एक आदमी की लंबी-चौड़ी खेती थी पर पानी ना मिल पाने के कारण उसे बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता था। प्राय: उसकी फसल खराब हो जाती थी। वह बहुत परेशान था। एक दिन उसने अपनी व्यथा किसी पहुँचे हुए साधक के सामने प्रकट की। साधक ने कहा तुम्हें परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है। तुम अपने खेत में पचास हाथ गड्ढा कर दो। उसमें अपार पानी निकलेगा। उससे तुम अपनी पूरी खेती को हरी-भरी करने में समर्थ हो जाओगे, अपितु औरों को भी पानी बाँट सकोगे। किसान ने गड्ढा खोदा पर उसमें पानी नहीं निकला। उसने पचास हाथ का गड्ढा खोदा पर उसमें पानी नहीं निकला। वह संत के पास पहुँचा और शिकायत की। आपने कहा था कि पचास हाथ गड्ढा खोदो। मैंने आपके कहे अनुसार गड्ढा खोदा पर पानी की एक बूँद भी नहीं निकली। मामला क्या है? संत ने कहा- तुमने गड्ढा खोदा क्या? किसान बोला- हाँ मैंने गड्ढा खोदा पर उसमें पानी नहीं निकला। संत ने बोला- ऐसा नहीं हो सकता कि तुमने गड्ढा खोदा हो और पानी ना निकला हो। तुमने गड्ढा खोदा और पानी ना निकला ऐसा तो हो ही नहीं सकता। किसान बोला- नहीं, पानी तो नहीं निकला। संत बोला- ऐसा नहीं हो सकता। अगर तुमने गड्ढा सही खोदा होता तो पानी जरूर निकलता। मेरा परीक्षण कभी गलत नहीं होता। संत की ऐसी बात सुनकर किसान ने कहा- संत! ऐसा कीजिए, आप चलिए और वहीं चलकर देखिए। संत कौतुक और आश्चर्य से भर कर उसके खेत में गया। जाकर, देखता क्या है? उस किसान ने एक-एक हाथ के पचास गड्ढे खोद रखे थे। एक-एक हाथ के पचास अलग-अलग गड्ढे खोद रखे थे। अब अलग-अलग गड्ढों में से पानी कहाँ से निकले। संत ने कहा- मैंने तुमसे क्या कहा था? पचास हाथ गड्ढा खोदो। किसान ने कहा- आप ने यही तो कहा था पचास हाथ गड्ढा खोदो। मैंने एक-एक हाथ के पचास गड्ढे खोद दिए। संत ने कहा- नहीं! ऐसे नहीं, ऐसे तो तुम पचास हजार गड्ढे खोद लोगे तो भी गड्ढे में हीं रहोगे। पानी कभी नहीं निकलेगा। संत फिर से बोला- मैंने तुमसे यह नहीं कहा था कि पचास जगह पचास हाथ के गड्ढे खोद दो। मैंने तुझे केवल इतना कहा था कि एक ही जगह पर पचास हाथ तक खोदता जा, खोदता जा, खोदता जा, खोदता जा। जब तू खोदेगा तब पानी निकलेगा।
बंधुओं! हमें यह जानना बहुत जरूरी है कि जीवन में परम उपलब्धि पाने के लिए हमें कहाँ खोदना है और कहाँ खोजना है? जीवन की उपलब्धि के लिए प्रयत्न मात्र पर्याप्त नहीं होते हैं। एफर्ट मात्र सफिशिएंट नहीं होते हैं। सबसे पहली आवश्यकता है- डायरेक्शन(Direction)। हम प्रयास कर रहे हैं यह इतना महत्वपूर्ण नहीं, महत्वपूर्ण यह है कि हमारे प्रयास की दिशा क्या है? राइट डायरेक्शन में किया गया छोटा सा पुरुषार्थ बड़ा परिणाम देता है और गलत डायरेक्शन में किए जाने वाले बड़े-बड़े प्रयत्न भी अर्थहीन होते हैं। अपने जीवन में झाँककर देखें कि हमने अपने जीवन में आज तक क्या पाया। हमारी उपलब्धियों के नाम पर हमारे पास क्या है? हमने जो कुछ किया है वह किस दिशा में किया? हमारा डायरेक्शन क्या है?
जीवन को आगे बढ़ाने के लिए आज चार बातें करूँगा। सबसे पहली बात है डायरेक्शन। आपके जीवन का डायरेक्शन क्या है? आप सही डायरेक्शन में चल रहे हो या नहीं बताइए?
चार बातें हैं आज आपसे- डायरेक्शन (Direction), डेडिकेशन (Dedication), डिटरमिनेशन (Determination), डेस्टिनेशन (Destination)
अपने डेस्टिनेशन को पाना चाहते हो तो पहले अपना डायरेक्शन ठीक करो। आपका डायरेक्शन क्या है? सबसे पहले मैं आपसे पूछता हूँ कि आपका लक्ष्य क्या है? आपका उद्देश्य क्या है? आपका ध्येय क्या है? आप क्या पाना चाहते हो? आपका डेस्टिनेशन क्या है? आप क्या अचीव करना चाहते हो? आप क्या पाना चाहते हो? क्या उद्देश्य है? कुछ लोग कहते हैं- नाम कमाना चाहते है? नाम कमाने के लिए भी बहुत कुछ करना पड़ता है। बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं। ऐसे ही नाम नहीं होता है।
