Letter ‘G’- GOAL (Alphabet Series Pravchan)

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Letter ‘G’-GOAL

एक युवक बड़ी तेजी से चला जा रहा था। वह युवक बड़ी तेज गति से चला जा रहा था कि रास्ते में उसे किसी ने टोकते हुए पूछा- भैया! आप कहाँ जा रहे हो? उस युवक ने जवाब दिया- पता नहीं। सामने वाले व्यक्ति को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने दूसरा प्रश्न किया- आप कहाँ से आ रहे हो? ऊत्तर मिला- पता नहीं? उस व्यक्ति ने पुन: पुछा- क्यों जा रहे हो? युवक ने फिर से वही जवाब दिया- पता नहीं। कहाँ जा रहे हो ये पता नहीं। कहाँ से आ रहे हो इसका पता नहीं। क्यों जा रहे हो ये भी पता नहीं। व्यक्ति हैरान, वह व्यक्ति हैरान रह गया। कहाँ से आ रहे हो, कहाँ जा रहे हो, क्यों जा रहे हो यह भी पता नहीं, तो भैया! यह तो बताओ कि तुम हो कौन? आप जानते हो उस युवक ने क्या जवाब दिया? युवक बोला- उसका भी पता नहीं। इस तरह का जवाब अगर आपको मिले तो ऐसे आदमी को हम क्या कहेंगे? बताइए! ऐसे आदमी को आप क्या कहेंगे? क्या बोलोगे? आप बोलोगे- पागल है, मुर्ख है। मैं आपसे पूछता हूँ कि थोड़ा खोजो। कहीं वो अपने बीच में तो नहीं बैठा है। हमारे बीच भी नहीं, कहीं वो हमारे अपने भीतर तो नहीं बैठा है। उस पागल व्यक्तित्व को खोजने की जरूरत है।

सच्चाई तो यह है कि जिस व्यक्ति को अपने लक्ष्य का पता नहीं, जिस व्यक्ति को अपने गंतव्य का पता नहीं, जिस व्यक्ति को अपने ध्येय का पता नहीं, जिस व्यक्ति का अपना कोई उद्देश्य नहीं है, उस व्यक्ति का जीवन- ‘जीवन’ नहीं है। हम कितनी भी तेज गति से क्यों ना चले। जब तक हमारा गंतव्य न हो हमारी गति सार्थक नहीं होगी। गति से महत्वपूर्ण गंतव्य है। सही दिशा में अगर हम धीमी गति से भी चले तो अपनी मंजिल को प्राप्त कर लेंगे और गलत दिशा में हम कितनी भी तेजी गति से चलें अपने गंतव्य को कभी हासिल नहीं कर पाएंगे। संत कहते हैं- ‘अपने गंतव्य को पहचानो, अपने जीवन का ध्येय बनाओ’। जीवन जी रहे हैं, जिए जा रहे हैं, जीवन का एक बड़ा भाग का व्यतीत हो चुका है। सवाल यह है कि हम क्यों जी रहे हैं? जी क्यों रहे हैं? बोलो! क्यों जी रहे हैं? जीवन का गोल क्या है? जीवन का लक्ष्य क्या है?

G- गोल (GOAL)
क्या है तुम्हारा गॉल? क्या है तुम्हारा उद्देश्य? क्या है तुम्हारा लक्ष्य? क्या है तुम्हारा मकसद? क्या है तुम्हारा ध्येय? कुछ लोग कहते हैं कि मोक्ष हमारा ध्येय है। पर यह सब फिजूल की बातें हैं। मोक्ष तो अभी पंचमकाल में मिलना नहीं है। मोक्ष की प्राप्ति अगर ध्येय है तो हम यहाँ क्या कर रहे हैं? हम क्या कर रहे हैं यहाँ? सच्चाई तो यह है कि मनुष्य अपने जीवन का बहु भाग बिता चुका पर अब तक यह तय नहीं कर सका कि मुझे क्या करना है? एक दफे मैंने एक युवक से सवाल किया कि भैया! आप क्यों जी रहे हैं? युवक ने जवाब दिया कि अभी हम मरे नहीं है इसलिए जी रहे हैं। जो लोग केवल इसीलिए जी रहे हैं कि अभी मरे नहीं हैं ऐसे लोग जीते हुए भी मरे के समान ही है। ऐसे लोग जीवन के बारे में कुछ नहीं सोच पाए हैं। उन्होंने अपने जीवन में कुछ भी प्राप्त नहीं किया है।

गोल क्या है? क्या है गोल? जीवन का ध्येय क्या है? जीवन का उद्देश्य क्या है? गोल की स्पेलिंग पता है आपको ! GOAL मतलब ‘G- गेट अप (Get Up), O- ओब्टेंन (Obtain), A-एक्चुअल (Actual) और L- लाइफ (Life)’ ‘गेट अप एंड ओब्टेंन एक्चुअल लाइफ’।
जागो! अपने वास्तविक जीवन को प्राप्त करो। यही जीवन का ध्येय होना चाहिए। जागिए!
आप कहेंगे कि महाराज! हम तो जाग ही रहे हैं। मैं कहता हूँ कि आप जाग नहीं रहे हैं, आप सो रहे हैं। जागने वाले और सोने वाले व्यक्ति का लक्षण क्या होता है? क्या आप में से किसी को पता है जागने और सोने में क्या अंतर है? बताइए! कुछ लोग बोलते हैं कि जागते हैं तो सजगता होती है, होश होता है, हम हर चीज को सावधानी से समझते हैं और सोते रहते हैं तो हमें कुछ पता नहीं रहता, बेहोशी में, अचेतन अवस्था में हम होतें हैं। अगर कोई व्यक्ति सो रहा हो और उसको कोई पचास(50) गाली भी बोल कर आ जाए तो उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। अगर वह जगा हुआ हो और उसको इस तरह गाली दी जाए तो वह बात उसे चुभ जाएगी। छोटी-सी बात भी चुभ जाएगी। सोते हुए को कोई पता नहीं है क्योंकि वो तो सो रहा हैं। आप कहेंगे कि महाराज! अच्छा है, हम तो सोते ही रहे। दुनिया में जो कुछ भी घटे उसका हमें पता ना लगे।

संत कहते हैं- ‘काश! अगर तुम बाहर से सो जाते तो दुनिया में जो कुछ भी घटता वह तुम्हें पता नहीं लगता लेकिन तुम तो भीतर से सोए हुए हो’। भीतर जो घट रहा है उसका तुम्हें कोई पता ही नहीं है। तुम्हे अपने जीवन की पहचान नहीं है, अपने जीवन का बोध नहीं है। अपने जीवन का बोध नहीं तो कल्याण कैसे होगा। जागो! निद्रा त्यागो! आप गहन सुषुप्ति में जी रहें हैं। संसार का हर प्राणी गहन सुषुप्ति में जी रहा है। उसे यह पता नहीं कि मैं कौन हूँ,मेरा मकसद क्या है। उसे अपनी सुध-बुध नहीं है। यह एक तंद्रा है। ये सब एक प्रकार का सपना है जिसे वह सच मान कर चल रहा है। नींद रहेगी तब तक सब सपना सच लगेगा। पर वो सपना कभी सच नहीं होगा। दुनिया में जो कुछ भी है सब सपना है। जिसे तुमने अपना मान रखा है वह भी सब सपना है। जब तुम जागोगे तब तुम्हें पता लगेगा कि यहाँ तो अपना कुछ नहीं, सब सपना ही है। लेकिन नींद है कि नींद की स्थिति में कभी अपने का पता नहीं चलता।

