Letter ‘E’
आज से कुछ वर्ष पूर्व मैं कोलकाता में था। एक परिवार मेरे पास आया। पति-पत्नी, दो बच्चे। 12 साल की बच्ची थी। उसने कहा- महाराज! हम पापा-मम्मी के साथ दीघा बीच (beach) गए। यह सोच कर गए कि वहां जाकर खूब एंजॉय करेंगे, छुट्टियां हैं, 3 दिन रुकेंगे पर क्या बताएं मम्मी किसी और होटल में रुकना चाहती थी, पापा किसी और होटल में रुक गए, सबका मूड खराब हो गया, पूरा मजा किरकिरा हो गया, एंजॉय धरा का धरा रह गया। मैंने कहा- एंजॉय बाहर नहीं, एंजॉय भीतर है। एंजॉय को थोड़ा पलट दो, in joy बना दो। जीवन में हमेशा जॉय जॉय ही रहेगा। आउटसाइड देखोगे पीड़ा है, इनसाइट देखोगे आनंद है। आप लोग बोलते हैं कि हम एंजॉय करते हैं। एक्चुअल एंजॉय किसमें है? एक्चुअल एंजॉय किसमें है? हम किसे एंजॉय कहेंगे? कहां है आनंद? कहां है रस? कभी आपने विचार किया? वस्तुतः एंजॉय जिसे आप कहते हैं वह एंजॉय बाहर की चीजों में नहीं हमारे मन में हैं। हमारा मन अच्छा है तो व्यक्ति खुले आसमान के नीचे भी आनंद से भर सकता है, मन खराब तो सब प्रकार की फैसिलिटीज के बीच भी व्यक्ति पीड़ित रहता है।
मैं सम्मेद शिखरजी में था। ढोल ढोल मात्र थे, चल रहे थे। भगवान को लेकर आया जा रहा था और उस ढोल की धुन पर एक युवक इतनी मस्ती में नाच रहा था (वहीं का ग्रामीण था) कि मेरे साथ कुछ दिल्ली के युवक थे उन्होंने कहा- महाराज! यह जितना एंजॉय कर रहा है ऐसा एंजॉय तो हम लोग डिस्को में भी नहीं करते। हमने उससे कहा- भैया! एंजॉय ना डिस्को में है ना इस ढोल में है एंजॉय हमारे मन में है। अपने मन को संभाल लो हर पल एंजॉय है। कल बात डिप्रेशन की थी। आज बात एंजॉय की है। आप अपने जीवन में एंजॉय करना चाहते हैं सब कोई चाहता है। भरपूर एंजॉय करो।
एक बार एक युवक ने मुझसे आकर कहा- महाराज जी! हम युवा लोग हैं, अभी हमारी जिंदगी एंजॉय करने की है और जब एंजॉय करने की जिंदगी है लोग कहते हैं- धर्म करो, ऐसा करो, वैसा करो तो सारा रस खत्म हो जाता है। हम लोग एंजॉय कब करेंगे? हमने कहा- भैया! किसने कहा कि धर्म करने से एंजॉय खत्म होता है? सच्चा एन्जॉय तो धर्मी को ही होता है। धर्म करने का मतलब यह थोड़ी है कि तुम नीरस बन जाओ, धर्म करने का मतलब यह है कि जीवन का सच्चा रस लो। एंजॉय करो, सही एंजॉय करो। तुम लोग जहां जिसको एंजॉय का साधन मानकर अपनाते हो थोड़ी देर एंजॉयमेंट होता है बाद में थक जाते हो। जितने भी तुम्हारे एंजॉयमेंट के साधन हैं और जिन-जिनके माध्यम से तुम एंजॉय करते हो, तुम्हारा अनुभव क्या बताता है। कितनी देर तक एंजॉय होता है? क्लब जाने में इंजॉय होता है, मस्ती करने में इंजॉय होता है, मौज-शौक के साधनों में तुम्हें इंजॉय लगता है? कुछ लोग नशा करते हैं, शराब पीते हैं उसमें उनको एंजॉय होता है, घूमने- फिरने में तुम्हारा एंजॉयमेंट होता है? यह कितनी देर का एंजॉय है? बोलो। कितनी देर का? महाराज! कुछ देर का और वह भी तब जब तक हमारा मूड ठीक हो। कई बार ऐसा होता है कि लोग घूमने-फिरने जाते हैं और थोड़ी-थोड़ी बातों में एक दूसरे से ऐसे उलझते हैं कि सारा मजा किरकिरा हो जाता है। तो संत कहते हैं जीवन का असली मजा बाहर के साधनों में नहीं है, मन को साधने में है। अपने मन को साध लो, जीवन भर मजा-मजा रहेगा और मन तुम्हारे वश में नहीं तो तुम चाहे कितने भी मजेदार माहौल में रहो तुम्हारे अंदर मजा नहीं होगा क्योंकि मजा बाहर नहीं भीतर है। भीतर मजा है, बाहर सजा है। एक दृष्टि अपने भीतर विकसित होनी चाहिए तो भीतर आओ। अपनी ओर मुड़ने की कोशिश करो तब जीवन का वास्तविक एंजॉय कर सकोगे।