एक उदाहरण है कि नाम कमाने के लिए भी लोग कैसे-कैसे काम करते हैं। बड़ी विचित्र बात याद आ गई। जब मैं स्कूल में पढ़ता था। एक लेख था अखबार में- ‘नाम’, बड़ा रोचक है। ये नाम पाने के लिए भी लोग कैसे-कैसे काम करते हैं? नाम तो मिलता है या नहीं बदनाम कैसे होते हैं? एक दफे स्कूल में ड्रिल के पीरियड में एक बच्चा बेहोश हो गया। अब वो बेहोश हो गया तो पूरे स्कूल में सनसनी फैल गई। उस सनसनी से पूरे स्कूल में उसके नाम की चर्चा हो गई। उसी स्कूल में गुरुदास नाम का लड़का पढ़ता था। उसके मन में ऐसा आया कि मैं भी कुछ ऐसा काम करूँ कि मेरा भी नाम हो जाए। मेरा भी नाम पूरे स्कूल में फैले। अब वह इतना होशियार भी नहीं था। गणित में कभी answer सही नहीं आते थे। इतिहास की सारी ईस्वी भूल जाता था। एकदम गोबर गणेश था। कुछ ज्यादा पढ़ लिख नहीं पाया। खेलकूद में भी आगे नहीं और फिजिकली भी इतना फिट नहीं था। अब उसका नाम फैले तो कैसे फैले? एक साधारण औसत बच्चा आगे कैसे बढ़े? लेकिन उसके मन में एक बात जमी हुई थी कि कहीं ना कहीं से मेरा नाम होना चाहिए। अब हुआ क्या? वह पढ़ लिख कर आगे बढ़ा और एक चपरासी बना। एक दफ्तर में वह चपरासी बना। उसके अंदर की इच्छा नाम कमाने की स्कूल से बढ़कर अखबार में आने तक की हो गई कि मेरा नाम कैसे ना कैसे अख़बार में आए? मेरा नाम अख़बार में भी आना चाहिए। वह रोज तरह-तरह की तरकीब सोचता कि कैसे भी मेरा नाम एक बार अखबार में आना चाहिए। एक बार मेरा नाम अखबार में आ जाए। अब अखबार में नाम कहाँ से आए? कुछ योग्यता हो तब तो नाम आए। वह जब भी अखबार पढ़ता तो दिमाग लगाता कि कैसे मेरा नाम अखबार में आ जाए? कई बार वह सोचता कि मैं कोई अपराध कर दूँ ताकि मेरा नाम अखबार में आ जाए। लेकिन अपराध करने के लिए भी साहस चाहिए। वह साहस नहीं कर पाया तो अपराध भी नहीं कर पाया और अखबार में नाम कैसे आए? अखबार में उसका नाम कैसे आए? एक दिन इसी उधेड़बुन में वह चला जा रहा था कि सामने से एक कार की टक्कर लगी। वह गिर पड़ा और उसके पैर में फ्रैक्चर हो गया। कार एक वकील साहब की थी। वह बड़े सहृदय थे। जैसे ही उसे टक्कर लगी वो नीचे गिरा तो सज्जन कार से उतरे। उसे कार में बिठाया। उसको हॉस्पिटलाइज कराया और सारा इलाज कराया। अगले दिन वकील साहब फिर से दफ्तर जाने से पहले उसका हालचाल देखने के लिए उसके घर गए। वह जैसे ही उसके घर गए तो उनके हाथ में अख़बार था। अखबार को देखकर उस व्यक्ति का मन बहुत ललचाया। गुरुदास बगल में दबे उस अख़बार को बड़ी ललचाई दृष्टि से देख रहा था। कुशल-क्षेम पूछकर जब वकील साहब निकलने लगे तो गुरुदास ने पूछा आपके हाथ में क्या है? वकील साहब बोले- अखबार। गुरुदास ने पूछा- अखबार आज का ही है, क्या? वकील साहब बोले- हाँ! आज का ही है। आज का ही सुनकर तो गुरुदास की आँखे एकदम चमक गई कि कल की घटना का जिक्र तो उसमे जरूर आया होगा। उसकी मंशा को देखकर वकील साहब बोले- नहीं, मैंने इसे उचित नहीं समझा। उस घटना का जिक्र करना मैंने उचित नहीं समझा। गुरुदास एकदम निराश हो गया। वकील साहब उसके मनोभावों को ताड़ गए। वकील साहब ने कहा- अच्छा! तुम चाहते हो कि तुम्हारा नाम अखबार में आए। गुरुदास ने बोला कम से कम मैं तो ऐसा ही सोच रहा था कि इस घटना के बहाने मेरा नाम आ जाए। वकील साहब बोले- चिंता मत करो तुम्हारा यह काम हो जाएगा। दूसरे दिन वकील साहब फिर उसका हालचाल पूछने आए और उसको अखबार थमाया। अखबार में लिखा था अखबार में नाम लाने के लिए गुरुदास ने स्वयं को कार के नीचे धकेला। गुरदास उसी अखबार से अपना मुँह ढक करके रह गया।
ऐसा नाम चाहिए क्या आप लोगों को? क्या चाहिए? नाम चाहिए आपको? चाहिए क्या? आपका लक्ष्य क्या है? क्या लक्ष्य है तुम्हारे जीवन का?
सच्चे अर्थों में तो अधिकतर लोगों के जीवन का कोई लक्ष्य ही नहीं है। अधिकतर लोगों के जीवन का कोई भी लक्ष्य नहीं है। एक विचारक ने लिखा कि उद्देश्य विहीन व्यक्ति का जीवन कुत्ते की भाँति है। ‘उद्देश्य विहीन मनुष्य का जीवन कुत्ते की भाँति त्रि-आयामी है’। त्रि-आयामी क्या है- दिन-रात खाना, इधर-उधर दौड़ना और बाकी समय भौंकने में बिताना। ये कुत्ते का काम है। तुम्हारी जिंदगी की स्थिति क्या है? मनुष्य रोते हुए जन्मता है, शिकायत करते हुए जीता है और निराशा के मलबे में दबकर अपनी जिंदगी समेट लेता है। पाता क्या है? तुम्हारा लक्ष्य क्या है? पहले यह सुनिश्चित करना जरूरी है। किसे मुझे पाना है? जो तुम पाना चाहते हो उसी डायरेक्शन में चलो। बताइए! क्या पाना चाहते हैं? सुख शांति पाना चाहते हैं? ईमानदारी से सुख शांति पाना चाहते हो। सुख शांति पाना चाहते हो तो देखो कि सुख शांति के डायरेक्शन में चल रहे हो या नेम और फेम के डायरेक्शन में या धन और वैभव के डायरेक्शन में जा रहे हो या भोग और विलास