दो प्रकार की आत्माएँ हैं- एक प्रसुप्त आत्मा और दूसरी जागृत आत्मा। प्रसुप्त आत्मा वह होती है- जो दुनिया के मोह माया में फँसी है। जाग्रत आत्मा वह है- जो अपने जीवन को समझकर, स्वयं के लिए सक्रिय हो गए हैं, अपने कल्याण के लिए सक्रिय हो गए हैं। तुम देखो, तुम्हारा जीवन केवल गोरखधंधे में उलझा है। अपने कल्याण की कोई ललक नहीं है। यह विचार करने की बात है। अगर हृदय में अपने कल्याण की ललक जगती है तो यह समझना कि हम जागृत आत्मा की श्रेणी में आ गए हैं। अगर मोह माया के प्रपंच में, तू-तेरे या मैं-मेरे के चक्कर में फँसे हैं तो अभी भी हम सो रहे हैं। यही सुषुप्ति हमारे दु:ख का मूल कारण है। अंदर की चेतना एक बार जाग गई तो फिर तुम बाहर की भटकन नहीं टिक सकते। हमें किसी प्रकार का दुःख-द्वंद नहीं होगा। कभी भी तुम्हे दुःख-द्वंद भोगने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ेगा।
संत कहते हैं- ‘अंदर की चेतना को जगाइए, अपने आप को झकझोरिए, आगे बढ़िए’।जागो, निद्रा त्यागो, सो गए तो खो गए, जागोगे तो पाओगे, कब जागोगे? मैं पूछता हूँ कि आप कब जागोगे? लेकिन सब सो रहे हैं। आप लोग कहते हैं-
सोते-सोते ही निकल गई सारी जिंदगी,
बोझा ढोते ही निकल गई सारी जिंदगी।

किसको सुनाते हो यह धुन? भगवान को या किसी और को? भगवान तो सब जानते हैं। भगवान को यह भी पता है कि सब नाटक है। यह सब नाटक है। इनको करना-धरना कुछ नहीं, यह मूर्ख प्राणी है। यह मूर्ख प्राणी सब नाटक करते हैं। संत कहते हैं कि अपने आप को पहचानो। मैं कौन हूँ! मेरा क्या है! मेरा वास्तविक स्वरूप क्या है? मैं क्या नहीं कर रहा हूँ? मुझे क्या नहीं करना चाहिए। यह जान जाओगे तो तुम जाग जाओगे।
मनुष्य की चेतना अगर एक बार जाग जाती है तो मोह-निद्रा उसी पल शांत होती है। उसी क्षण उसके जीवन की दिशा और दशा सब परिवर्तित हो जाती है। मोह-निद्रा टूटनी चाहिए। वह बड़ी प्रगाढ़ है। ऐसे तो लोग रोज सोते हैं। 8-10 घंटे की नींद लेते हैं वो भी सुबह पूरी हो जाती है। नींद खुलते ही आदमी अपने कार्य में जुट जाता है। पर भीतर की नींद इतनी प्रगाढ़ है-इतनी प्रगाढ़ है जो अभी तक खुली ही नहीं है। वह मोह-निद्रा कभी टूटती ही नहीं है। कभी खुलती ही नहीं है। लोग उसी में लीन है। वह मोह-निद्रा टूटनी चाहिए। पर मुश्किल यह है कि लोग नींद में ही अपने आपको जगा हुआ महसूस कर रहे हैं क्योंकि वह लोग ऐसे सपने में जी रहे हैं जो भ्रम को यथार्थ मान बैठे हैं। वह इसी भ्रम को यथार्थ मान कर जीवन जी रहे हैं ओर आगे बढ़ रहे हैं। नींद टूटे तो सपने टूटे। तब जीवन की वास्तविकता का ज्ञान होगा। जिसे अपने जीवन की वास्तविकता का ज्ञान होगा वही अपना कल्याण करने में समर्थ होगा, सक्षम हो सकेगा। अपने आपको जगाना है। जागिए! जाग गए तो जग गया। फिर उसे संसार में कोई नहीं रोक सकता। एक बार चेतना जाग गई तो भ्रमजाल में कोई किसी को फंसा नहीं सकता, निकल गया सो निकल गया।

पहली बात – जागो, गेट अप, अपने आप को जगाइए। आप जब जागेंगे तभी आप अपने वास्तविक जीवन को प्राप्त कर सकेंगे।
सुकुमाल मुनिराज की कहानी हम सबको पता है। सरसों का दाना भी उन्हें चुभा करता था। सुकुमार की चेतना जब जागी तो उन्हें आत्मबोध हुआ। उन्होंने अपने आपको पहचाना। पहचाना क्या! स्यालिनी के दंश भी उन्हें नहीं चुभे। तीन दिन तक स्यालिनी उन्हें लगातार खाती रही। पाँव से लेकर कमर तक खाती रही। लेकिन वह टस से मस नहीं हुए। सवाल इस बात का है कि सुकुमार के अंदर यह शक्ति कहाँ से आई? क्या शरीर बदल गया? क्या सहनन बदल गया? वास्तव में बाहर से कुछ नहीं बदला। बदला तो अंदर से मन बदला। चेतना बदली। चेतना सोई हुई थी जो जाग गई।
शरीर में आत्म-बुद्धि रखने वाले सोए हुए कहलाते हैं। शरीर और आत्मा की भिन्नता को जानने वाले जागृत आत्मा कहलाते हैं। जागिए! आचार्य कुंदकुंद कहते हैं- ‘जब तक तू ‘मैं’ मेरे में लगा है तब तक तू सोया हुआ है’। इसको भोग भी लिया तो ये सब सपना है, एक संयोग है। कर्म का संयोग जब तक है तब तक सब ठीक चलता रहेगा। जब तू इसको भुलायेगा, अपने आप को पहचानेगा, तब तू अपने जीवन की वास्तविकता को और अपने जीवन की वास्तविक स्थिति को प्राप्त कर पाएगा। यह सब ऊपर-ऊपर की जो भी चीजें हैं, इनको आप छोड़िए। अपनी चेतना को जगाइए। गेट अप! जब आप जाग जाओगे तो फिर क्या होगा? असली को पाना है तो नकली को छोड़ना ही होगा। वास्तविक जीवन को प्राप्त करना है तो जो हमने कृत्रिम और मायावी जीवन को अपना रखा है, उसे छोड़ना होगा। एक पल में सब छूट जाता है। जब भीतर से चेतना जाग जाती है तो कहती है- छोड़ो,उसको एक पल में छोड़ो, वह पल में छूटता ही है। उसमें कोई देर नहीं लगती।

दूसरी बात- गिव अप करिए। मतलब, त्याग दो, छोड़ दो। जिसके चेतना जाग जाती है उसे एक पल लगता है सब कुछ छोड़ने में।
भगवान ऋषभदेव को देखिए। 83 लाख पूर्व तक राज-भोग भोगते रहे। अपने जीवन का बहूभाग उन्होंने राजपाट में बिताया और राज-भोग भोगा। 83 लाख पूर्व तक वह उसमें ही रमें रहे। भोग विलास में रमें रहे। रंगरेलियाँ चल रही थी। नीलांजना का नृत्य चल रहा था। सब लोग उसमें मग्न थे। भगवान ऋषभदेव भी उसी में ही खोए हुए थे। जैसे ही नीलांजना की मृत्यु हुई तो उनके अंदर से चेतना जाग गई। अरे! यह तो कुछ और ही है। जिसे मैं अपना जीवन समझ रहा था, वह जीवन तो नश्वर है। यह तो क्षणभंगुर है। क्षण में नष्ट होने वाला है। यह मायाजाल है। यह जीवन! “जीवन” नहीं, यह ‘रास रंग’ है। यह तो लीला है कर्म की जो पल भर के लिए टिकती है और समाप्त हो जाती है। मुझे अब किसी ‘नीलांजना’ की जरूरत नहीं अब तो भीतर की ‘निरंजना’ को सँवारना है। वह जाग गए। पल में सब त्याग दिया। सब देखते ही रह गए। लोगों को समझ में ही नहीं आया कि यह सब क्या हुआ? वो बोले- सब बंद करो यह नाच-गान। अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। अब मुझे इससे कोई सरोकार नहीं। मैंने देख लिया यह जीवन का जो रुप-रंग है यह केवल चकाचौंध है, बाहर का रूप है। यह वास्तविक जीवन नहीं है। अब मुझे अपने-आप की वास्तविकता का बोध हो गया है। मैं उसी वास्तविक जीवन को प्राप्त करना चाहता हूँ। उसके लिए उन्होंने क्या किया? बताइए! भगवान ऋषभदेव ने चेतना जागृत होते ही क्या किया? उन्होंने सब कुछ ‘गिव अप’ कर दिया। सब कुछ त्याग दिया। एक पल नहीं लगा। पल में वो सब से विमुख हो गए। सब देखते ही रह गए। राजपाट, वैभव सब ‘तृण’ के समान लगने लगा। तिनके के समान लगने लगे। तिनके के समान हीं नहीं जीर्ण-शीर्ण तिनके के समान।

