Letter ‘J’- JEALOUSY

261 261 admin

Letter K – KNOWLEDGE, KEEN, KEY, KICK

एक स्थान पर एक भिखारी भीख माँगा करता था। छोटी-सी झोपड़ी थी, उसके बाहर बैठकर रोज भीख माँगा करता था। भीख माँगते-माँगते उसकी जिंदगी पूरी हो गई और एक दिन वह मर गया। जब वह मरा तो लोगों ने उस स्थान की साफ-सफाई की। झोपड़ी को हटाया। साफ-सफाई के क्रम में थोड़ी-सी मिट्टी हटाई तो भीतर खजाना निकला। यह वही स्थान था, जहाँ बैठकर वह व्यक्ति बैठकर रोज भीख माँगा करता था। लेकिन वही पर अपार भंडार खजाना था। अपार भंडार वहीं था पर उसे इस बात का पता नहीं था। काश! उसे इस बात का पता होता तो जीवन-भर की दरिद्रता खत्म हो जाती। खजाने पर बैठने के बाद भी जो दरिद्र बना रहे उससे बड़ा अभागा कौन हो सकता है? संत कहते हैं- ‘यह दशा एक भिखारी की नहीं संसार के हर प्राणी की है’। हर एक उस व्यक्ति की है जिसे अपने भीतर छुपे खजाने का पता नहीं है। तुम्हें पता है कि तुम क्या हो? तुम्हें मालूम है कि तुम्हारी क्षमता क्या है? तुम्हें इस बात का भान है कि तुम्हारी शक्ति कितनी है? तुम्हें इस बात का ख्याल है कि तुम्हारे भीतर क्या-क्या तत्व छिपा पड़ा है? नहीं, किसी को यह मालूम नहीं है, क्यों? क्योंकि, हमें इसकी कोई जानकारी ही नहीं है। हमें इसका कोई ज्ञान ही नहीं है। संत कहते हैं- ‘जीवन का रस लेना है तो सबसे पहले अपने जीवन को जानो’। ज्ञान होना जरूरी है।

Alphabet के लेटर K की बात है।
K फॉर नॉलेज (Knowledge)। पहली बात नॉलेज (Knowledge), मतलब ज्ञान।
अपने मन से पूछो- क्या तुम्हारे पास नॉलेज है? आप बोलोगे- महाराज! हमारे पास तो बहुत नॉलेज है। हमारे पास नॉलेज है। हमने बहुत नॉलेज प्राप्त की और प्राप्त कर रहे हैं, इकट्ठा कर रहे हैं। मैं कहता हूँ- ठीक है। क्या-क्या तुम्हारी नॉलेज में है। तुम्हे किस-किस चीज की नॉलेज है। आप कहेंगे कि महाराज! पूरी दुनिया की जानकारी मेरे पास में है। सारी दुनिया को मैं जानता हूँ। अगर आप पूछ लो तो पूरे ग्लोब की बातें में बता दूँगा। सब मेरी जिव्हा पर बैठा है। क्या, कहाँ. कैसा है, क्या होता है, क्या नहीं होता है, सब मुझे जानकारी है। अब महाराज! केवल ग्लोब की बात ही नहीं, अंतरिक्ष की बात भी मैं जानता हूँ और पाताल की बात भी मैं जानता हूँ। संत कहते हैं- ठीक है भैया! तू अंतरिक्ष की, धरती की, पाताल की सब बातें जानता है। पर अपने आप की बात को तू जानता है या नहीं। अपने आप को जानते हो या नहीं। अपने आप को पहचानते हो या नहीं। महत्वपूर्ण यह नहीं कि तुम कितना जानते हो। महत्वपूर्ण यह है कि तुम किसे जानते हो। सारी दुनिया को तो तुम जानते हो और सारी दुनिया को जो जानने वाला है उसे तुम जानते हो या नहीं। सारी दुनिया को जानने वाले को जानो। उस ज्ञान के बिना सब ज्ञान अज्ञान है। वह ज्ञान है- ‘आत्म ज्ञान’। ‘आत्म ज्ञान ही ज्ञान है बाकी सब अज्ञान’।