आज चार बातें मैं आपसे कहूंगा- एंटर (Enter), एग्जिट (Exit), एक्सप्रेस (Express ) और इरेज़ (Erase)। चारों शब्द आपके जाने-पहचाने हैं। कोई बाहरी शब्द नहीं है लेकिन जिस संदर्भ में मैं आप सबसे कह रहा हूं- जीवन का रस लेना है, जीवन का आनंद लेना है, जीवन भर सुखी होना चाहते हो तो इन शब्दों को मेरे संदर्भ में समझने की कोशिश करिए। एंटर करने का मतलब प्रवेश करना, प्रवेश करो, कहां? भीतर, धर्म में।
धर्म हमें अपने भीतर प्रवेश कराता है, हमें हमारा परिचय कराता है। अपने भीतर आओ। कोई बहुत सुंदर महल हो और दरवाजा खुला हो, भीतर प्रवेश करने के लिए कोई रोक-टोक नहीं हो और उसके बाद भी कोई व्यक्ति दरवाजे पर खड़ा हो तो उसे हम क्या कहेंगे। खूब सुंदर प्रसाद, खूब सुंदर महल, दरवाजा खुला हुआ, किसी प्रकार की रोक-टोक नहीं, फिर भी कोई व्यक्ति केवल दरवाजे पर आकर खड़ा रहे तो उसे हम क्या कहेंगे? बोलो। मूर्ख, बेवकूफ, बुद्धू, खोजो वह कहां है? तुम धर्म के दरवाजे पर बैठो, अंदर प्रवेश करो। महाराज! चातुर्मास तो अब समाप्ति की ओर मुड़ गया अब आप एंट्री करने की बात कर रहे हो। हम तो बहुत आगे निकल चुके हैं। ठीक है यदि तुम अंदर प्रवेश कर चुके तो कोई बात नहीं लेकिन भीतर झांक कर देखो सच्चे अर्थों में धर्म के क्षेत्र में तुम्हारी एंट्री हुई भी है कि नहीं? अपने अंदर को टटोल कर देखो, मैंने धर्म के क्षेत्र में कितना प्रवेश किया। कहने को हम धर्म की बातें करते हैं। महाराज! हम तो खूब पूजा-पाठ करते हैं, गुरुओं की सेवा करते हैं, सत्संग करते हैं, समागम करते हैं, दान करते हैं, व्रत करते हैं, उपवास करते हैं, शक्ति अनुसार त्याग और संयम भी लेते हैं फिर भी आप कहते हो धर्म में प्रवेश नहीं तो धर्म में प्रवेश कब होगा? माना आप यह सब करते हैं लेकिन यह धर्म नहीं यह तो धर्म का कलेवर है, ऊपर का कलेवर। असली धर्म तो कुछ और है। वह क्या है? कभी आपने सोचा और वहां प्रवेश करने की मनोभावना आपने जागृत की? वह धर्म क्या है? उसे समझो और उस में प्रवेश करने की कोशिश करो। मेरी जितनी भी धार्मिक क्रियाएं हैं उन सब का प्रयोजन क्या है? समता, सरलता, सहजता और सात्विकता। मेरे मन में कितनी समता बढ़ी, मेरे जीवन में कितनी सरलता आई, मेरे अंदर कितनी सहजता आई और मेरे भीतर कैसी सादगी आई यह देखने की कोशिश करो। अगर पल-पल में मैं उबलता हूं तो अभी मैं धर्म के क्षेत्र से बहुत दूर हूं, धर्म के क्षेत्र में मेरा प्रवेश नहीं हुआ क्योंकि जो सच्चा धर्मी होता है वह सहनशील होता है, उसके हृदय में समता की भावना बढ़ती है। तुम देखो मेरे अंदर कितनी चीजों को सहने की स्थिति आई, मैं चीजों को कितनी स्थिरता पूर्वक सहने में समर्थ हुआ हूं। उसे देखने की कोशिश करो, सहनशीलता को बढ़ाओ, मन में शांति और स्थिरता को लाने की कोशिश करो, पल-पल में उभार और पल-पल में उतार वाली स्थिति तुम्हें कहीं का नहीं रहने देगी। कहीं बार आप देखिए आप पूजा-पाठ करते हैं अंदर यह चीजें रह पाती हैं, समता रह पाती है? कहीं-कहीं लोगों को तो मैंने देखा है कि पूजा पाठ करने के लिए जाते हैं भगवान की पूजा करते हैं, अभिषेक करते हैं वहीं कुछ ऊंचा नीचा हो गया तो उबल पड़ते हैं। बोलो होता है कि नहीं? थोड़ा सा मन के विरुद्ध हुआ, गए थे बड़े भाव लेकर कि