लक्ष्मी विभव सर्वस्वं साम्राज्यंसर्व लाक्षणम् जिरत्तृणमिवाभवेत
आपके लिए वो सब तिनके के समान हो गया। तिनका भी कम से कम किसी काम में आता है। पर सड़ा-गला तिनका जो किसी काम का नहीं। मुझे अब वह नहीं चाहिए जिसके पीछे मैं अभी तक पागल बना रहा। अब मुझे वह चाहिए जिसके बाद कोई पागलपन ही ना हो। अभी तक तो मैंने केवल बाहर-बाहर की दौड़ लगाई। अभी तक तो मैंने केवल कृत्रिमता और माया में अपना जीवन बिताया। उन सबसे मैंने क्या पाया? दुख! अशांति! और उद्वेग! इसके अतिरिक्त मैंने और क्या पाया? अब मुझे वह सब कुछ नहीं पाना है। अब मुझे वह पाना है, जिसमें शांति है, प्रसन्नता है, आनंद है, तृप्ति हैं। वह सब पाना है। उसके लिए मुझे अब अपने जीवन की धारा को बदलना होगा।

अपने मन से सवाल करिए। कभी आपके मन में विचार आता है कि मैं गलत ट्रैक पर हूँ। आप में से किसी के मन में कभी ऐसा विचार आता है कि हम गलत ट्रैक पर हैं। कुछ लोग कहते हैं कि महाराज! कभी-कभी आता है? मैं पूछता हूँ- कब? आप कहेंगे की जब तक आपके प्रवचन में रहते हैं तब तक। आपके प्रवचन सुनकर ऐसा लगता है कि हम गलत ट्रैक पर जा रहे हैं। कभी-कभी घर में भी आ जाता है कि हम गलत ट्रैक पर चल रहे हैं। मैं कहता हूँ, ठीक है। अगर घर में भी आता है तो उसके बाद कभी यह भी विचार आता है कि हम अपना रास्ता बदल लें। अपनी दिशा बदल लें। आप लोग क्या कहते हैं? किस तरह से जवाब देते हैं? हाँ महाराज! आता तो है, पर आपको क्या बताऊं? जब घर-परिवार के लोगों को देखता हूँ तो लगता है, चलो अभी यही ठीक है। यही सब ठीक है। इस तरह की भावना के कारण ही आप जहाँ के तहाँ अटके हो। अपनी दुर्गति कराते रहने के बाद भी आप अपने जीवन में बदलाव घटित नहीं करते हैं। वह बदलाव घटित करिए। जिसकी चेतना एक बार जाग जाती है, उसे अपने आप को बदलने में एक पल नहीं लगता और जिस की चेतना सुप्त होती है वो सारी जिंदगी खपा देने के बाद भी वह जहाँ के तहाँ ही रहते हैं।

अंजन चोर को बदलने में कितनी देर लगी? कितनी देर लगी? एक पल की। उसकी बैक हिस्ट्री देखेंगे तो महान काली। लेकिन बदला तो ऐसा बदला कि फिर मुड़ कर ही नहीं देखा। अपने आप को बदलने की कोशिश हमारी होनी चाहिए और उसके तरफ ही हमारी दृष्टि होनी चाहिए। जागें! अपने आप को जगाइए। निद्रा त्यागो! मोह निद्रा को त्यागे! जैसे ही मोंह की निद्रा टूटती है जीवन का सारा क्रम बदल जाता है। बाकि सब सपना है। सपना तो सपना है। सपने में जीने वाले का कोई मजा नहीं हैं। जो जागृत होता है उसके सिवा मजा के और कुछ नहीं।

एक कहानी है। तीन मित्र थे। तीनों मित्रों ने एक पिकनिक का प्रोग्राम बनाया। वहाँ तीनों ने खीर बनाई और खीर खाई। तीनों मित्रों के भरपेट खाने के बाद भी एक कटोरा खीर बची। तीनो ने सोचा कि इस एक कटोरा खीर का क्या होगा? तीनों ने तय किया कि अभी तो सब सो जाते हैं। रात्रि में जिसका सपना सबसे अच्छा सपना होगा वह ही खीर खाएगा। ऐसा तय करके तीनों के तीनो सो गए। बीच रात्रि में एक मित्र उठा। उसने चुपचाप खीर खाई और फिर से सो गया। फिर सुबह हुई। तीनों ने अपना-अपना सपना बताया। आपस में चर्चा हुई कि किसने क्या सपना देखा था, ताकि खीर खाई जाए। पहले ने बोला- मैं क्या बताऊँ, मैंने बड़ा अद्भुत सपना देखा। दोनों मित्र बोले- बताइए, क्या हुआ? पहला मित्र बोला- मेरे सपने में रामचंद्र जी आए। मैं अयोध्या में था। उस समय रामचंद्र जी का वनवास चल रहा था। रामचंद्र जी तो वन के लिए चले गए और भरत को राजगद्दी पर बैठाया गया। तब भरत गद्दी पर बैठे नहीं तो मुझे ही गद्दी पर बिठा दिया गया। मेरा राजतिलक हुआ और मैं अयोध्या का राजा बन गया। दोनों मित्रों ने उसकी बात मानी और बहुत प्रशंसा की। दूसरे मित्र से पूछा गया कि तुमने क्या देखा? दूसरा मित्र बोला- मुझे भगवान महावीर दिखे। मैं भगवान महावीर के समवशरण में बैठ गया। अद्भुत आनंद आया। उनकी पूरी दिव्य ध्वनि का लाभ लिया। बाकी दोनों मित्रों ने सहमति जताई, बहुत अच्छा है। तीसरे मित्र से पूछा गया कि तुमने कैसा सपना देखा? वह मुँह लटकाए खड़ा हुआ था। दोनों मित्र बोले क्या बात है? तुम ऐसे क्यों मुँह लटकाए हो? ऐसे क्यों दुःखी हो? तीसरा मित्र बोला सपना तो तुम लोगों का मुझसे बहुत अच्छा है। पर, मैं क्या करता? मैं लाचार था। सपना तो तुम दोनों मित्रों का बहुत अच्छा है। पर मैं क्या करता? मैं लाचार था? वह बोला- मैं लाचार था। मैंने खीर खा ली। दोनों मित्र बोले- यह क्या? तुमने खीर खा ली। क्यों खाई, कैसे खाई? तीसरा मित्र बोला- मैं क्या बताऊँ? मेरा सपना ही कुछ ऐसा था। दोनों मित्र बोले- क्या हुआ? वो बोला- रात्रि को सपने में हनुमान जी आए। हनुमान जी ने आते ही मुझे गदा मारी। उन्होंने मुझे कहा- सपना-वपना कुछ नहीं, खीर खा, नहीं तो मैं तेरा कचूमर निकाल दूँगा। मजबूरी थी, मुझे स्वप्न में खीर खानी पड़ी। तो दोनों साथियों ने कहा- अरे भैया! हनुमान जी अगर सच में आए थे तो तू हमें भी जगा देता। हम भी उनके दर्शन कर लेते। तीसरा मित्र बोला- मैंने सोचा तो था कि तुम्हें जगा दूँ। पर तुम मैं से एक तो अयोध्या गया था और दूसरा महावीर भगवान के समवशरण में गया हुआ था। मैं क्या करता? जो सोया है वो सपने में वहीं खोया है। वह वहीं का वहीं ही है। मजा खीर का लेना है तो जागिए ! ‘गेट अप ओब्टेंन एक्चुअल लाइफ’। सही जीवन को प्राप्त करो। सही जीवन का रस प्राप्त करो।