एक दिन शाम के शंका-समाधान में मैंने कहा था-अल्बर्ट आइंस्टीन, जिसने अपने जीवन में बड़ी-बड़ी खोजें की। जब वह अपने जीवन की अंतिम घड़ियाँ गिन रहा था उस समय कुछ पत्रकार उसके पास पहुँचे। उससे पूछा कि आपने अपने जीवन भर बड़ी-बड़ी खोजें की। अंतिम क्षणों में आप से हम पूछना चाहते हैं कि क्या आपकी कोई खोज बाकी रह गई? आइंस्टीन ने कहा- हाँ मेरी एक खोज अधूरी रह गई। एक खोज बाकी है और उस खोज के अभाव में मेरे जीवन भर की सारी खोजें अधूरी है। सब के सब लोग आश्चर्य चकित रह गए कि आखिर ऐसी कौनसी खोज है जो आइंस्टीन साहब की इतनी खोजों में भी अधूरी रह गई। जिसके कारण वह अपनी सारी खोजों को अधूरी गिनते हैं। जब उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा- इन अंतिम घड़ियों में मैं यह सोच रहा हूँ कि जिस शक्ति के सहारे मैंने इतनी सारी खोजें कि उस खोज कराने वाले की खोज बाकी है। खोज कराने वाले की खोज बाकी है और उसे खोजने के लिए मुझे भारत में जन्म लेना होगा।

मनुष्य के जीवन की यह सबसे बड़ी विडंबना है कि सब को जानता है पर अपने आप को नहीं जानता है। अपने आप को नहीं पहचानता है। संत कहते हैं कि जानो, अपने आप को जानो, अपने आप को पहचानो। जब तक अपने आप को नहीं जानोगे तब तक अपने आपको पहचानोगे नहीं, तुम्हारे जीवन के कल्याण का पथ प्रशस्त नहीं होगा। इसलिए अपना कल्याण करना चाहते हो तो अपने आप को जानने की कोशिश करो। स्वयं के ज्ञान से ही हमारे जीवन का कल्याण होता है। मोक्ष मार्ग की शुरुआत कहाँ से होती है- स्वयं के ज्ञान से। खुद को जानोगे तब तुम मोक्ष मार्ग में आगे बढ़ पाओगे। ‘मैं कौन हूँ’, ‘मेरा स्वरूप क्या है’ क्या ये आपको पता है? बताइए! तुम क्या हो, तुम कौन हो, तुम्हारा क्या स्वरूप है, तुम जानते हो? सारी दुनिया को जो जानने वाला है, उसे तुम जानते हो? महाराज! हम तो अपने बारे में ज्यादा नहीं जानते हैं। बस इतना ही जानते हैं कि मुझे जिस नाम से पुकारा वह मैं हूँ। मेरा यह जो रुप है, यही मेरी पर्सनालिटी है, यह ही मेरा स्वरुप है। संत कहते हैं- ‘नाम और रूप तुम नहीं हो’। माना कि तुम्हें अनेक नाम से पुकारा जाता है, माना कि तुम नाना प्रकार के रूपों को धारण करते हो फिर भी तुम नाम नहीं, रूप नहीं तुम्हारा स्वरुप अनाम और अरूप है उसे पहचानो। अपने बारे में तुम कितना जानते हो? बताइए! अपने बारे में कितना जानते हो? दुनिया के बारे में तो सब जानते हो लेकिन अपने बारे में तुम कुछ नहीं जानते हो। तुम्हें यह तो पता होगा कि कुतुबमीनार की सीढ़ियाँ कितनी है पर घर की सीढ़ियाँ कितनी हैं शायद यह मालूम नहीं। औरों का मोबाइल नंबर तो पता होगा लेकिन खुद का मोबाइल नंबर भी पता ना हो। कितना बड़ा आत्म अज्ञान है। यह अज्ञान का निवारण जब तक ना हो, इस प्रकार के अज्ञान का निवारण जब तक ना हो, तब तक कल्याण नहीं हो सकता। अपना कल्याण करना चाहते हो तो आत्म ज्ञान जरूरी है। स्वयं के बारे में जानना जरूरी है।

