन भाइयों से इतना ही कहा कि तुम कहते हो पिताजी के जाने के बाद बड़े भाई की हम लोगों के लिए बड़ी मदद रही, हम लोगों के जीवन उत्थान में उनका योगदान रहा, यह बात तुम कहते हो? बोले- हाँ महाराज! हम कहते हैं। बोला- कुछ मत करो, बड़े भाई से जाकर तुम लोग इतना कह दो कि भैया पिताजी के बाद आपने ही हमें आगे बढ़ाया है, अब जो कुछ भी है सो ठीक है, हम आप पर छोड़ते हैं अब आप जो निर्णय दोगे हमें स्वीकार है। मेरे ऐसे कहने पर पहले तो वह लोग सकुचाए फिर मैंने संबोध कर उनकी कषाय मंद की और यह कहा कि यह काम मेरे सामने नहीं होना है। एक कमरा बाजू में खुलवाया मैंने, उस कमरे में तुम चारों बैठो और चारों बैठकर फार्मूला लेकर मेरे पास आओ। चारों बैठे, लगभग ढाई घंटे लग गए, खूब भड़ास निकाली एक-दूसरे की तरफ, जोर-जोर से आवाज आई, हालांकि मैंने ऑफ टाइम में बुलाया था तो मामला वहीं तक था बाहर नहीं गया। सब भड़ास निकलने के बाद जैसा मैंने भाइयों को बोला था तीनों के मन में यह बात बैठ गई थी। अंदर से तो सब तरसते थे। उन्होंने कहा- आप हमारे बड़े भैया हो पिताजी के अभाव में पिताजी के तुल्य आप ही हो, आप जो करना चाहो कर लो हम तैयार हैं, हम स्वीकार करेंगे और तीनों भाइयों ने जैसे बड़े भाइयों को प्रणाम किया बड़े भाई का हृदय बदल गया आंखों में आंसू के ढेर और चारों एकदम रोती आंखों से आए। इस पल तो भाव ही बिल्कुल अलग था, आते समय तो वे एक-दूसरे का चेहरा देखने को तैयार नहीं थे और आए तो मन का सारा मैल धुल चुका था और कहा हमें आशीर्वाद दो और हमने भैया पर सब कुछ छोड़ दिया है बड़े भाई जो फैसला करेंगे वह हम लोगों को स्वीकार है और हम कुछ नहीं करना चाहते, बहुत खुशी हो रही है अंदर का सारा माल भूल गया और बड़े भाई ने फिर उतनी ही उदारता दिखाई। छोटे भाइयों को जितनी अपेक्षा थी उससे ज्यादा उन्होंने दे दिया और आज उस घर में खुशहाली है, लोग आनंद से भरे हैं।
यह कहलाता है कोम्प्रोमाईज़ का परिणाम। यह होता है कोम्प्रोमाईज़ का परिणाम तो हम कोम्प्रोमाईज़ करना सीखें। एक-दूसरे के साथ कहीं भी बात आए, विवाद कहीं आए समझौता करें, थोड़ा झुक जाने में समझोता होता है, अड़ जाने में टकराव। टकराव उलझन बढ़ता है और समझोता सारी समस्याओं को सुलझा देता है इसीलिए अपने जीवन में हम किसी भी व्यक्ति के साथ कभी भी कॉन्ट्रोवर्सी ना करें, कोम्प्रोमाईज़ करना सीखें। यह जितनी भी बातें होती है अपनों से होती है गैरों से नहीं होती इसलिए अपनों के बीच अपने आप को सुधारे तो जिन्हें प्रोड्यूस करना है, कोऑपरेशन करना है, कोआर्डिनेशन करना है, कोम्प्रोमाईज़ करना है और कंडेम नहीं करना। एक-दूसरे व्यक्ति को प्रोत्साहित करना है, हम किसी की निंदा ना करें, आलोचना ना करें उसे प्रोत्साहित करने की कोशिश करें। हम हर व्यक्ति के जीवन को आगे बढ़ाने की कोशिश करें। कोआर्डिनेशन करें, कोम्प्रोमाईज़ करें, कॉर्पोरेट करें और जितना बन सके एक-दूसरे को इनकरेज करने की कोशिश करें, आगे बढ़ने का प्रयास करें तो हमारे जीवन को धन्यता प्रदान करेगी। जितना बने हम कॉन्ट्रीब्यूशन दें जो हमारा अपनी भूमिका के अनुरूप कॉन्ट्रीब्यूशन हो सकता है उतना कॉन्ट्रीब्यूशन देने की कोशिश करेंगे तो वह हमारे जीवन को आगे बढ़ाने में बहुत बहुत मददगार बनेगी और हम अपने जीवन को ऊंचा उठा सकेंगे और हम अपने जीवन में इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ने और बढ़ाने का प्रयत्न करें।
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