अपने वर्तमान जीवन को टटोल कर देखो। तुम्हारे जीवन में कितना मजा है? कितना रस है तुम्हारे जीवन में? कितना आनंद है तुम्हारे जीवन में ? कितनी शांति है तुम्हारे जीवन में? है कुछ या कुछ भी नहीं। तुम कहोगे कि महाराज! है ही नहीं कुछ! मैं आपसे पूछता हूँ कि ऐसा सब क्यों नहीं है? क्योंकि तुमने माया को गले लगा लिया है। प्रपंच में अपने आप को उलझा लिया है। पूरा जीवन कृत्रिमता और जटिलता से भरा हुआ है। जीवन की स्वाभाविकता और नैसर्गिकता कहीं नष्ट-भ्रष्ट हो गई। ऐसी स्थिति में अपने जीवन का वास्तविक आनंद कैसे ले सकोगे? अभी तुमने सपने को ही सच मान रखा है। चलो, जो है, ठीक है, चल रहा है जो चल रहा है। सब बढ़िया है, बढ़िया है, बढ़िया है, बहुत ही सुंदर है।
संत कहते हैं- कोई मतलब नहीं है ऐसे जीवन से। जाग जाओगे तो सारा दुःख भाग जाएगा। जीवन की दिशा बदल जाएगी। सोच परिवर्तित हो जाएगी। अभी जो कुछ हो उससे कुछ और ही हो जाओगे। अपनी आत्मा को जगाने की जरूरत है। हमारे अंदर की चेतना जब जाग जाती है तो हमारे जीवन की धारा में ऐसा ही परिवर्तन घटित होता है। उस चेतना को जगाइए। गेट अप फिर गिव अप। आप कहेंगे महाराज जी ! अभी हमारी गिवअप करने की स्थिति नहीं है। इसलिए यह प्रमाण है कि अभी आप जागे नहीं हैं।

आप अधूरे नहीं, आप अभागे नहीं,
बात केवल इतनी सी है कि आप अभी जागे नहीं।
जाग जाओगे तो सब कुछ पा जाओगे। जागो! पहली बात अपने जीवन की धारा को बदलो। कब तक सोओगे? अपनी चेतना से पूछो यह सब कब तक चलता रहेगा? अरे नहीं, चलने दो, तो बदलेगा कब? होश में आइए, सावधान हो जाइए। जीवन की दिशा और दशा को परिवर्तित करने के लिए संकल्पित हो जाइए। ऐसी जागरूकता अगर एक बार घट जाए तो फिर एक पल भी नहीं लगेगा।

बड़ी पुरानी कथा है। एक पति-पत्नी थे। पत्नी अपने पति को स्नान करा रही थी। अचानक पति की पीठ पर आँसू का गरम बूँद पड़ा। पति ने नजर उठाकर ऊपर की और देखा। देखता क्या है, मेरी पत्नी की आँखों में आँसू है। उससे बड़ा दुःख हुआ। आश्चर्य हुआ, क्या बात है? क्या हुआ? पत्नी से पूछता है कि इस समय तेरी आँखों में आँसू कैसे आए? तुम्हारी आँखों में आँसू कैसे आ गए? पत्नी बोली- बस ऐसे ही भैया की याद आ गई। पति पूछता है क्या बात है? इसमें रोने की क्या बात है? पत्नी बोली- भैया ने दीक्षा लेने का विचार बनाया है? पति बोला- अच्छा! दीक्षा लेने का विचार बनाया है। अभी केवल विचार ही बनाया है, दीक्षा थोड़ी ली है। कब लेगा? कौन लेगा? कहाँ लेगा? कौन जानता है? दीक्षा लेगा भी या नहीं, ये भी पता नहीं है? विचार बनाने वाले लोग तो विचार बनाकर ही रह जाते हैं। सब लोग दीक्षा नहीं ले पाते हैं। दीक्षा जब लेगा तब लेगा। तू अभी क्यों रो रही है? पति की बात सुनकर पत्नी को बुरा लगा। भैया ने दीक्षा लेने का विचार बनाया और सामने वाले ने कह दिया कि अभी तो केवल विचार ही बनाया है। पत्नी को बुरा लगा तो उसने अपने पति से बोला- आपको पता नहीं है। मेरे भैया अपने वचनों के पक्के हैं। उन्होंने निर्णय ले लिया तो इसका मतलब है कि निर्णय ले ही लिया। पति बोला निर्णय ही लिया है, अभी दीक्षा थोड़ी ही ले रहा है। जब लेना होगा तो ले लेंगे। तू चिंता मत कर। ऐसे कोई दीक्षा नहीं लेता। पत्नी बोली- नहीं-नहीं, ऐसी बात नहीं है। प्रवचन सुनने आप भी तो गए थे। लेकिन आपको तो इतना भी फर्क नहीं पड़ा। भैया का कहना है जीवन का कोई भरोसा नहीं है। अब तो मुझे निकलना है, निकलना है, निकलना है। यह मायाजाल छोड़ना है।
पत्नी ने जैसे ही कहा कि आप भी तो गए थे प्रवचन में, आपको तो इतना भी फर्क नहीं पड़ा। पति एकदम उठ कर खड़ा हो गया। पत्नी सकपका गई। पति बाहर को निकलने लगा तो पत्नी ने बोला कहाँ निकले जा रहे हैं? पति बोला- वहीं जा रहा हूँ जहाँ की बात चल रही थी। वहीं जा रहा हूँ, जहाँ की बात चल रही थी, पत्नी बोली- कैसी बात चल रही थी? कहाँ की बात चल रही थी? पत्नी बोली- जहाँ भी जा रहे हो कम से कम कपड़े तो पहन कर जाओ? पति बोला- कपड़े भी पहनने की जरूरत नहीं है। मुझे अब निर्वस्त्र होना है। दिगंबर मुनि बनना है। पत्नी ने पूछा- क्या बात हो गई? मैं तो मजाक कर रही थी? पति बोला- यह मजाक नहीं, अब मजाक खत्म हो गया। अब हकीकत है। पति बोला- मैं कह रहा था जो विचार करता है वह कुछ नहीं कर पाता है। लेकिन अंदर ही अंदर मेरे मन में भी विचार जग रहा था। क्या पता कब मेरे जीवन की आखिरी साँस पूरी हो जाए? फिर मेरे लिए क्या बचेगा? मैं उसको उपदेश दे रहा हूँ कि विचार करने वाला विचारता ही रहता है और विचार करके, करने वाला कर गुजरता है। मैंने सोचा, सच में मुझे विचार करने वालों की श्रेणी में नहीं रहना। विचार करके, कर गुजरने वालों की श्रेणी में रहना है। मुझे उन लोगों में अपना स्थान बनाना है और वह आगे बढ़ गया।

गेट अप हुआ और गिव अप हो गया। सब कुछ उसी पल त्याग दिया। अपनी साधना के बदौलत अपने जीवन का कल्याण कर लिया। आप अपने मन को देखो। थोड़ा सा भी जीवन में बदलाव करने की इच्छा नहीं होती। इच्छा होती भी है तो भी पुराने संस्कार हावी होते हैं। कहते हैं इसी ढर्रे पर चलना है। क्या यह तुम्हारे सोए हुए का उदाहरण नहीं है? वास्तविक जीवन का आनंद कैसे ले पाओगे? वास्तविक जीवन को उपलब्ध कैसे कर पाओगे?
तो ‘गेट अप एंड ओब्टेंन एक्चुअल लाइफ’
अपने जीवन की वास्तविकता को प्राप्त करो। सब मोह-माया को त्यागोगे, अपनी दृष्टि को मोड़ोगे तब उसे प्राप्त कर पाओगे। अगर उसी प्रपंच में फंसे रहोगे तो कुछ भी नहीं हो पाएगा। आपके जीवन का गोल क्या है? पैसा कमाना, प्रतिष्ठा पाना, पावर पाना, क्या है तुम्हारे जीवन का गोल? तुमने किसको अपना ध्येय बनाया है? अगर तुमने इन चीजों को अपना ध्येय बनाया है तो इसी संसार में उलझते रह जाओगे। तुम्हारे जीवन का ध्येय- सुख, शांति, प्रसन्नता और आनंद को पाना है। अपने जीवन की दिशा को बदलो और अपने भीतर एक आध्यात्मिक उत्क्रांति को जागृत करो। चिंतन की दिशा को बदलिए। अपने डायरेक्शन को बदल डालिए। नहीं-नहीं, इनमें कुछ सार नहीं, जागिए, निद्रा त्यागो, आगे बढ़िए। तब जीवन का वास्तविक आनंद होगा।