बंधुओं! ज्ञान हमारे जीवन के कल्याण का सर्वश्रेष्ठ साधन है। ज्ञान से ही कल्याण होता है। अज्ञान में बंधन है और ज्ञान में ही मुक्ति है। अज्ञान में अशांति है और ज्ञान में शांति है। जब हम किसी के बारे में या किसी भी बात से अनभिज्ञ होते हैं तो हमें उसका अता-पता नहीं होता। हमारे मन में अनेक प्रकार की भ्रांतियाँ उत्पन्न हो जाती है। जब हमें वास्तविकता का भान हो जाता है, पता चल जाता है तब सारी भ्रांति दूर हो जाती है। मन शांत हो जाता है। लोक के क्षेत्र में भी ज्ञान हमारा कल्याण कराता है। ज्ञान हमारा सहायक होता है तो लोकोत्तर क्षेत्र में भी हम ज्ञान के बल पर हम अपना कल्याण कर सकते हैं। सारा खेल ज्ञान से है।
आचार्य ज्ञानसागर कहते हैं-
नानमपयासों:’(11:57),
‘ज्ञान ही प्रकाशक है’। ज्ञान के बल पर ही हम अपना कल्याण कर सकते हैं। हम कहते हैं कि-
ज्ञान समान ना आन जगत में सुख को कारण,
यह परमामृत जन्म जरा मृत्यु रोग निवारण।

ज्ञान के समान सुख का कोई कारण नहीं है। यह जन्म, जरा और मृत्यु रूपी रोग के निवारण करने के लिए परम अमृत है। क्या आपने इस अमृत का रसपान कभी किया? बताइए! देखिए एक अज्ञानी में और ज्ञानी में क्या अंतर होता है? एक ज्ञानी में और अज्ञानी में क्या अंतर? अज्ञानी अपने आपको देह रूप मानता है, पर-पदार्थ में आत्म बुद्धि रखता है, जीवन और जीवन की व्यवस्था को नहीं जानता है, इष्ट-अनिष्ट वियोग-संयोग में संकल्प-विकल्प करता है उसकी परिणति में और एक ज्ञानी जो शरीर और आत्मा की भिन्नता को जानता है, पर-पदार्थ को पर-रूप जानता है, वह कर्म-जन्य संयोगों में आत्म बुद्धि नहीं रखता है, उसके अंदर इष्ट-अनिष्ट, संयोग-वियोग होने पर संकल्प-विकल्प नहीं होते हैं। ऐसे ही एक अज्ञानी के साथ कुछ भी उल्टा-पुल्टा प्रसंग घटता है तो वह रोता है, व्याकुल होता है। थोड़ा-सा शरीर है, थोड़ा सा विवर्ण हुआ नहीं की मन में चिंता हो गई। शरीर विवर्ण हुआ कि चिंता हो गई। शरीर में थोड़ी-सी पीड़ा हुई कि मन खिन्न हो गया। ज्ञानी कहता है कि ‘शरीरम व्याधिमंदिरम’(13:46) शरीर व्याधि का रोग का भंडार है। रोग का घर है। इसमें बीमारियाँ तो लगी ही रहती है। तन में रोग है चेतन में कोई रोग नहीं है। इस चेतन में कोई रोग नहीं हो सकता। तो तन के रोगों को अपने मन पर हावी नहीं होने देना है। तन कितना भी रोगी हो मन शांत रहता है। तन कितना भी त्रस्त हो मन उसका मस्त बना रहता है। किसकी बदौलत रहता है? वह अपने ज्ञान की बदौलत मस्त रहता है।