भगवान की पूजा करेंगे, भगवान के प्रति विशुद्धि का भाव लेकर गए और थोड़ा सा प्रतिकूल निमित्त आया कि वहीं उबल गए। मजा कहां? बोलो, यह धर्म में एंट्री है? विचार करो। मुझे अपने अंदर की समता को दिनों दिन बढ़ाने की कोशिश करनी है। यह जीवन का रस है। जिस मनुष्य के अंतरंग में समता होती है वह जीवन में कभी दुखी नहीं होता, वह अपने जीवन में घटने वाले हर पल को एंजॉय करता है। अपने जीवन का संपूर्ण एंजॉय वही करता है जो समता रखता है, समता रखने का मतलब- सहज बने रहना। अपनी सहजता को खंडित मत करो। अपने मन से पूछो- तुम्हारा मन कैसा है? सहजता रहती है? पल-पल में असहज, किसी ने तारीफ कर दी खिल गए, टिप्पणी कर दी खौल गए। एक पल लगता है। किसी ने तारीफ की- एकदम मन प्रसन्न और एक टिप्पणी की- मन पल में खिन्न। देखो, आपने कितना लोगों को खुशी देने के लिए आयोजन किया, आपकी तरफ से जो उत्कृष्ट हो सकता था वह लगा दिया। आपने जिन मित्रों को बुलाया आए, आपके साथ सबने मजा लिया, लुत्फ उठाया और किसी एक ने टिप्पणी कर दी- अरे! क्या अरेंजमेंट है बिल्कुल पुअर, बोगस। अब बोलो- क्या होगा? उस एक शब्द ने तुम्हारे सारे मजे को किरकिरा कर दिया। क्यों? क्योंकि तुम उससे प्रभावित हो गए, प्रभावित हो गए। एक शब्द! आप उससे प्रभावित हो गए, आपका मजा किरकिरा हो गया। यदि आपने सुनकर इग्नोर कर दिया होता तो कोई दिक्कत होती? नहीं होती। क्यों? जिस मनुष्य की धर्म में सच्ची एंट्री होती है वह ऐसी बातों से बिल्कुल प्रभावित नहीं होते, इन सबको ऐसे ही उड़ा देते हैं, कहते हैं- ठीक, मुझे यह करना ही नहीं और उनके लिए इस तरह के बाहर के इतने संभारंभो की जरूरत ही नहीं पड़ती, वह अपने आप अपने भीतर में अपने आप को परिपूर्ण महसूस करता है और एक अलग प्रकार की आत्म तुष्टि और आत्म आनंद की अनुभूति करता है। उस तरफ देखने की जरूरत है, उस तरफ मुड़ने की जरूरत है। तो एंट्री कीजिए, अपने भीतर की और जाइए, धर्म की ओर जाइए। भीतर की ओर प्रवेश करना धर्म है और बाहर की ओर जाना अधर्म है। अधर्म में जाओगे दुख मिलेगा, भीतर आओगे सुख मिलेगा इसलिए भीतर एंटर करो, अपनी सोच को बदलो, अपनी बहिर्मुखी प्रवृत्ति को बदलकर अंतर्मुखी प्रवृत्ति को अपनाने की कोशिश करो। यदि तुम्हारे भीतर अंतर्मुखता बढ़ गई तो तुम कभी असहज नहीं होगे, तुम कभी चीजों से प्रभावित नहीं होंगे, सहज बने रहोगे।
एक सराय थी। उसमें करोड़पति व्यक्ति रुका हुआ था। उसमें एक फ़कीर भी था। रात में चोरी हो गई। करोड़पति व्यक्ति की अटैची चली गई और फ़कीर था उसकी भी एक चादर थी, एक लंगोट थी वह कोई उठा ले गया। सुबह हुई वह करोड़पति व्यक्ति बड़ा असहज हो गया, बड़ा शांत हो गया। बोला- क्या करें मेरी अटैची कोई ले गया बड़ा नुकसान हो गया। दस प्रकार के आरोप वहां के प्रबंधकों के ऊपर लगाना शुरु कर दिया, भूचाल खड़ा कर दिया। फ़कीर ने पूछा- महोदय! आपका क्या गया? आपके ब्रीफ़केस में क्या था? बोला- 50 हज़ार रूपये थे। फ़कीर बोला- आपकी हैसियत? बोला- ऐसे तो मैं करोड़पति हूं। फ़कीर बोला- 50 हज़ार रुपये गए, एक करोड़पति व्यक्ति के लिए केवल आधा प्रतिशत ही तो गया। बोला- हां। फ़कीर बोला- देखिए, आपका आधा प्रतिशत गया आप इतना हल्ला मचा रहे हो, मेरा शत प्रतिशत चला गया मैं ज्यों का त्यों हूं। मेरे पास जो था सब चला गया बस तन की लंगोट बची है और चद्दर बचा है, बाकी जो था सब चला गया तो भी मैं सहज हूं और तुम्हारा आधा प्रतिशत चला गया तुम असहज हो गए। इस असहजता से अपने आप को बचाने की कोशिश कीजिए।