के डायरेक्शन में जा रहे हो? तुम्हारा डायरेक्शन क्या है? सुख शांति पाना चाहते हो तो तुम्हें अपने जीवन को सुख शांति की दिशा में आगे बढ़ाने के लिए कटिबद्ध होना पड़ेगा। उस दिशा में चलो। सबसे पहला काम- हमको जो पाना है उस दिशा में जाएंगे और उस दिशा में ना बढ़ पाए तब तक कोई चिंता नहीं पर विपरीत दिशा में नहीं जाएंगे। यह सुनिश्चित हो कि विपरीत दिशा में नहीं जाएंगे। Wrong डायरेक्शन में नहीं जाएंगे तभी हम सुख शांति पाएंगे। सुख शांति हमें मिले बहुत अच्छी बात है लेकिन दुःख और अशांति के मार्ग को छोड़ोगे तब ही सुख और शांति को पाओगे। क्या कर रहे हो आप? सुख शांति पाना चाहते हैं और असुख-अशांति को भी छोड़ना नहीं चाहते हैं। तो क्या होगा? दुःख और अशांति के निमित्तों को जो छाती से चिपकाए हुए बैठे रहते हैं वो तीन काल में भी सुख और शांति को नहीं पा सकते हैं। अपना डायरेक्शन बदलिए। अभी आप कौन से डायरेक्शन में है? राइट डायरेक्शन में है या Wrong डायरेक्शन में है? लेकिन आजकल के लोग बड़े होशियार हैं। गलत डायरेक्शन को भी राइट डायरेक्शन बता देते हैं।
एक आदमी ट्रेन में बैठा उसे दिल्ली से मुंबई जाना था। स्टेशन पहुँचा। राजधानी खड़ी हुई थी दिल्ली से मुंबई की और दिल्ली से कोलकाता की भी। वह दिल्ली-कोलकाता की राजधानी में बैठ गया। ट्रेन में अपर बर्थ पर बैठा था। नीचे वाले बर्थ पर एक दूसरा आदमी आया। ऊपर वाली बर्थ से ही उसने नीचे बैठे व्यक्ति से पूछा- भैया! आपको कहाँ जाना है? वो बोला- मुझे कोलकाता जाना है। नीचे वाले ने भी पूछा आपको कहाँ जाना है? ऊपर वाली बर्थ वाला बोला- मुझे मुंबई जाना है। नीचे वाले ने कहा- मुझे कोलकाता जाना है ऊपर वाले ने कहा- मुझे मुंबई जाना है। अब गाड़ी तो कोलकाता की थी। उसने बोला- भैया! यह गाड़ी तो कोलकाता की है। यह गाड़ी तो कोलकाता जाएगी। तो ऊपर वाली बर्थ वाला बोला- क्या पता भैया! यह एडवांस टेक्नोलॉजी का युग है। क्या पता एडवांस टेक्नोलॉजी का युग से कुछ अचम्भा हो जाए? इस एडवांस टेक्नोलॉजी वाले युग में ट्रेन के नीचे वाली बर्थ तो कोलकाता जाती है और ऊपर वाली बर्थ मुंबई जाती है।
यह सब क्या है? हे कोई ऐसी टेक्नीक! आप किस दिशा में चल रहे हो? अपनी दिशा को व्यवस्थित कीजिए। मनुष्य के जीवन की विडंबना है कि लंबी-चौड़ी जिंदगी जी लेता है लेकिन अंत तक अपनी दिशा निर्धारित नहीं कर पाता है। जब तक हम एक दिशा में नहीं चलेंगे तब तक जीवन में कोई उपलब्धि नहीं कर पाएंगे। हमारे गुरुदेव ने जिस दिन हमें दीक्षा दी, हमने निवेदन किया कि गुरुवर कुछ ऐसा दिशा-दर्शन, कुछ ऐसा मार्ग-दर्शन दीजिए जो जीवन भर हमारे काम में आए। उन्होंने एक बात कही- बस यह ध्यान रख लो! आज से तुम्हारा मार्ग अलग हो गया और तुम्हारी दिशा अलग हो गई। जिस मार्ग पर तुम चल पड़े हो उसको मुड़कर नहीं देखना। मंजिल अपने आप मिल जाएगी। मंजिल पर अपने आप पहुँच जाओगे। जिस मार्ग पर चल पड़े हो मुड़ करके नहीं देखना। बस यही मेरी दिशा है। यही मेरा रास्ता है। यही मेरा लक्ष्य है। यही मेरा पाथ है। मुझे इसी डायरेक्शन में चलना है, तब ही आगे बढ़ पाएंगे। तो आपने अपना लक्ष्य बनाया? क्या आपने अपना लक्ष्य बनाया? पाथ पर चलने के लिए क्या करना पड़ेगा?
पाथ मतलब क्या होता है? पाथ शब्द कैसे बना? पाथ में भी चार बातें हैं, उसके चार अक्षर PATH- P. A. T. H. PATH का पहला अक्षर P, पाथ पर चलना है तो पैन (Pain) लेना सीखो, पीड़ा को सहन करना सीखो, दर्द को सहन करना सीखो, और पेशेंस (Patience) रखो।
किसी रास्ते पर आगे आपको जाना है तो तुरंत-तुरंत मंजिल पर पहुँच जाएंगे यह संभव नहीं है। ऊँची पहाड़ी पर चलने के लिए एक-एक कदम संभल-संभल कर चलना पड़ता है। तुम सोचो सरपट जंप लगाकर चढ़ जाएंगे तो यह संभव नहीं है। वहाँ हनुमान कूद नहीं चलती। वहाँ तो धीमी-धीमी गति से स्टेप बाय स्टेप चलना पड़ता है। वहाँ वह ही चढ पाता है जो पेन को ले सकता है और पेशेंस को रख सकता है। हे तुम्हारे पास पेशंस! तुम लोगों को कोई तकलीफ हो तो आप क्या पूछतें हैं? कुछ उपाय बताया जाए कोई रास्ता बताया जाए? तो आप क्या करते हैं? एक आदमी बहुत ही बीमार और परेशान रहता था। उसका मन बहुत ही अशांत और अवसादग्रस्त था। उसको हमने बोला- भैया! णमोकार मंत्र को लिखना शुरू करो तुम धीरे-धीरे ठीक हो जाओगे। आराम भी मिलेगा। आठ दिन तक लिखा फिर बोला कोई आराम नहीं मिला। अब क्या होगा? तुम लोगो को तुरंत फास्ट रिलीफ चाहिए। यह जितने भी फास्ट रिलीफ देने वाली चीजें हैं इन सब के साइड इफेक्ट हैं। अगर रिलीफ तुम्हें पर्फेक्ट चाहिए तो पेशेंस रखो। कीप पेशेंस। पेशेंस रखोगे तो सही पाथ पर चल पाओगे।