इसे अगर दूसरी तरह से आपको बताऊँ तो हर कोई पाना चाहता है। गेट का मतलब- पाना और गिव का मतलब- छोड़ना। तो अगर जाग जाओगे तो सब त्याग दोगे। पूरा नहीं त्याग कर सकते तो जो पाया है उसका कुछ अंश त्याग करना शुरू करो। गेट अगर है तो गिव भी होना चाहिए। अपने जीवन को आगे बढ़ाइए। इसमें ही हमारे जीवन का मूल सार-तत्व प्राप्त होगा।

हमारा गोल क्या है? क्या है हमारा गोल?
महान सम्राट सिकंदर जब विश्वविजय के अभियान में लगा तो उसकी मुलाकात एक संत से हुई। संत को बताया गया कि महान सिकंदर, विश्व विजेता, इतना बड़ा राजा, इतना बड़ा बादशाह, लाव-लश्कर सब उसके आगे पीछे था। सिकंदर जब संत के पास पहुँचा तो संत ने पूछा कि तुम क्या कर रहे हो? सिकंदर बोला- मैं अभी यूनान से निकला हूँ। हिंदुस्तान को जीता है। फिर तुर्किस्तान को जीतूँगा। उसके बाद कज़ाख़िस्तान को जीतूँगा। इस देश को जीतूँगा। उस देश को जीतूँगा। संत ने पूछा फिर उसके बाद तुम क्या करोगे? सिकंदर बोला कि इसके बाद में दुनिया के अन्य मुल्कों को भी जीतूँगा। संत ने बोला- सबको जीतने के बाद, सारे देशों पर विजय करने के बाद, क्या करोगे? सिकंदर बोला- यूनान जाऊँगा और आनंद से रहूँगा। संत मुस्कुराए, बोले- भाई! जब तुम्हें यूनान जाकर आनंद से ही रहना है तो इतनी सारी मशक्कत करने की क्या जरूरत है? क्या तुम्हारे यूनान में आज आनंद की कमी है? उद्देश्य क्या है तेरा? संत फिर पूछता है- हे सिकंदर! तुम्हारा उद्देश्य क्या है? आनंद से रहना या सब पर हुकूमत जमाना। ध्यान रखना! दूसरों के ऊपर हुकुमत जमाने वाला कभी आनंद से नहीं रह पाता। खुद पर हुकूमत जमाने वाले, खुद पर साम्राज्य करने वाले व्यक्ति के आनंद में कभी खलल नहीं आता।

अपने जीवन को आनंद से सराबोर करना चाहते हैं तो जहाँ हो वहाँ ही ठहरो। तो आपका गोल क्या है? गोल, गेट अप, गिव अप। अगर गिव अप हो गया तो सारी जिंदगी ग्लैड रहोगे। ग्लैड का मतलब खुश रहना, प्रसन्न रहना।
क्या आप खुश-प्रसन्न रहना चाहते हो? आप लोग कहते हैं कि महाराज! हम खुश रहना चाहते हैं, पर आप ऐसा रास्ता बता दो कि हम जहाँ हैं, वहाँ ही रहें और ग्लैड रहें। महाराज जी! आप कुछ भी छोड़ने की बात मत करिए। जहाँ हैं, जैसे हैं, उसी में ग्लैड रहें। हमारी इतनी क्षमता कहाँ कि हम आपके जैसे संत बने। घर-परिवार तो हम छोड़ नहीं सकते क्योंकि अपने ही द्वारा तैयार किया गया यह जंजाल है। महाराज जी! यह तो संभव नहीं है। आप तो ऐसा रास्ता बताइए कि हम जैसे हैं, वैसे ही रहें पर ग्लैड रहें। मैं कहता हूँ – ठीक है, आपको वह भी रास्ता बता देता हूँ। वह फार्मूला भी आपको दे देता हूँ।

ग्लैड रहना चाहते हो, जीवनभर ग्लैड रहना चाहते हो तो ग्लैड की स्पेलिंग ‘GLAD’ का पहला शब्द जी(G) पहला सूत्र।
जी(G)- जीवन को एक गेम की तरह जियो।
जीवन को एक गेम समझो। हमारा जीवन एक खेल है। खेल कब और किस तरह खेला जाता है? खेल का मजा कब होता है? जब खेल को ‘खेल’ की भावना से खेला जाता हैं। खेल में क्या होता है? एक की जीत होती है और एक की हार होती है। कोई जीतता है तो कोई हारता है। खेल खेलने वाला खिलाड़ी जीतने में भी वही खिलाड़ी होता है और हारने में भी वही खिलाड़ी होता है। जीतने की हर तरह से कोशिश करता है। अगर हार भी जाए तो कुछ नहीं कहता क्योंकि खिलाड़ी को मालूम है खेल खेलेंगे तो एक की हार होगी और एक की जीत होगी। कभी जीतेंगे तो कभी हार भी होगी। जीत और हार के बीच इस पूरे खेल में मजा कब आता है। जब खेल के सारे रूल्स-रेगुलेशन को फॉलो किया जाता है। उसके नियमों का अनुपालन किया जाता है, तब खेल का मजा आता है। अगर नियमों को ताक पर रख दें तो सारे खेल का मजा उसी पल खत्म हो जाता है। खेल का मजा समाप्त। खेल का मजा ही तब है, जब वह नियमों में बँधा है।

एक उदाहरण है। एक बार एक परिवार आया। उनके साथ उनका 22 साल का जवान बेटा भी था। बेटा MBA कर रहा था। माताजी-पिताजी ने कहा- महाराज जी! इसे कुछ नियम दीजिए। मैंने उसकी तरफ देखा। बेटा बोला- महाराज जी! मैं नियम-नियम कुछ नहीं जानता। मैं कोई नियम नहीं लेना चाहता हूँ। मैंने कहा- मैं तुम्हें कोई नियम लेने की बात भी नहीं कह रहा हूँ। बेटा बोला- मेरा नियमों में कोई विश्वास नहीं है। मैंने बोला- अच्छा! नियमों में बिल्कुल विश्वास नहीं है तो कोई बात नहीं। मैंने पूछा- क्या तुम ‘खेल’ खेलना जानते हो? खेलों में विश्वास है? बेटा बोला- हाँ! मैं खेल खेलना जानता हूँ। मैं क्रिकेट खेलता हूँ। मैंने पूछा- क्रिकेट में क्या करते हो? बैटिंग करते हो या बॉलिंग करते हो? बेटा बोला- मैं बैटिंग करता हूँ। मैंने पूछा बैटिंग करते हो तो, कैसे और क्या करते हो? बैट को कहीं पर भी ले जाकर बॉल को मारते हो। पूरे मैदान में घूम-घूम कर मारते हो या एक स्थान पर खड़े होकर खेलते हो? बेटा बोला- नहीं महाराज जी! इस तरह से बैटिंग नहीं की जाती है। बैटिंग करने का एक नियम है कि हमें अपनी क्रीज पर ही रहकर बैटिंग करना हैं। मैंने पूछा- तुम क्रीज पर ही क्यों रहते हो? क्रीज ही क्यों चुनी? वहीं से बैटिंग क्यों करते हो? बेटा बोला- अगर हम क्रीज छोड़ देंगे तो आउट हो जाएंगे। बैट्समैन को चाहिए कि वह नियम फॉलो करें। वह क्रीज पर ही बना रहे। वह बैट को लिए चाहे-जहाँ पूरे मैदान में नहीं दौड़ सकता। उसे अपनी क्रीज पर ही रहकर ही बैटिंग करनी पड़ती है। मैंने पूछा- क्या तुम कभी क्रीज नहीं छोड़ते? बेटा बोला- नहीं! मैं क्रीज पर ही रहता हूँ। मैंने फिर पूछा- क्या कभी क्रीज छोड़ने की इच्छा होती है या इच्छा नहीं हो तो भी क्रीज छोड़ते हो? बेटा बोला-महाराज जी! इच्छा कैसे होगी? मुझे आउट थोड़े ही होना है? अगर क्रीज छोड़ भी दूँगा तो मैं आउट हो जाऊँगा। मुझे आउट होने का डर है इसलिए मैं क्रीज नहीं छोड़ता और कभी इच्छा भी नहीं होती। अगर क्रीज छोड़ भी देंगे तो खेल का मजा ही खत्म हो जाएगा। हम क्रीज पर ही रहते हैं।