धर्म के क्षेत्र में आगे बढ़िए जीवन में आनंद आएगा, सरलता को अपनाइए, अपने मन को पवित्र बनाने की कोशिश कीजिए। देखिए, मेरे मन अंदर कितनी पवित्रता है- धर्म की बातें हम करते हैं, धर्म की क्रियाएं हम करते हैं, धार्मिक समारोह में अपने आप को सम्मिलित और सहभागी बनते हैं लेकिन अपने अंदर की सरलता या पवित्रता को हम कितना महत्व देते हैं। वह हमारे भीतर कितना घटित हुआ। कभी आपने विचार किया। मन मेरा कितना पवित्र है, मन की पवित्रता को देखो और तो और मैं आपसे केवल इतना कहना चाहता हूं अपने मन में झांक कर देखो मन से पूछो भगवान के दर्शन करने के लिए वेदी पर खड़े हो और उसी पल कोई रुपसी स्त्री नजर आ जाए तो क्या तुम्हारे मन की पवित्रता बनी रहती है? अपने मन से पूछो। अगर भगवान की पूजा करते समय, भगवान के दर्शन करते समय, भगवान के सामने खड़े होने के बाद एक नजर में कोई आए और मन डगमगा जाए तो क्या वह भगवान के पास आकर के भी धर्म के क्षेत्र में प्रवेश कर सका? अपने मन से पूछो। अपने मन से पूछो। शुद्ध सोले के धवल वस्त्र पहनकर भगवान के मंदिर में चले जाना बहुत सरल है पर अपने मन को धवल बना पाना बहुत मुश्किल है।
संत कहते हैं- ‘जैसे धवल वस्त्र बाहर से पहनते हो अपने मन को भी उतना उज्जवल करो जीवन आनंद से भरपूर हो जाएगा’। अपने मन को टटोल कर देखो, उसे सही दिशा में मोड़ कर देखो तो तुम्हारा धर्म में प्रवेश होगा, तुम धर्म में एंटर करोगे। लेकिन भैया धर्म में एंटर कब करोगे? जब पाप से एग्जिट होगे, पाप से बाहर निकलोगे। अभी पाप में एंट्री है तो धर्म क्षेत्र में एंट्री कैसे होगी? पाप में एंट्री बनी हुई है तो धर्म क्षेत्र में एंट्री कैसे होगी? सच्चे अर्थों में धर्म के क्षेत्र में एंटर करना है तो पाप से बाहर आओ, एग्जिट हो जाओ, पाप से एग्जिट हो और पाप को एग्जिट करो। पापात्मक प्रवृति से बचें और भीतर जमे हुए पाप को बाहर निकालो। लोगों की स्वाभाविक रूचि पाप के कार्यों के प्रति ज्यादा होती है, धर्म के कार्यों के प्रति रुचि कम होती हैं। धर्म में लगना पड़ता है, लगाना पड़ता है, पाप में तो अपने आप मन रम जाता है। अपने आपको मोड़िये, मन को मोड़ने की कोशिश कीजिए। जब तक आप पाप से अपने आप को बाहर नहीं करोगे तब तक धर्म के क्षेत्र में सच्चा प्रवेश नहीं होगा और जब तक धर्म के क्षेत्र में सच्चा प्रवेश नहीं होगा तब तक जीवन में सच्चा आनंद भी नहीं होगा। एक दूसरे से चीजें जुड़ी हुई है तो पाप के क्षेत्र से अपने आपको बाहर निकालने की कोशिश कीजिए। देखिए मेरे जीवन में कहां-कहां पर पाप जुड़ा है। पापात्मक प्रवृत्तियों से अपने आप को बचाइए, पाप से बाहर निकलें, पाप को बाहर निकालें। कदाचित लोग पाप से बाहर निकल जाते हैं पर पाप को बाहर निकालने में पीछे रह जाते हैं। पाप से बाहर निकले मतलब- मतलब पाप से बाहर निकलकर यहां आए हो, इस घड़ी आप पाप में नहीं हो, पाप से निकल चुके तब यहां आए, पाप में फंसे होते, रचे होते, पचे होते तो पता नहीं कहां होते। तो तुम पाप से निकलकर तो आ गए लेकिन भीतर के पाप को निकालने का क्या प्रयास होगा? यह देखना है। पाप से निकलना सरल है, पाप को निकालना बहुत मुश्किल। अपने मन के पाप को निकालने का अभ्यास कीजिए, उसे धीरे-धीरे साफ करने की कोशिश कीजिए तब जीवन का वास्तविक आनंद आएगा, अन्यथा हम उलझ कर रह जाएंगे। व्यक्ति