आज आप हमें देखिए मोक्ष मार्ग पर चल पड़े हैं। मोक्ष आज है नहीं, कोई रिद्धि है नहीं, अवधिज्ञान मन:पर्यय ज्ञान है नहीं, कोई फैसिलिटी है नहीं, फिर भी लगे हैं उत्साह के साथ। डटे हुए हैं अपने मार्ग में, कभी लगता है हम लोग हताश हैं। क्यों ? किसके बल पर? हमने अपने लक्ष्य को सुनिश्चित किया क्योंकि हमारे सामने हमारा पाथ है और हमारे मन में पूरी तरह से पेशेंस भी है। पेन को हम सहन करते हैं। मार्ग में आगे बढ़ते हैं। नहीं! मार्ग तो यही है क्योंकि इसी के लिए हम डिटरमाइंड है। हमारे अंदर पूरा डेडिकेशन है। हमारी डेस्टिनी एक है कोई दूसरी नहीं। हम निरंतर आगे चल रहे हैं। तुम जिस रास्ते को चुनते हो और जिसमें सफल होना चाहते हो सबसे पहले उस डायरेक्शन पर चलो। उस डायरेक्शन में चलते रहो, चलते रहो, चलते रहो। कब तक? जब तक अपने डेस्टिनेशन को प्राप्त ना कर पाओ तब तक। पेशेंस रखो। तुम लोगों का धैर्य तुरंत जवाब दे देता है। कोई भी काम हुआ नहीं, थोड़ा सा उस में परिणाम अनुकूल नहीं आया तो मन अधीर हो जाता है। मन टूट जाता है। जिंदगी का मजा खराब हो जाता है। अधीरता मनुष्य को कमजोर करती है और धैर्य मनुष्य को ताकतवर बनाता है। आप क्या चाहते हो? ताकतवर बनना या कमजोर बनना? अगर अपने आपको ताकतवर बनाना चाहते हो तो अधीरता की कमजोरी से अपने आप को मुक्त करिए। पेशेंस रखना शुरू करो। लेकिन पेशेंस कब रहोगे? जब पेन को सहने में समर्थ हो जाओगे। पीड़ा को सहो। जितनी पीड़ा को सहने में समर्थ होंगे, जितनी पीड़ा को सहोगे, उतने ही समर्थ बनोगे।
संत कहते हैं- ‘जो सहन करता है वही समर्थ बनता है’। जो सहन करता है वह उतना ही समर्थ बनता है। जितना सहोगे उतना समर्थ बनोगे। एक सूत्र बनाओ- ‘जीवन में कितना भी दु:ख आए, कितनी भी प्रतिकूलताऐं आए, कैसी भी परेशानियाँ हो या चाहे-जैसे मुसीबत क्यों ना आए, धैर्य मत खोओ और सहो’। जो भी सामने आए उसका सामना करो। यही समझो कि इन परेशानियों से पार होना ही मेरा मार्ग है। उसी से हम अपनी मंजिल तक पहुँच पाएंगे। जब तक कठिनाइयाँ जीवन में नहीं आए तब तक उपलब्धियाँ कैसे होगी? नदी जब पर्वत के शिखर से नीचे उतरती है तो अनेक प्रकार के उतार-चढ़ाव के दौर से गुजरती है। कई दुर्गम घाटियों से गुजरना होता है। चट्टानों को फोड़ते हुए पार करना होता है। तब जाकर कहीं सागर में विलीन हो पाती है। अपने अस्तित्व को विराट स्वरूप दे पाती है। अगर आप भी अपने अस्तित्व को, अपने जीवन को विराट रूप देना चाहते हो तो अपने जीवन की दिशा को पकड़ना होगा। उस दिशा में आगे बढ़ने के लिए सतत लगे रहना होगा। सतत प्रयास करना होगा। पेशेंस के साथ पेन को झेलते हुए।
अब पाथ का ‘A’ ‘ए’- एफर्ट करो, प्रयत्न करो।
धैर्य के साथ प्रयत्न करो। जितना कर सकते हो उतना प्रयत्न करो। हमारे प्रयत्नों में कोई कमी नहीं होनी चाहिए। एक बात का जरूर ध्यान रखिए कि राइट डायरेक्शन में किया हुआ थोड़ा सा प्रयास भी हमें सही परिणाम देता है और गलत डायरेक्शन में किया जाने वाला बड़ा-बड़ा पुरुषार्थ भी अर्थहीन होता है। हम अगर एक बार सही डायरेक्शन पर चल पड़े हैं, हमने सही पाथ को पकड़ लिया है तो अब हमें अपना प्रयत्न ढीला नहीं करना है। एफर्ट जारी रखना है। ‘आज नहीं तो कल, हम होंगे निश्चित सफल’ यह सूत्र हमें हमेशा याद रखना है। कितनी भी सघन चट्टान हो घन मारते रहो, मारते रहो, मारते रहो। पहले घन के प्रहार से नहीं टूटेगा, दूसरे घन के प्रहार से नहीं टूटेगा। पहले से नहीं तो दूसरे से, दूसरे से नहीं तो तीसरे से, तीसरे से नहीं तो चौथे से, चौथे से नहीं तो पाँचवे से। जब तक तुम प्रहार करते रहोगे तब तक घन का प्रहार चलता रहेगा तो चट्टान टूटेगी ही टूटेगी। प्रहार करने से भी यदि चट्टान नहीं टूटती तो भी हार मत मानो अपितु यह सोचो कि जब भी यह चट्टान टूटेगी तो घन के प्रहार से ही टूटेगी। इसलिए मुझे अपना प्रहार जारी रखना है, जारी रखना है, जारी रखना है। ऐफर्ट करते रहना है। यह प्रयास हमारे भीतर हो तो हम जीवन में आगे बढ़ सकते हैं।
अगला शब्द पाथ का ‘T’ – टी का मतलब टॉलरेट (tolrate), सहनशक्ति!