फिर मैंने दूसरा प्रश्न पूछा- तुम्हारा बॉलर! वह कैसे बॉल करता है? वह कहीं से भी बॉल कर सकता है क्या? बेटा बोला- नहीं! उसे भी लाइन फॉलो करना पड़ता है। वहाँ जो लाइन है, पॉइंट है, वहीँ से बॉल फेंकनी पड़ती है। उसमें अगर वह एक कदम भी आगे हो जाए तो वह बॉल नो-बॉल कहलाती है। मामला गड़बड़ हो जाता है। उसका भी मजा तभी है जब वह लाइन से, अपने पॉइंट पर खड़े होकर बॉलिंग करता है। मैंने तीसरा प्रश्न किया- सारे फिल्डर क्या करते हैं? बेटा बोला- उन्हें कहीं भी दौड़ने की आजादी है पर उनकी भी एक बाउंड्री, एक सीमा है। वह बाउंड्री-सीमा के भीतर ही कहीं भी दौड़ सकता है, सीमा को पार नहीं कर सकता। उन्हें बाउंड्री से बाहर नहीं जाने दिया जाता। और तो और कुछ गड़बड़ हो जाए या दुर्व्यवहार हो जाए तो वहाँ एक एंपायर होता है, वही सारा निर्णय लेता है। एंपायर ही सही-गलत का निर्णय करता है। किसने चौका लगाया, किसने छक्का लगाया, किसने नो-बॉल फेंकी, किसने आउट किया, कौन आउट हुआ? कोई गलत हो जाए तो उसकी पेनल्टी भी भरनी होती है। यह सारा निर्णय एम्पायर ही करता है।

हमने कहा- अच्छा! उससे फिर से पुछा कि क्रिकेट का मजा कब आता है? वो बोला- क्रिकेट का मजा तब आता है जब इन सारे नियमों को फॉलो किया जाता है। हमने कहा- हम भी तुमसे यही कह रहे हैं कि क्रिकेट का मजा तब आता है जब तुम उनके नियमों का पालन करते हो और जीवन का असली मजा तब आता है जब तुम जीवन के नियमों का पालन करोगे। जिस तरह खेल खेलते समय तुम्हें नियमों के पालन करने में दिलचस्पी है उसी तरह जिस दिन तुम्हे जीवन के नियमों के पालन का मन बन जाएगा तो तुम अपने जीवन को एक खेल की तरह एंजॉय करोगे। एक गेम की तरह इंजॉय करने में समर्थ हो जाओगे। खेल खेलिए। कभी लगता है हमारा जीवन एक खेल है। जीवन को एक खेल की तरह खेलो। जहाँ-जहाँ जो-जो जिम्मेदारी है उसे जिम्मेदारी की तरह निभाओ। अपने नियमों का उल्लंघन नहीं करो। अपनी सीमा को कभी नहीं तोड़ो। सीमा से बाहर मत जाओ। बाउंड्री के भीतर रहकर, बाउंड्री के ऊपर रहकर अपना काम करो। जीवन में आगे बढ़ जाओ तब ही जीवन का मजा है।
अगर आप हरपल ग्लैड रहना चाहते हो तो क्या करो? लाइफ को एक गेम की तरह जियो। खेलो, जीवन एक गेम है। जीवन एक गेम है। हमें इसका रस लेना है। इसका आनंद लेना है। उनके बेटे को यह बात समझ में आई। मैंने पूछा- बोलो! अब क्या कहते हो? क्या तुम नियम लेना चाहते हो? बेटा बोला- महाराज जी! मुझे अब समझ में आ गया कि नियम क्या है? हमने कहा हर मनुष्य को अपने जीवन की एक सीमा सुनिश्चित करनी चाहिए। अगर वह अपनी मर्यादाओं में बंध कर जीवन जीएगा तो जीवन भर आनंद लेगा। उसका उल्लंघन कर देगा तो वह कहीं का नहीं रहेगा।
हम आपसे इतना ही कहना चाहते हैं कि जीवन में उतार हो या चढ़ाव हो, जीत हो या हार हो, यश हो या अपयश हो, मान हो या अपमान हो, हार-जीत, कुछ भी हो, जीवन इस तरह से जियो। बंधुओं! जीवन को खेल की तरह देखने वालों की क्या स्थिति होती है? उसके जीवन का क्या मजा होता है? एक उदाहरण है। लोग अपने जीवन को किस तरह जीते हैं।

एक स्कूल में जिले स्तर पर एथलीट की, 400 मीटर दौड़ की प्रतियोगिता थी। उसमें कई तरह के प्रतियोगियों ने भाग लिया। उसमें एक ऐसे प्रतियोगी ने भाग लिया जिसने कई गोल्ड मेडल पाए थे। अन्य सब लोगो ने यह घोषित कर दिया था कि अगर इस दौड़ में उसने भागीदारी की तो इसे ही अवार्ड मिलेगा। इस दौड़ का यह ही विजेता होगा क्योंकि वह नेशनल लेवल का प्रतियोगी था। इसके आगे कोई ओर लग ही नहीं सकता। सारे लोग दौड़ देखने वहाँ पहुँचे, दौड़ भी पूरी हुई। लेकिन वह युवक जो नेशनल लेवल का प्लेयर था वह 15 सेकंड की दूरी से पीछे रह गया। कोई अन्य युवक विजेता चुना गया। उसे ₹ 5,00,000/- का पुरस्कार/अवार्ड भी मिला। लोग दूसरे की सराहना करने लगे। यह देखो, यह विजय हुआ, यह जीत गया। इसने आज उस नेशनल लेवल के प्लेयर को हरा दिया जिसने बड़े-बड़े अवार्ड पाए, बड़े-बड़े खेलों में सफलता प्राप्त की। यह युवक आज जीत गया। इसने उस युवक को हरा दिया। पर जैसे ही वह दौड़ जीता दूसरे युवक ने कहा- यह खेल भले ही मैंने जीता हो पर यह दौड़ मेरे साथी ने मुझे जिताई है। यह दौड़ मैंने अपने प्रयास से नहीं जीती है। सब लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि क्या मामला है? दौड़ को किसने जीता है? दौड़ तो इसने जीती है फिर भी यह कह रहा है कि दौड़ मैंने नहीं जीती। मेरे साथी ने मुझे जिताया है।

वह युवक बोला- बात ऐसी है। मेरी माँ को कैंसर हो गया है। उसके इलाज के लिए मुझे ₹ 4,00,000/- की जरूरत थी। एक सप्ताह पहले तक मेरे पास कोई व्यवस्था नहीं थी। एक सप्ताह पहले मैं इस भाई से मिला और विनती की। भाई! अगर तुम यह प्रतियोगिता जीत जाओगे तो एक मेडल और पा जाओगे। तुम्हारे इतने मेडल में एक और मेडल जुड़ जाएगा। और अगर मैं जीत जाऊँगा तो उससे मेरी जिंदगी बदल जाएगी। उस पुरुस्कार की राशि से मेरी माँ का इलाज हो जाएगा। अब तुम्हें यह देखना है कि तुम्हें क्या करना है? यह सक्षम तो था जीतने में! पर जानबूझकर अपने आप को धीमा कर दिया और मुझे जीता दिया। यह अवार्ड भले ही मुझे मिल गया, यह प्रतियोगिता भले ही मैं जीता हूँ पर जीवन की जंग को तो उसी ने जीता है जिसने ऐसी उदारता को प्रकट किया है।