इस भाव से धर्म के क्षेत्र में प्रवेश कर लेते हैं कि धर्म करेंगे तो मेरे पाप धुल जाएंगे। संत कहते हैं- ‘निश्चित धर्म करने से पाप धुलते हैं लेकिन इतने मात्र से काम नहीं होगा, पाप धोने के लिए धर्म तो फिर भी सब कर लेते हैं सच्चा धर्मी वही है जो पाप काटने के लिए धर्म करता है, पाप त्यागने के लिए धर्म करता है’। पाप धोने के लिए तुमने धर्म बहुत किया, पाप काटने के लिए तुमने धर्म बहुत किया, पाप त्यागने के लिए जब तुम धर्म करोगे उस दिन तुम स्वयं धर्ममय बन जाओगे, पुण्य की मूर्ति बन जाओगे, तुम्हारे जीवन में परम पवित्रता प्रकट होगी। कोशिश कीजिए अपने अंदर के पाप को साफ करने की, पाप को बाहर निकालने की। मैं अब अपनी सारी पापात्मक वृतियो से बाहर रहूंगा, मैं अब अपने जीवन में पाप को प्रवेश नहीं दूंगा और अब मैं धर्म के क्षेत्र में प्रवेश करूंगा। होता यही है कि धर्म में एंट्री की बात होती है लोग पाप में रम जाते हैं और पाप से एग्जिट होने की बात होती है लोग धर्म से बाहर हो जाते हैं। मन को देखो। एक आदमी आपका कोई मित्र हो और आपको दो ऑफर आ रहे हैं- एक ऑफर है सम्मेद शिखर जी की वंदना का और एक ऑफर है किसी हिल स्टेशन पर जाने का। किसको prefer करोगे? इमानदारी से बताना। सम्मेद शिखरजी (उदयपुर के लोग तो बहुत दूध के धुले हैं)। मौका आए तो क्या करते हो? रूचि जिधर होती है उधर बढ़ते हो। अपने आपको मोडिये। अपने अंदर से नाता जोड़िए चीज़े अपने आप घटित होने लगेगी और इस तरीके से हमारा जुड़ाव नहीं होगा तो कोई कितना भी बोले कोई परिवर्तन होने वाला नहीं है। वह भीतर घटित हो ऐसा परिवर्तन प्रकट हो, अंदर एंट्री कीजिए, धर्म के क्षेत्र में मेरा प्रवेश होना चाहिए।
सच्चा प्रवेश धर्म की रूचि हो, सामायिक करूं तो सामायिक ही हो कुछ और ना हो, पूजा करूं तो पूजा ही हो कुछ और ना हो, पाठ करुँ तो पाठ ही हो कुछ और ना हो मन इधर उधर ना जाए इस भूमिका को जगाइए। कई बार लोग बोलते हैं कि महाराज क्या करूं सामायिक आदि में मन नहीं लगता, इधर-उधर भाग जाता है, अक्सर लोगों का मन भागता है, माला फेरने में लोगों का मन भागता है, सामायिक करने में मन भागता है, कोई भी धर्म का कार्य करते है मन भागता है। मुझसे पूछा- महाराज! मन भाग जाता है, क्या करूं? मैंने कहा- ‘पिक्चर देखते समय कभी मन भागा’? मनपसंद मूवी देख रहे हो, मन कभी भागता है? महाराज! वहां तो निर्विकल्प समाधि हो जाती है, वहां की मत पूछिए। क्यों? वही मन है तुम्हारा, एक आलंबन लिया तो मन भाग रहा है और दूसरा आलम्बन है तो उस आलंबन को देखकर मन डगमगा रहा है। क्यों? एक में मन भाग रहा है, एक में मन डूब रहा है। क्यों? जिसमें रुचि होती है उसमें मन डूबता है और जिसमें रुचि का अभाव होता है वहां मन भागता है। तुम्हारा धर्म के क्षेत्र में अभी सच्चा प्रवेश नहीं हुआ इसलिए मन भागता है। जिस दिन सच्चा प्रवेश होगा मन भागेगा ही नहीं।
किसी सुंदर महल में जहां एक से एक चीजें हैं, जहां एक से एक बेशकीमती वस्तुएं रखी हैं, कलाकृतियां हैं वहां कोई प्रवेश करें और ऐसी चीजों को देखें जिसे जीवन में कभी देखा ही नहीं तो क्या कभी वह उस से बाहर निकलने की इच्छा करेगा? सोचेगा यहीं रहे, यहां जो सुविधाएं हैं, यहां जो चीजें हैं यह कभी मैंने देखी ही नहीं। जब तक यहां अवसर एवं अनुकूलता मिले मैं यही रहूंगा। ऐसा ही करोगे ना? सारी फैसिलिटीज है, क्योंकि हमने उसको देख लिया, उसको भीतर