अपने जीवन में जो भी बातें आए, रास्ते में जो भी कठिनाइयाँ आए, उन सबको सहो। जैसा मैंने अभी कहा जितना सहन करोगे उतना ही तुम समर्थ बनोगे। उतना ही मजबूती से आगे बढ़ोगे। तो अपने आप को स्ट्रांग बनाओ। वस्तुत: जो सहन करता है वह ही स्ट्रांग होता है या जो स्ट्रांग होता है वह ही सहन कर पाता है। तो अपने आप को स्ट्रांग बनाने की कोशिश करिए। मनुष्य के साथ एक ऐसी बड़ी दुर्बलता है कि आज उसकी सहनशीलता खत्म होती जा रही है। क्योंकि प्रारंभ से हमने अपने आप को स्ट्रांग बनाने का कोई प्रयास नहीं किया। सुविधावादी जीवन शैली को अपनाने का यह एक कुपरिणाम है कि मनुष्य थोड़ी-थोड़ी सी परेशानियों में टूट जाता है, घबरा जाता है। प्रारंभ से सहन करने का अभ्यास बनाओ।
पुराने जमाने में राजा-महाराजाओं को भोजन में जहर दिया जाता था। क्यों, दिया जाता था? इसलिए क्योंकि पहले के समय में कूटनीतिक तौर पर राजाओं के पास विष कन्याओं को भेज दिया जाता था। विष कन्याओं से आलिंगन-बद्ध होने के कारण राजाओं की असमय में मृत्यु हो जाती थी। कहते हैं- सम्राट चंद्रगुप्त के लिए आचार्य चाणक्य ने नियमित रूप से विष दिया। थोड़ा-थोड़ा विष देते, देते, देते, देते थोड़ा-थोड़ा विष लेने का अभ्यासी बने। इतना समर्थ हो जाए कि विषकन्या भी उसका कुछ बिगाड़ ना कर पाए। चंद्रगुप्त के भोजन में वह जहर मिलता था। चंद्रगुप्त के भोजन में से एक बार उसकी धर्मपत्नी ने एक लड्डू खा लिया। उस समय वह गर्भवती थी तो उसके पेट में पलने वाले बच्चे पर उसका असर पड़ा। जब उस बेटे ने जन्म लिया उसके माथे पर एक बिंदु देखा तो उसका नाम रखा गया बिंदुसार। इसलिए चंद्रगुप्त जैसे राजा को भी नियमित विष दिया गया। थोड़ा-थोड़ा विष दिया गया ताकि वह विषकन्या को भी झेलने समर्थ हो सके। विषकन्या से अपने आप को बचा सके।
कहने का मतलब यह है कि थोड़ा-थोड़ा दुःख सहने से महादुःख को भी सहने में तुम समर्थ हो जाओगे। इसलिए निरंतर अभ्यास कीजिए, सहनशक्ति को बढ़ाइए। सुविधावादी दृष्टिकोण छोड़िए। तुरंत-तुरंत छोटी-छोटी बातों का आप जितना प्रतिकार करोगे उतने ही कमजोर बनोगे। अपनी स्ट्रेंथ को जितना बढ़ाने का अभ्यास करोगे, सहन करोगे, आप उतने ही स्ट्रांग बनोगे। तो! क्या करें? टॉलरेट करें।
एक घटना है। एक करोड़पति व्यक्ति जिसके घर पर लग्जरी कारों का ढेर है। एक से बढ़कर एक लग्जरी कार उसके घर में फिर भी वह अपने बेटे को स्कूल बस के लिए पैदल छोड़ने जाता है। उसको नॉन ए. सी. बस से स्कूल भेजता है और नॉन ए. सी. स्कूल में पढ़ाता है। घर में सेंट्रल ए. सी. है लेकिन सब कुछ होने के बाद भी वह ऐसा करता है। उससे किसी ने पूछा कि भैया तुम्हारे पास सारी सुख-सुविधाएँ हैं फिर तुम अपने बच्चे के साथ ऐसा सलूक क्यों करते हो। उस व्यक्ति ने जो जवाब दिया वह बहुत ध्यान देने योग्य है। उसने कहा मेरे पिताजी के पास कोई धन नहीं था। मेरे पिताजी के पास कोई साधन नहीं थे। उन्होंने मुझे अभावों में पाला पर आज मैं सब तरह से संपन्न हूँ। मेरे पास धन-दौलत रुपया-पैसा सब है लेकिन मैं यह सोचता हूँ कि पैसा तो आता जाता रहता है। आज मेरे पास पैसा है तो हो सकता है कल मेरे पास पैसा न हो। मैं अभाव में पला-बढ़ा हूँ तो आज सब कुछ सहन करने में समर्थ हूँ। कल ऐसा भी हो सकता है कि मेरे बेटे के पास भी पैसा ना रहे तो उसे परमुखापेक्षी ना बनना पड़े। वह कहीं से कमजोर ना रहे इसलिए मैं अभी से उसकी सहन शक्ति को बढ़ाना चाहता हूँ। इसलिए अभ्यास बनाने के लिए सुविधा होने पर भी मैं उसे बिना ए.सी. की गाड़ी में भेजता हूँ और पैदल छोड़ता हूँ।
क्या आप लोग तैयार हैं? थोड़ी-थोड़ी बात को टॉलरेट करने के लिए, शारीरिक, वाचिक और मानसिक तीनों प्रकार की प्रतिकूलताओं को सहन करना ही सच्चा पाथ है। टॉलरेट करिए। यह सहन नहीं होता है, वह सहन नहीं होता है। मैं देखता हूँ कि लोग कदाचित शारीरिक प्रतिकूलताओं को तो सहन कर लेते हैं पर वाचिक और मानसिक प्रतिकूलताओं को सहन कर पाना बहुत मुश्किल है। तुम लोगों की बातों को तो जाने दो साधकों के जीवन में भी ऐसा देखा जाता है। एक दिन गुरुदेव ने हम लोगों से कहा था- केश लौंच की पीड़ा को तुम मुस्कुराकर सहन कर लेते हो,केश लौंच की पीड़ा को भी मुस्कुराते हुए सह लेते हो पर साधर्मी के दो वचन भी सह नहीं पाते हो। यह गुरुदेव के वाक्य है कि साधर्मी के दो वचन और एक बात बताऊँ- साधु को कोई विधर्मी कह दे उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, वो कहेगा अज्ञानी है। लेकिन अगर वही वचन साधर्मी कह दे तो वह चुभता है। यह कमजोरी है और जहाँ बात चुभी वंही तुम अपने मार्ग से छूटे। कोई भी बात चुभना नहीं चाहिए। जो जितना बड़ा साधक होता है वह उतना ही प्रतिक्रिया रहित होता है। ना प्रतिक्रिया करता है ना प्रतिक्रियाओं से प्रभावित होता है। जो कच्चा होता है वह बार-बार बात-बात में प्रतिक्रिया करता है और औरों की प्रतिक्रियाओं से भी प्रभावित होता है। जो मजबूत होता है, जो स्ट्रांग होता है, जो परिपक्व होता है, उसके लिए यह सब बातें अतिसामान्य होती हैं। यह तो सहज प्रक्रिया है। होंगी तो होगी। जीवन में एक लक्ष्य बनाओ। मैंने अपना जो रास्ता चुना है, जिस पथ पर मैं निकल चुका हूँ, उस पथ पर आगे बढूँगा। आने वाली कठिनाइयों को हृदय से सहन करुंगा।