बंधुओं ! यह बात समझने की है कि खेल क्या होता है? खेल एक ‘खेल’ है। जिसमें जीती हुई बाजी को भी हारने की मानसिकता बन सकती है यदि उसमें किसी का भला हो तो। बंधुओं! आप क्या करें? जीवन को एक गेम की भाँति जीओ, एंजॉय करो।
फिर ग्लैड का L- लाफिंग नेचर रखो हमेशा हँसते-मुस्कुराते रहो। ग्लैड रहना चाहते हो तो हँसो- हँसाओ, खिलो-खेलो, मुस्कुराओ। रोता चेहरा कभी मत रखो।

मुझसे लोग कहते हैं- महाराज जी! आप इतना कैसे मुस्कुराते रहते हो। मैंने कहा- क्यों भाई? क्या बात है? मैं रोना शुरु कर दूँ? क्या तुम्हें मेरा रोता हुआ चेहरा अच्छा लगता है। जीवन का एक सूत्र है- ‘खुश रहो और खुश रखो’ तुम खुद खुश रहोगे तभी औरों को खुश रख पाओगे। खिन्न मत रहो, हिम्मत रखो। अपने आप हर पल मुस्कुराओ। कोई भी हो बस सब ठीक है। कैसी भी बात हो जाए हँसकर टालने का अभ्यास करो। जिस मनुष्य के जीवन में यह क्षमता आ जाए तो वह व्यक्ति कभी दुःखी नहीं हो सकता। मैं आपसे पूछता हूँ कि क्या आप अपने साथ घटित प्रसंगों को हँसकर टाल सकते हैं? या हँसकर टालने की क्षमता रखते हो। आप कहेंगे- महाराज जी! दूसरों के साथ तो हँस लेते हैं पर अपने ऊपर कुछ आए तो हँसकर टालने की स्थिति नहीं बनती है। किसी ओर की हँसी उड़ा देते हैं। किसी ओर के साथ हँस लेते हैं। किसी पर हँस भी लेते हैं, लेकिन खुद के ऊपर कुछ हो तो हँसकर टालने की क्षमता हमारे अंदर नहीं है। पल में खिन्न हो जाते हैं। बोलो! ऐसा ही होता है।

एक व्यक्ति भी तुम्हारी कोई टिप्पणी करें, कोई आरोप लगाए तो उसके बाद क्या होता है? आप क्या करते हैं? उसको हँसकर टालते हो या क्या करते हैं आप? आप कहते हैं- महाराज! हम हँसकर टालना नहीं जानते। हम तो प्रतिक्रिया करके सामने वाले को रुलाने का माद्दा जरूर रखते हैं। हम भी रोएंगे और दूसरों को भी रुलाएंगे। एकदम चढ़ जाएँगे। तो यह बताओ हँसते-हँसाते समय आप ग्लैड रहते हो या रोते-रुलाते समय। कैसे समय में आप ग्लैड रहते हो? आप कहेंगे कि महाराज ! हम हँसते-हँसाते समय ग्लैड रहते हैं। तो मैं कहता हूँ कि अगर हँसते-हँसाते समय आप ग्लैड रहते हैं या ग्लैड रहना चाहते हो तो हमेशा हँसो और हँसाओ। हँसो और हँसाओ! मुस्कुराते रहो! आनंद में रहो।

एक उदाहरण है। एक व्यक्ति था। उसके एक ही बेटा, इकलौता बेटा था। उस बेटे की ट्रक एक्सीडेंट में मृत्यु हो गई। 22 साल का युवक मारा गया। उसकी अंत्येष्टि की तैयारी की जा रही थी पर वह व्यक्ति मुस्कुरा रहा था। उस व्यक्ति की मुस्कुराहट को देखकर अन्य लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। लोग बोले- तुम ऐसे क्यों मुस्कुरा रहे हो? तुम ऐसे आनंद में मग्न क्यों हो? वह व्यक्ति बोला- मुस्कुराऊँ नहीं तो क्या करूँ? बेटा मर गया तो मर गया। लोग बोले- बेटा मर गया। अब तो तुम थोड़ा बहुत रोओ। वह व्यक्ति बोला- मैं क्यों रोऊँ? वह व्यक्ति फिर बोला- मैं क्यों रोऊँ? मैंने एक ही चीज को समझा है- ना बेटा शाश्वत है, ना मैं शाश्वत हूँ, ना मेरा परिवार शाश्वत है, ना मेरे परिजन शाश्वत है, ना मेरा वैभव शाश्वत है, ना ही मेरी संपत्ति शाश्वत है। सब कुछ मिट जाने वाला है, एक दिन यह सब कुछ मिटने वाला है। अगर कुछ बचने वाला है, कुछ स्थिर है तो मेरे अंदर की मुस्कुराहट है, मेरी प्रसन्नता है। मैं उसे क्यों खोऊँ? बेटा चला गया तो चला गया। मैं अपनी प्रसन्नता को नहीं खोऊँगा क्योंकि मुझे पता है मेरे रोने से बेटा लौटकर नहीं आएगा।
मैं आपसे पूछता हूँ जिस व्यक्ति के अंदर यह क्षमता आ जाए तो क्या वह जीवन में कभी दुःखी रहेगा? ऐसा व्यक्ति सदाबहार प्रसन्न बना रहेगा, हँसकर टालने का अभ्यास करो। जिस मनुष्य के जीवन में यह क्षमता आ जाए वह व्यक्ति कभी दुःखी नहीं हो सकता। मैं आप से कहता हूँ कि बेटे की मृत्यु पर मत मुस्कुराना। बेटा मरे तो मत मुस्कुराओ, कोई बात नहीं ! पर बेटा यदि तुम से बेवफाई कर जाए तो कम से कम उसे तो मुस्कुराकर झेल लेना। उसको बर्दाश्त कर लेना। जीवन में कुछ ऊंचे-नीचे प्रसंग आ जाए तो उस घड़ी में भी अपनी समता को, सहजता को कायम रखना। उसे तो हल्केपन से लो। मुस्कुराकर टालने के आदि और अभ्यासी बनिए।

एक प्रसंग है। हम लोग गुरुदेव के साथ विहार कर रहे थे। समाज के कई लोग भी हमारे साथ थे। एक गाँव से जब हम निकले तो वहाँ के कुछ लोग, कुछ बच्चे, कुछ नासमझ लोग हमें लुच्चा और नंगा कहने लगे। समाज के लोग तुरंत उन लोगों को चुप कराने के लिए उनकी तरह दौड़े तो गुरुदेव ने कहा – रुको! यह गलत थोड़े ही कह रहे हैं। क्यों तुम इनके पीछे भाग रहे हो? समाज के लोग बोले- नहीं महाराज जी! ये आपसे अपशब्द बोल रहे हैं। गुरुदेव बोले- नहीं! यह गलत कहाँ कह रहे हैं। मैं ‘नग्न’ हूँ इसलिए मुझे नंगा कह रहे हैं और मैं ‘लौंच’ करता हूँ इसलिए मुझे लुच्चा कह रहे हैं। यह लोग गलत नहीं कह रहे हैं। यह तो सही कह रहे हैं। नंगा भी कह रहें हैं और लुच्चा भी कह रहें हैं। जो सही है हम उसे स्वीकार करें। हम उसका प्रतिकार ना करें। यह है मुस्कुराकर टालने की बात।