से समझ लिया, हमने उसको अंदर से जान लिया तो यह चीजे हमारे साथ अपने आप जुड़ गई लेकिन जो भीतर गया ही नहीं उसे क्या पता भीतर क्या है। धर्म के क्षेत्र में तुम एक बार प्रवेश कर लोगे और उस धर्म का अंदर से आनंद प्राप्त कर लोगे तो बाहर से कोई भी चीजें कितनी भी आकर्षित लगे वह तुम्हें खींच नहीं पाएगी, तुम उसी में रम जाओगे क्योंकि तुम जानते हो यहां जो शांति है, यहां जो समता है, यहां जो सरलता है, यहाँ जो पवित्रता है, यहां जो मस्ती है, यहां जो आनंद है वह दुनिया में कहीं नहीं है। मुझे कहीं नहीं जाना। अंदर प्रवेश करके काम करो, धर्म में वास्तविक प्रवेश कीजिए और पाप से बाहर निकलने की कोशिश कीजिए। जब भी मौका आए पाप के कार्य का और धर्म के कार्य का, पाप के कार्य को गौण कर दो और धर्म के कार्य में उत्साहित होकर आगे बढ़ जाओ। इधर एंट्री हो उधर एग्जिट करो मामला अपने आप ठीक हो जाएगा और अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो मामला सब गड़बड़ा जाएगा। अगर कहीं कोई अवांछित तत्व प्रवेश कर जाए तो आप उसे तुरंत बाहर का रास्ता दिखाते हो कि नहीं? क्यों दिखाते हो? क्योंकि वह तत्व दिख जाता है, सिक्योरिटी की व्यवस्था रहती है कि नहीं यह सिक्योरिटी परपज से यहां रखना ठीक नहीं। इसको बाहर निकालो, यह यहां का पूरा वातावरण बिगाड़ देगा। बाहर के इस तरह के अवांछित तत्वों को बाहर निकालने में हम एक पल का विलंब नहीं करते। जिस दिन भीतर के दुर्भाव को बाहर निकालने में हम समर्थ हो जाएंगे हमारे जीवन में एक नई बाहर आ जाएगी। भीतर की उन दुर्बलताओं को बाहर निकालिए। पर नहीं निकाल पाते क्योंकि वह हमें दिखाई नहीं पड़ती। उसे देखिए, जब तक हम भीतर के उस तत्व को खाली नहीं करेंगे तब तक हमारे भीतर धर्म का जो वास्तविक प्रभाव है वह प्रकट नहीं होगा। तो पाप से निकलिए, धर्म में प्रवेश कीजिए। एंटर, एग्जिट, नंबर 3: एक्सप्रेस (Express)।
एक्सप्रेस मतलब- ‘प्रकट करें, प्रकटाएं, अभिव्यक्ति दे’। किसको? अच्छाइयों को, अपने भीतर की अच्छाइयों को प्रकटाएं। हमारे अंदर ढेर सारी अच्छाइयां है, अनंत गुणों के भंडार हैं हम। भगवान कहते हैं- तू खुद में भगवान हैं, पहचान, उसे अभिव्यक्ति दे, अपने अंदर की अच्छाइयों को प्रकट कर। तू अभी जिसे प्रकट करना चाहता है वह प्रकट करने योग्य नहीं है और जिसे प्रकट करना चाहिए उस तरफ तेरी दृष्टि नहीं है। तू उसे पहचानता नहीं है, तू प्रकट करता है अपने से बाहरी इमेज को, तू प्रकट करता है बाहर की पर्सनालिटी को, तू अपनी दौलत को दिखाता है, तू अपनी शोहरत को दिखाता है, तू अपने रूप को दिखाता है, तू अपने रुतबे को दिखाता है, तू अपने रुपए को दिखाता है। काश! तू अपने स्वरूप को पहचानता तो तेरे जीवन में यह बातें नहीं आती। तू धन वैभव से अपनी पहचान करता है, गुण, वैभव को पहचानने की कोशिश कर तेरी अलग अनोखी निराली पहचान बनेगी। अपने भीतर के गुण, वैभव को प्रकटाओ पर कब प्रकटाओगे? जब उसे पहचान पाओगे। उसे पहचानोगे तो अपने भीतर के गुण, वैभव को उद्घाटित करोगे। लोगों की नजर ही नहीं है, बाहर-बाहर की बातों में लगे हैं। भीतर के उस परम तत्व को आप जैसे-जैसे उद्घाटित करने में सक्षम और समर्थ होगे जीवन का गुणात्मक परिवर्तन होना शुरू होगा। आज से तय कीजिए मैं अपने भीतर रोज एक अच्छाई को उभारने का प्रयास करूंगा। रोज नहीं तो सप्ताह में एक अच्छाई, सप्ताह में नहीं तो कम से कम महीने में एक अच्छाई