हमारे यहाँ एक सूत्र आता है-
मार्गाच्यवन निर्जरार्थ परिषोढव्या: परिषहा:
आचार्य उमास्वामी ने हम सबको मार्गदर्शन देते हुए कहा- ‘अपने मार्ग से च्युत ना होने के लिए और निर्जरा करते रहने के लिए जो सहन किया जाए उसका नाम परिषह है’।
परिषह का मतलब दुःखों को सहन करना। तुम जितना सहन करोगे, उतना ही मजबूत बनोगे। तो यह टॉलरेट करो। मोक्ष मार्ग में चलना है तो टॉलरेट करो। किसी भी रास्ते पर चलो तो भी टॉलरेट तो तुम्हें करना ही पड़ता है।
एक बात बताओ! आप व्यापार करते हो। व्यापार में सफलता चाहते हो तो कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है या नहीं। करना पड़ता है! भूख सहते हो! प्यास सहते हो! शरीर की पीड़ा को सहते हो और ग्राहकों की बातों को भी सहते हो या नहीं सहते हो। कभी-कभी नफा-नुकसान भी सहना पड़ता है, सहना पड़ता है या नहीं पड़ता। बताइए! सुबह से दुकान में हैं और ग्राहकों की लाइन लगी है। सुबह से शाम तक काउंटर पर खड़े हैं, एक मिनट भी बैठने की फुर्सत नहीं है। बर्दाश्त करते हो या नहीं करते हो। बताइए! क्यों बर्दाश्त करते हो? आप बोलोगे- महाराज जी! अगर बर्दाश्त नहीं करेंगे तो अर्निंग कैसे होगी? अर्निंग दिखती है तो सारी पीड़ा खत्म हो जाती है। होता है ना ऐसा आपके साथ। मान लो, अगर कुछ और हो जाए।
एक बार एक व्यक्ति ने कहा- महाराज जी! आप इतनी सारी कठिनाइयाँ सहन कर लेते हो, हम लोगों से तो बिल्कुल नहीं सहा जाता। भूख-प्यास की वेदना भी हम सह नहीं पाते है और आप लोग तो अंतराय की वेदना भी कैसे सह लेते हो? आप उपवास कैसे कर लेते हो। हम से तो कुछ भी नहीं सहा जाता है। अगर हम या हमारे साथ ऐसा हो जाए तो हम कैसे सहन कर पाएंगे? हमने कहा- सहने की शक्ति सबके भीतर है। तुम भी सहन करते हो। लेकिन चाहोगे तो कर सकोगे। सज्जन बोला- नहीं महाराज जी! यह हमारे बस की बात नहीं है। मैंने कहा- यह बताओ! कभी ऐसा हो कि तुम सुबह से दुकान चले गए हो जल्दी में और केवल चाय पीकर गए हो। नाश्ता भी नहीं किया हो। दुकान पर बहुत देर हो गई और जोर से भूख लगी हो। तुम सोच रहे हो कि कोई रिलीवर आए तो मैं घर जाकर खाना खाऊँ। दिन की 2:00 बज गए अभी तक कोई भी नहीं आया। दिन के 2:00 बज गए कोई रिलीवर नहीं आया। भूख लग रही है तो पेट में चूहे कूद रहे हैं। तुमने यह तय कर लिया कि कोई आया तो ठीक है नहीं तो दस मिनिट बाद में शटर गिराकर, घर जाकर खाना खाऊंगा। नौ मिनट बीत गए दसवें मिनट में तुम शटर गिराने वाले थे कि ग्राहक आ गए। ग्राहक तो क्या आए कि रेल-म-पेल मच गई। 2:00 बजे से शाम की 6:00 बज गई। अब यह बताओ कि उस समय तुम्हारी भूख कहाँ गई? कहाँ गई? कहाँ गई तुम्हारी भूख? तुम बोलोगे- महाराज! ग्राहक को देख कर भूख भाग गई। ग्राहक है आमदनी, आमदनी दिखी तो भूख भाग गयी।
बंधुओं! मनुष्य को जिसमें अपना लाभ और हित दिखता है वहाँ सारा दुःख दूर हो जाता है। यदि अपने लाभ को देखोगे, अपने भले को देखोगे, अपने हित को देखोगे तो दु:ख को सहने की शक्ति अपने आप आ जाएगी। आती है ना कई बार। आपकी दुकान में आपके ग्राहक बड़े क्षुद्र वचन भी बोलते हैं? क्या भाई! आप तो लूट रहे हो? बोलते हैं या नहीं बोलते हैं? आपको अगर का कोई लुटेरा बोले तो आप बर्दाश्त करोगे। पर दुकान में, तुम्हारी दुकान में तो कुछ है या नहीं। पर यह क्या हो गया? क्यों सह रहे हो तुम ये सब बातें? अरे! सहन नहीं करेंगे तो बिजनेस कैसे करेंगे? बिजनेस में सक्सेसफुल होना है तो यह फंडा है सहन करो।
संत कहते हैं- ‘जीवन में कहीं भी तुम्हे सक्सेस होना है तो उसका एक ही फंडा है कि उसे टॉलरेट करो’। टॉलरेट करो, चाहे व्यापार हो, चाहे परिवार हो, चाहे धर्म हो, चाहे समाज हो या चाहे अध्यात्म हो जीवन की हर दिशा में टॉलरेट करना अति अनिवार्य है। टॉलरेट कीजिए। सीखिए, दुनियादारी की बातों को तुम पचाने में समर्थ हो लेकिन जब जीवन की बातें आती है तो तुम उसमें पिछड़ जाते हो। जीवन को सफल बनाना चाहते हो, जीवन को सुखी बनाना चाहते हो, अपने आपको सदाबहार प्रसन्न रहना चाहते हो तो इस बात को स्वीकार करो- ‘पेशेंस रखो, एफर्ट करो, टॉलरेट करो’।
पाथ का चौथा अक्षर ‘H’- ‘हार्ड वर्क करो’। वर्किंग हार्ड होनी चाहिए, कठोर परिश्रम होना चाहिए।
किसी भी तरह से परिश्रम में कोई कमी नहीं होना चाहिए। आज हम जैसे साधु भी दिन भर में 18 से 20 घंटे मेहनत करते हैं और 4 से 5 घंटे ही सोते हैं। बाकी दिनभर अपना काम करते हैं। तुम लोगों को तो फिर भी काम कम है। आराम तलबी जिंदगी जिसकी होती है वह कहीं का नहीं होता। जो परिश्रमी होता है वह हमेशा सफल होता है। चाहे मोक्षमार्ग की बात हो, चाहे दुनिया के किसी भी मार्ग की बात हो, हार्डवर्क होना चाहिए।