अब आप बताइए- कोई तुम्हें ऐसा कह दे तो ऐसा हो सकता है क्या। आप कहेंगे- महाराज! कठिन है, आप लोग क्या करते हैं फिर आप लोग ग्लैड नहीं, आप लोग सैड(sad) हो जाते हैं। सैड बनना है या ग्लैड बनना है? अगर ग्लैड बनना है तो उसका यह फार्मूला है- ‘सामने वाला मेरे विरुद्ध कोई टिप्पणी ना करें यह बात मेरे हाथ में नहीं है पर उसकी टिप्पणी को भी मैं सहजता से स्वीकार करूँ, यह मेरे हाथ में है’। ‘हर परिस्थितियाँ मेरे अनुकूल बने यह मेरे हाथ में नहीं है पर सब परिस्थितियों में प्रसन्नचित्त बना रहूँ यह मेरे हाथ में है’। मुस्कुराते रहिए- मुस्कुराते रहिए। मुस्कुराते हुए लीजिए-मुस्कुराते हुए दीजिए। लाफिंग नेचर रखिए। कोई कितना भी कैसा भी बोले- मुस्कुरा दीजिए।
अगर कोई तुम पर गुस्सा करे ओर उसके सामने आप मुस्कुरा दो, तो क्या होगा? आप कहेंगे कि उसको और ज्यादा गुस्सा आ जाएगा। कितनी देर तक उसका गुस्सा रहेगा? आप लोग एक काम करिए। जब भी कोई आप पर गुस्सा करें तो आप मुस्कुराइए और कहिए कि आप ऐसे ही गुस्सा करिए बहुत अच्छे लग रहे हो। मुझे आप ऐसे गुस्सा करते हुए बहुत अच्छे लग रहे हो। इस समय मुझे आपका चेहरा बहुत सुंदर लग रहा है। आप जैसा बोल रहे हो ऐसा लग रहा है जैसे अमृत बरस रहा है। ऐसा एक बार आप कोशिश कीजिए। एक बार बोल कर देखिए। फिर उसका गुस्सा शांत होगा या नहीं। हँसकर टालने की आदत, विनोदप्रिय बनना मनुष्य को अपने स्वभाव में जोड़ना चाहिए। अगर हमारे अंदर ऐसी विनोदप्रियता हो तो छोटी-छोटी बातों को हम हँसकर टालने का अभ्यास बना सकतें हैं, तब हम अपने जीवन में कभी भी दुःखी नहीं होंगे।
‘A’- एक्टिव(Active) बने रहिए।

ग्लैड रहने के लिए क्या करना है? एक्टिव रहिए। कभी अपने आप को खाली मत छोड़िए। कभी उदास मत होइए। एकदम फुल एक्टिव रहो। मुझे यह करना है तो मुझे यह करना ही है। कुछ ना कुछ करते ही रहिए, स्वावलंबी बनिए।
एक उदाहरण है। एक सज्जन रिटायर हुए और रिटायरमेंट के बाद उनको लगने लगा कि मैं तो अब कुछ भी नहीं कर पाऊँगा। मैं तो बिल्कुल खाली हो गया। तीन बेटियाँ थी, बेटियों की भी शादी हो गई। अब घर में भी कोई नहीं। अब मैं रिटायरमेंट के बाद क्या करूंगा? मेरे पास कोई काम नहीं, मेरे पास कोई काम नहीं, अब मैं क्या करूँगा? मैं खाली हो गया हूँ? मेरे पास कोई काम नहीं है। पर एक्टिवनेस का क्या परिवर्तन होता है, उसका एक उदाहरण मैं आपको बता रहा हूँ। यह पुरुष इतने हताश हो गए की डिप्रेशन में आ गए। सन 2003 की यह बात है। लगभग एक-डेढ़ साल ये डिप्रेशन में रहे। डिप्रेशन में ही ये मेरे पास आए। मैंने इनको मोटिवेट किया और मैंने कहा काम में लग जाओ, एक्टिव हो जाओ, समाज सेवा करो तुम्हारा मन अपने आप लग जाएगा। इस बात को लगभग दस-बारह बरस हो गए। क्या करें, कुछ ना कुछ तो करना था। ये अंग्रेजी के प्रोफेसर थे। हिंदी पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद करते हैं। हमारी ‘जैन तत्वविद्या’ हिंदी पुस्तक का अनुवाद अंग्रेजी में भी इन्होने किया। अब ये हमेशा प्रसन्न रहते हैं। अब ये कहतें है मेरे पास इतना काम है की समय कब बीतता है पता ही नहीं लगता। अब यह इतने एक्टिव हो गए हैं कि इन्हें समय ही नहीं मिलता है। इसलिए एक्टिव हो जाओ।

एक्टिव रहोगे तो आनंदित रहोगे और इनएक्टिव हो जाओगे तो रोते रहोगे। एक्टिव बने रहिए! चाहे कितने भी बूढ़े हो जाओ अपने आपको कभी बूढ़ा मत मानो। क्रिएटिविटी खत्म मत करो। कुछ न कुछ करते रहो। दुनिया के गोरखधंधे का काम नहीं परमार्थ का काम करो। जीवन को रस देने वाला काम करो। जीवन में आनंद मिले ऐसा काम करो। फिर देखो! कितना मजा आता है। कितना आनंद मिलता है। हर पल ग्लैड! ‘खाली घर शैतान का होता है’ खाली रहोगे तो शैतानियाँ भी रहेगी। एक्टिव बने रहोगे तो फुरसत ही नहीं मिलेगी। व्यस्त रहो मस्त रहो। अपने आपको बिजी रखो तो एकदम ईजी बने रहोगे। किसी अच्छे काम में अपने आपको एक्टिव बनाए रखिए। तो ‘BE ACTIVE’ सक्रिय रहिए कि कुछ ना कुछ, कुछ ना कुछ करना है। एक्टिव भी क्रिएटिव काम में, डिस्ट्रैक्टिव काम में नहीं । पर कुछ लोग ऐसे एक्टिव होते हैं कि उन लोगों का एक्टिव ना होना ही अच्छा है। वह उल्टे काम में एक्टिव होते हैं। उनको अच्छे काम में एक्टिव करना चाहिए।

एक उदाहरण है। मेरे पास एक सास-बहू आई थी। मैंने सास को कहा कि तुम टीवी मत देखो। टीवी नहीं देखने का नियम ले लो। मैंने कहा- तुम टीवी मत देखो। टीवी देखने से क्या फायदा? टीवी नहीं देखने का नियम ले लो। लेकिन जैसे ही मैंने कहा कि टीवी नहीं देखने का नियम ले लो तो बहु बोली- महाराज जी! ऐसा नियम मत दिलाइए। मैंने कहा – क्यों? ऐसा नियम क्यों नहीं देना चाहती हो। बहु बोली- अगर यह टीवी छोड़ देगी तो मुझे पकड़ लेगी। मैंने कहा तब ठीक है, मामला गड़बड़ हो जाएगा।

एक्टिव बने रहिए। अच्छे कार्य में एक्टिव बने रहिए। कंस्ट्रक्टिव कार्य में एक्टिव रहिए, डिस्ट्रक्टिव कार्यों में एक्टिव मत होइए। सक्रियता मनुष्य को ऊँचा बनाती है इसलिए हमेशा एक्टिव बने रहिए। हमेशा सदाबहार बने रहने का यही सूत्र है कि हमेशा एक्टिव रहिए।
D- डिलाईट (Delite) रहिए।

डिलाईट का मतलब प्रसन्न रहिए, संतुष्ट रहिए, तृप्त रहिए। अपने अंदर संतुष्टि और तृप्ति का अनुभव कीजिए, जो है, जैसा है, उतने में ही संतुष्ट। प्राप्त को पर्याप्त मानना शुरू कर दीजिए। हर पल ग्लैड रहोगे नहीं तो सैड ही बने रहोगे। तो संतुष्टि-डिलाईट फुल नेस हमारे भीतर होना चाहिए। वह आत्मतुष्टि -आंतरिक प्रसन्नता हमारे अंदर हो तो असीम आनंद को उत्पन्न करता है। ऐसा व्यक्ति जो आनंद को प्राप्त कर ले हर पल ग्लैड रहता है।
अपना मैन गोल है हमको ग्लैड रहना है।

ग्लैड रहने के लिए क्या करना है? सबसे पहले जीवन को गेम की तरह खेलना है, लाफिंग नेचर रखना है, हमेशा हंसते मुस्कुराते रहना है। एक्टिव बने रहना है और डिलाईट रहना है।

यदि यह बातें हमारे जीवन में आएगी तो हम अपने इस मनुष्य जीवन का कोई सार्थक लाभ उठा पाएँगे।

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