का प्रयास करूंगा। कुछ तो करो। और नीचे आ जाऊं? महीने में नहीं तो साल में एक अच्छाई का और चलो और नीचे आ जाता हूं साल में नहीं तो पूरी जिंदगी में एक अच्छाई का। कुछ तो प्रकटाओ, कहीं तो रखो, अपने कदम तो बढ़ाओ। मैंने अच्छाइयों की तरफ क्या दृष्टि रखी? अच्छाई को एक्सप्रेस कीजिए। आपके जो एक्सप्रेशंस है वह कैसे होते हैं? बोलिए, बहुत सारे एक्सप्रेशंस होते हैं। अच्छे कम बुरे ज्यादा होते हैं और जैसे एक्सप्रेशंस होते हैं वैसा इंप्रेशन होता है। यह एक्सप्रेशन तात्कालिक होता है। संत कहते हैं- अपने भीतर की अच्छाइयों को अच्छे से एक्सप्रेस कर लो तुम्हारा इंप्रेशन एक्स्ट्राऑर्डिनरी हो जाएगा। एक्स्ट्राऑर्डिनरी इम्प्रैशन होगा। एक्सप्रेस तो करो प्रकट तो करो। लेकिन अच्छाइयां कब एक्सप्रेस होगी? अच्छाइयों को एक्सप्रेस करने के लिए क्या करना है? बुराइयों को इरेज़ करो। सीधा-सीधा काम है। इरेज़ करने का मतलब- मिटाओ, हटाओ। बुराई को इरेज़ करो तो अच्छाई एक्सप्रेस होगी।
आपने देखा कभी कोई चित्रकार होता है, कोई भी सुंदर चित्र बनाता है और वह सुंदर कब होता है- जब सारी लकीरें ठीक तरीके से सलीके से खींची जाती है तो वह चित्र बन जाता है और लकीरे आड़ी-तिरछी, जैसी-तैसी खिंच जाए तो चित्र विचित्र हो जाता है। तो किसी कैनवास पर चित्र अंकित करते समय किसी चित्रकार से भूलवश कोई उल्टी-सीधी लकीर खींची जाती है तो वह क्या करता है? उसको इरेज़र से मिटाता है तब अपने आप सुंदर बन जाता है, उभर जाता है और अगर उसे ना मिटाएं तो चित्र विचित्र हो जाता है। बाहर का कोई भी चित्र तुम्हारे हाथ से बिगड़ता है तो उसे सुधारने में तुम एक पल का विलंब नहीं करते, भीतर का चित्र बिगड़ रहा है इसे सुधारने का प्रयास क्यों नहीं करते? विचार कीजिए। भीतर के चित्र को सुधारिए। वह विचित्र हो रखा है, कितना विकृत हो रखा है, कितना गंदा हो रखा है, अपने भीतर झांक कर देखिए। उस अपवित्रता को पहचानिए और उसे दूर कीजिए। बुराइयों को जैसे-जैसे हम दूर करेंगे हमारे भीतर की अच्छाइयां अपने आप उभरने लगेगी, इरेज़ कीजिए और एक बात बताऊं बाहर तुमने कुछ लिखा उसे साफ करने के लिए इरेज़र को रगड़ना पड़ता है तब वह साफ होता है। संत कहते हैं- भीतर की बुराइयों के लिए एक ऐसा इरेज़र है- ‘सद्ज्ञान का इरेज़र’। उसके लिए कुछ नहीं करना पड़ता केवल टच करना पड़ता है वह एक पल में साफ हो जाती है। उस रेजर को टच करोगे सारी बुराई साफ। एक बात बताओ अंधेरे को दूर भगाने के लिए क्या करते हैं? बोलो, दीया जलाते हैं। अंधेरे को दूर भगाने के लिए दिया जलाते हैं और दिया जलाने के कितनी देर बाद अंधेरा भागता है? बोलो, इधर दिया जला इधर अंधेरा छटा, इधर ज्ञान का इरेज़र लगाया इधर बुराई छठी। एक पल में बुराई छटती है और अच्छाई अपने आप प्रकट होती है, बशर्ते तुम अपनी बुराइयों को पहचानो, सीधे तरीके से पहचानो तब रोशनी होगी।
अंधेरे ने अंधेरे से कहा- रोशनी से करलो किनारा, अंधेरे ने अंधेरे से कहा रोशनी से कर लो किनारा, क्योंकि यदि किसी वक्त रोशनी आ गई तो मिटेगा नामो निशान हमारा तुम्हारा।