मैंने कहा डायरेक्शन तय करो। सही रास्ते पर चलना शुरू करो। डेस्टिनेशन को लक्ष्य में रखकर मुझे जहाँ जाना है, जिस दिशा में जाना है, उस रास्ते को मैंने चुन लिया है। अब मेरा डायरेक्शन चेंज नहीं होगा। कई बार राइट डायरेक्शन में चलने के बाद भी, जब चलना शुरू करते हैं तो कई बार मन डगमगाने लगता है। मन डगमगाने लगता है कि अरे! यह बहुत दूर है। कहाँ तक जाना है पता नहीं? मंजिल दिख नहीं रही है। सूरज बहुत चढ़ गया है कि चल पाएंगे या नहीं? शरीर में भी ताकत नहीं है। होता है न यह सब। अगर इस तरह से मन घबराता है तो उसके लिए क्या करना है? डेडिकेशन हमें जगाना है। हमारा पूरा डेडिकेशन होना चाहिए। उसमें एकदम समर्पित भाव से चलो। लक्ष्य निश्चित बनाकर अगर मनुष्य आगे बढ़ता है तो निश्चित अपनी मंजिल को पाता है। जिसकी निष्ठा डगमगा जाती है, वह रास्ते से ही लौट आता है। चलना तो कई लोग शुरू करते हैं, लेकिन जिसका डेडिकेशन पूरा नहीं होता है वह बीच में ही डगमगा जाता है।
एक बार एक मुनिराज का उपदेश हुआ और वहाँ अलग-अलग जगह से चार मित्र गए। चारों प्रवचन से बड़े प्रभावित हुए। चारों मित्रों ने तय कर लिया कि हमें दीक्षा लेना है। डायरेक्शन तय कर लिया कि अब मोक्ष मार्ग में चलना है, मुक्ति पाना है। डेस्टिनेशन भी सही है और डायरेक्शन भी सही है। बाहर आते ही विचार व्यक्त किया। जैसे ही मित्र ने आकर अपना लक्ष्य व्यक्त किया तो किसी एक व्यक्ति ने आकर व्यंग्य किया- अच्छा! सत्तर चूहे खाकर बिल्ली चली हज को, ये क्या हुआ तुम्हे? यह क्या दीक्षा लेगा अभी? रात-दिन 24 घंटा खाने-पीने वाला, बाजार में चाहे जहाँ खाने वाला यह क्या दीक्षा लेगा? अरे! पहले साधना करो, फिर दीक्षा लेना। दीक्षा लेना तो तलवार की धार पर चलने के समान है। ये तुम्हारे बस की बात है क्या? उसको बात समझ में आ गई। उसने कहा बात तो ठीक है। अभी तो हमारी भीतर की कोई तैयारी नहीं है। भावुकता में अगर हम कदम बढ़ा देंगे तो मामला गड़बड़ हो जाएगा।
दूसरे मित्र पर लोगों की बातों का कोई असर नहीं पड़ा। वह घर आया। घर तक उस बात की भनक पहुँच गई थी। घर वालों ने एक साथ कहा- कहाँ भ्रमित हो गए? साधु संतों के चक्कर में कहाँ फंस गए? तुम्हें पता है हम प्रवचन क्यों सुनते हैं? केवल इसलिए कि प्रवचन मंडप के लिए सुनते हैं। इधर से सुनना है और इधर से निकालना। हमारा बस इतना ही काम है कि इधर से सुनना इधर से निकालना। बोलना महाराज का काम और सुनकर निकलना हमारा काम। उससे आगे हमारा कोई काम नहीं है। इन साधु-संतों के चक्कर में फंसे तो भटक जाओगे। इनका काम है लोगों के भीतर वैराग्य जगाना और अपने ग्रुप में शामिल कर लेना। ऐसे लोगों के लिए यह ही दिखता है शामिल कर लेना। तुम्हे खबरदार जो इस तरह की कोई भी बात की। अभी पहले जीवन को समझो। गृहस्थी को समझो। यह भी कोई साधारण बात नहीं है। यह कोई साधारण काम है क्या? पहले अच्छी जिंदगी जीना शुरु करो, ज्ञान प्राप्त कर लो। अपने आप को मजबूत बनाओ। फिर आगे की बात को सोचना। बहुत लंबी-चौड़ी जिंदगी पड़ी है। अभी तो तुम्हारी उम्र ही क्या है? दूसरे ने कहा- बात तो सही है। वह भी वंही अटक गया।
तीसरा मित्र घर पहुँचा। घरवाली भी बिफरी हुई थी। एकदम तेज रोए जा रही। आपने यह क्या सोच रखा है? आपको दीक्षा ही लेनी थी तो मुझे क्यों लाए? मेरा क्या होगा? पति समझाने की कोशिश कर रहा है, पर वह पत्नी बिफरी हुई। रोए जा रही है। बोली अब कुछ नहीं हो सकता है। अगर तुम्हें दीक्षा ही लेनी है तो मेरे लाश पर पाँव रखकर जाना होगा। अब क्या? ‘पत्नी शरणम गच्छामि’ और यहाँ भी समर्पण। अब क्या यहाँ भी गोल, यहाँ भी कोई उपाय नहीं। अब कहाँ जाए? कोई उपाय नहीं। वह भी सरेंडर हो गया।
लेकिन चौथा- उसने कहा- कुछ भी कहो मैंने तय कर लिया। मेरा यही लक्ष्य है। मुझे जीवन का कोई भरोसा नहीं है। मैं जानता हूँ कि संसार के सब संयोग अपने अपने हिसाब से चलते हैं। कब किसका जन्म-मरण हो जाए कोई कुछ नहीं जानता है। मैं किसी का कर्ता नहीं, कोई किसी का कर्ता-धर्ता नहीं है। यह सब निमित्त-नैमित्तिक सहयोग संबंध है। आज हम आप हैं। हमने न जाने कितने माँ-बाप बना लिए, न जाने कितने परिवार बना लिए, न जाने कितने परिजन बना लिए। संसार का ऐसा कौनसा पदार्थ जिसका हमने भोग नहीं किया? संसार के प्रत्येक पुद्गल को मेरे द्वारा अनंत बार भोगे गए और छोड़े गए हैं। अब मेरी इनमें कोई रुचि नहीं है। मैंने जो ठान लिया तो ठान लिया। अब मैं लौट नहीं सकता। और वह निकल गया।
आगम में एसे चार प्रकार के गोले से उपमित किया। एक मोम का गोला, दूसरा लाख का गोला, तीसरा काठ का गोला, और चौथा मिट्टी का गोला। मोम का गोला कैसा होता है- थोड़ी सी आँच पर रखें और पिघल जाता है। पहला मित्र मोम के गोले जैसा जो दरवाजे पर ही पिघल गया। दूसरा लाख का गोला जो मोम के गोले से थोड़ा स्ट्रांग होता है। उसको आँच पर रखो तो लाख पिघलती है। दूसरा मित्र लाख के गोले जैसा जो घर आया और पिघल गया। तीसरा था- काठ का गोला उसको आँच मिलने मात्र से कुछ नहीं होता, आँच पर चढ़ा दो तो जल जाता है। आँच तक मतलब पत्नी तक गया और वह भी समर्पित हो गया। चौथा है- मिट्टी का गोला। उसको जितना आँच पर तपाओ उतना ही मजबूत होता है। चौथे मित्र का वैराग्य काठ के गोले की तरह मजबूत था। वह वैराग्य किसके भीतर, वह वैराग्य किसके भीतर? जिसके भीतर ऐसा डेडिकेशन हो और डिटरमिनेशन हो, वह ही डेस्टिनेशन को पा सकेगा। हे तुम्हारे भीतर ऐसा डेडिकेशन!