रोशनी आएगी तो अंधेरा नहीं टिक सकता, अंधेरा और प्रकाश दोनों साथ साथ नहीं रहते। अगर तुमने अपने भीतर उस ज्ञान को प्रकटा लिया, ज्ञान के इरेज़र को टच किया, सब चीजें साफ होगी। अपने आपको साफ करो और एक बात बताऊं बाहर कोई चित्र अंकित करना होता है तो हमें खींचना पड़ता है, उसमें अंकित हुई उल्टी-सीधी रेखाओं को मिटाना पड़ता है और अपने चित्र के लिए व्यवस्थित रेखाएं खींची पड़ती है। संत कहते हैं- भीतर के चित्र के लिए कुछ भी रेखा खींचने की जरूरत नहीं है। चित्र तो भीतर है, सुरक्षित है, सुंदर है, शाश्वत है, अद्भुत है, अनूठा है। पर उस चित्र के ऊपर बुराइयों की परतें जमी हुई है। उन परतों को साफ कर दो तो भीतर का चित्र अपने आप प्रकट हो जाएगा। वह चित्र ऐसा वैसा चित्र नहीं, वह भगवान का चित्र है। वह खुद में भगवान है, उसे पहचानो, बुराई को साफ करो। उस परत को हटाने की कोशिश करो। जैसे-जैसे उस परत को हटाने का उद्यम करोगे, बुराइयों की परतें हटेंगी। अंदर सद्गुणों का चित्र प्रकट होगा, हमारे भीतर का अवगुण वैभव उद्घाटित होगा और उस पर हम आत्मा ना होकर सीधे परमात्मा हो जाएंगे। फिर हमारे लिए कुछ विशेष नहीं बचेगा। उसे उद्घाटित करो, उसे पहचानो। बड़ी पुरानी पंक्तियां हैं-
प्रकाश पर अंधेरे की परतें जमी थी, भीतर रोशनी की बड़ी कमी थी।
दिमाग ने हर संभव कोशिश की, सुबह से शाम तक तलाशता रहा दीया,
जहां भी, जैसी भी मिली, रोशनी अक्ल भीतर ले आयी लेकिन बात कुछ समझ ना आई अंधेरा बढ़ता ही गया।
एक दिन एक कांतिमान दीया मुस्काया, मन को सम्मोहित करता नजर आया,
दिमाग ने भीतर आने का ज्योहीं दिया निमंत्रण, खिलखिलाकर व्यंग से हंसने लगी किरण।
इस जैसा एक और दीया जल रहा है तेरे भीतर। रोशनी को व्यर्थ ढूंढती अक्ल घूमती है घर-घर।
दीये के चारों ओर तम के घेरे हैं कठोर, यदि तू इन घेरों को काट सकेगा same रोशनी एक दिन जग को बांट सकेगा।
वह दीपक भीतर है। अंधेरे की परत को हटाइए, इरेज़ करना सीखिए, आज से अपना लक्ष्य बनाइए, पुरुषार्थ जगाइए, जीवन में परिवर्तन घटित होगा, एक अद्भुत क्रांति होगी और बंधु एक बात ध्यान रखिए हमारे जीवन में जो कुछ भी घटित होगा वह तभी होगा जब हम उसके लिए एफर्ट्स करेंगे, प्रयास करेंगे। हम प्रयास नहीं करते और परिणाम चाहते हैं।
ना भूतो ना भविष्यति
लोग कहते हैं- महाराज! प्रवचन बहुत अच्छा लगता है, बहुत मजा आ रहा है। भैया प्रवचन सुनने में जो मजा है वह केवल प्रवचन सुनने तक है लेकिन प्रवचन को जीवन में उतारने में जो मजा है वह सारी जिंदगी का है। तुम्हें तय करना है कौन सा मजा प्राप्त करना है। हमने अंशत: भी इन बातों को अपने जीवन में उतारा तो हमारा जीवन सुधर जाएगा। जीवन में आमूलचूल परिवर्तन घटित हो जाएगा। हमारी उस तरफ दृष्टि होनी चाहिए। बातें तो हम लोग रोज सुनते हैं पर सुनकर ही रह जाते हैं। संत कहते हैं- सुनकर ही संतुष्ट मत होइए, अपने आपको झकझोरिये, हिलाइये, अपने चिंतन की धारा को मोड़िये, दिशा को बदलने की कोशिश कीजिए। एक बार चिंतन की धारा मुड़ गई, जीवन की दिशा बदल गई तो फिर हमारी दशा को सुधारने में देर नहीं होगी। आज दुर्दशा बनी हुई है केवल इसलिए कि हमने गलत डायरेक्शन में अपने आप को आगे बढ़ा दिया है। डायरेक्शन बदलने की जरूरत है, सही दिशा में आगे बढ़ने की जरूरत है। धर्म के क्षेत्र में सच्चा प्रवेश हो, एंटर करें, एग्जिट हो, एक्सप्रेस करें और इरेज़ करें। आजकल तो लोग एक्सप्रेस way में ही चलना चाहते हैं, सब एक्सप्रेस हैं। पर भैया जिसको एक्सप्रेस करने की बात मैं कर रहा हूं उससे एक्सप्रेस करने की कोशिश कीजिए ताकि जीवन का सच्चा आनंद आ सके। जीवन में सच्चा रस ले सकें। जीवन की वास्तविकता का लाभ ले सकें।
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