तुम लोग प्रवचन तो बड़े ही रुचि से सुनते हो। महाराज! क्या बात कर रहे हो? आपकी चार बातें बड़ी अच्छी लगती है। जितनी देर सुनते हैं, उतनी देर तो बहुत अच्छा लगता है। यह सोचते हैं कि बस यही सब अच्छा है। बाहर गए कि मोम का गोला बन गए। मिट्टी का गोला तो एकाध ही बन पाए। है या नहीं? चलो देखेंगे! आप हमेशा यही बोलोगे कि अभी डिसाइड नहीं है। अभी हुआ नहीं है, तो अब क्या है? कहाँ हैं हम? अपने आपको देखो! हमारा डेडिकेशन ज्यादा नहीं टिकता। दुनिया की बातों में तो हम पूरी तरह फूली डेडिकेट होते हैं। दुनिया की बातों में तो हम अपना पूरा डेडिकेशन रखते हैं। स्वयं के प्रति, अपने जीवन के प्रति, अपने कल्याण के प्रति कभी डेडिकेशन हुआ भी तो उसमें स्थिरता नहीं रहती है। स्थिरता टिकती ही नहीं है। डिटरमिनेशन नहीं है? फर्म डिटरमिनेशन होना चाहिए। दृढ़ निश्चय होना चाहिए और मनुष्य जब तक दृढ़ निष्ठापूर्वक अपने संकल्प से नहीं जुड़ता तब तक जीवन का उत्थान नहीं कर सकता। इसलिए अपने लक्ष्य को प्राप्त करना चाहते हो तो डेस्टिनेशन क्या है हमारा? सुख पाना, शांति पाना, प्रसन्नता पाना, आनंद पाना, अगर यह डेस्टिनेशन है तो इस रास्ते को अंगीकार करो। लोग कहते हैं कि हम सुख पाना चाहते हैं, पर हकीकत में सब पैसा कमाना चाहते हैं। ऐसी सोच है कि मैं जितना पैसा कमाउंगा उतना ही सुख पाऊंगा। दुनिया में कई बार इस तरह के सर्वे होते हैं या फ़ोर्ब्स जैसी पत्रिकाओं में ऐसा सर्वे छपता है कि दुनिया का सबसे बड़ा धनी व्यक्ति कौन? सबसे बड़ा धनी कौन? यह सर्वे हमेशा छपता है। पर कभी यह छपा कि दुनिया में सबसे सुखी कौन? बताइए कौन? हे एेसा कोई पैमाना या कोई पैमाना ही नहीं है? अगर ऐसा सर्वे हो तो उसमें किसका नाम आएगा? यह जितने भी पैसे वाले हैं उनका नाम आएगा क्या? सच्चे अर्थों में इसमें उसी का नाम आएगा जो अपनी मस्ती में डूबा होता है। जिसका डायरेक्शन स्वयं के प्रति है, इंटरनल है। उसी के स्वयं के प्रति है। उसी के प्रति डेडिकेशन है। उसी में डिटरमाइंड है। अपनी डेस्टिनी को पा रहा है। उसके अंदर की शांति, उसके अंदर के प्रसन्नता, उसकी मुख मुद्रा में झलकती हुई दिखेगी।
बंधुओं! बातें तो हम बहुत करते हैं। निष्ठा जब तक हमारी स्थिर नहीं होगी, जीवन में उपलब्धि घटित नहीं हो सकेगी। इसलिए अपनी निष्ठा को स्थिर कीजिए और जीवन की धारा को उसी अनुरूप बनाने और बदलने की कोशिश कीजिए। देखिए! जीवन में कितना आनंद, कितनी शांति, कैसे प्रसन्नता की अनुभूति को प्राप्त करते हो? जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। हमने हमेशा विपरीत रास्ते को चुना तो सही रास्ते को चुनने की कोशिश करें। हम हमेशा उलटी दिशा में गए हैं तो सही दिशा में चलने की का प्रयत्न करें। जिस दिशा को हम एक बार पकड़ ले उसमें पूर्ण स्थिरता को अपनाने की प्रवृत्ति को अपनाएं। निश्चित ही वह हमारे जीवन की एक बड़ी उपलब्धि होगी, अन्यथा सब बातें ऐसे ही चली जाएगी। अपने जीवन के लिए कुछ अच्छा करने का संकल्प लें। जब तक मनुष्य के मन में शुभ संकल्प नहीं जागते हैं तब तक वह अपने जीवन को अच्छा बनाने में समर्थ नहीं बन सकता। इसी शुभ भाव के साथ हम अपने जीवन को बेहतर बनाने का प्रयत्न करें। अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित रहें और अपने जीवन को आगे बढ़ाने की कोशिश करें।
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