देखो मुनिराज को! वादीराज मुनिराज के शरीर में कोढ़ हो गया। कोढ़ कोई साधारण रोग नहीं, ऐसा भयावह रोग, विकृत रोग, जिसका नाम सुनते ही हृदय काँप जाए। लेकिन वादीराज मुनिराज को जब कुष्ठ रोग हुआ तो वह घबराए नहीं, क्यों? तन में कुष्ठ रोग है, मुझे तो कुष्ठ हो ही नहीं सकता। ना कुष्ठ है ना ही कष्ट है। यह तो तन का स्वभाव है,रोग है। रोग तो क्षम्य है। संसार में जितने रोम हैं शरीर में उतने रोग है। संसार के हर प्राणी में रोग है। अंतर यह है कि किसी का रोग प्रकट हो गया और किसी का रोग अप्रकट है। तन के इस प्रकट और अप्रकट रोग के पीछे मैं क्यों व्याकुल होऊं? यह तो इसका स्वभाव है। मुनिराज ने उस रोग ग्रस्त स्थिति में भी अपने आत्मा के अरूप स्वरूप से अपने आपको रोग रहित बनाए रखा। उसकी तरफ ध्यान रखा। उसके मन में रंच मात्र भी दु:ख नहीं हुआ। किसके बदौलत? अगर उन्हें यह पता नहीं होता कि मैं आत्मा हूँ। मेरा शरीर रोग धर्म है। शरीर अलग है और मैं अलग हूँ। इस बात का भेद-विज्ञान नहीं होता तो क्या बीमारी की घड़ी में वो अपने आप को स्थिर रख पाते? बताइए! किसने दी ताकत? कहाँ से आई यह सामर्थ्य? किसने दी शक्ति? यह शक्ति दी ज्ञान ने, आत्मज्ञान ने। आत्म ज्ञान मिलते ही मनुष्य के मन में वह सामर्थ्य विकसित होती है कि वह सब का समाधान ढूँढता है। अज्ञान समस्या है और ज्ञान में समाधान है। कोई भी जीवन की समस्या हो अज्ञानी सदैव दु:खी होता है। ज्ञानी के पास हर समस्या का समाधान होता है, समस्या नहीं रहती है। देख लीजिए! शरीर को लेकर कोई भी परेशानी आई, तो ठीक है, इलाज कराएँगे। आकुल-व्याकुल नहीं होंगे। रोग है जाएगा तो धीरे-धीरे जाएगा। एक दिन तो शरीर भी नष्ट हो जाने वाला है। जिसके मन में ऐसी दृढ़ धारणा बन जाए, क्या वह अपने शरीर के इस प्रकार से रोगाक्रांत होने पर रंच मात्र भी विचलित होगा? नहीं होगा। सामान्य आदमी क्या करता है। बीमारी कम होती है, बीमारी का हौवा ज्यादा होता है तो डिप्रेशन का शिकार हो जाता है। वहाँ पर ऐसे समय पर ज्ञान काम करता है। यह जन्म जरा मृत्यु रोग निवारण है, परमामृत है। ठीक है, संतोष है, धैर्य है, अपने मन में सहनशीलता को अपने में ही विकसित कर लिया तो समाधान मिल गया। किसी इष्ट का वियोग हो गया या अनिष्ट का संयोग हो गया। अरे! क्या करें, बेटा मर गया, पति मर गया, पत्नी मर गई, पिता मर गए, माँ मर गई, भाई चला गया, यह चला गया, वह चला गया, मर गए। अब मर और गए। अब क्या है? ‘मरना सबको एक दिन अपनी-अपनी बार’ पता है कि नहीं बचपन में जब से बोलना सीखते हैं, तब से यह सिखाया जाता है-
राजा राणा छत्रपति हाथिन के असवार
मरना सबको एक दिन अपनी अपनी बार

सब को सिखाया जाता है। सबको समझाया जाता है लेकिन यह बात अपने ख्याल में नहीं आती। हम अपने अंदर से इस बात को नहीं जानते। केवल इस बात को अपने दिमाग में रखते हैं। जिसके दिल-दिमाग में यह बात गहरी बैठी है, जो जीवन की सच्चाई को जानता है कि आना-जाना लगा हुआ है, जन्म-मरण लगा हुआ है, संयोग-वियोग बना हुआ है, इसको ना कोई बना सकता है, ना कोई मिटा सकता है, ये मेरे आधीन नहीं है, ये संयोग कर्म के आधीन है। जिसके साथ जितने दिन का संयोग सुनिश्चित होता है वह उतने ही दिन का होता है। क्योंकि ‘सर्वे संयोगा: विप्रयोगांता:’(18:35) सारे संयोग-वियोग धर्मा है। यह ज्ञान जिसको होगा वह ना कभी आँसू बहाएगा ना कभी रोएगा। वह कभी नहीं रो सकता। उस में स्थिरता होगी।
एक बहन जी, जिन्होंने अपने पति को 32 वर्ष की उम्र में खो दिया और उनके 8-9 साल का बेटा था। पति को खोने के बाद निश्चित ही परिवार पर वज्राघात हुआ। पति भी धार्मिक था और उनकी वह पत्नी भी धार्मिक थी। इस घटना से बेटे पर विपरीत असर हुआ। बेटे पर विपरीत असर पड़ा। बेटा इस घटना से धर्म-विमुख हो गया। उसके मन में यह बात बैठ गई कि मेरे मम्मी-पापा इतना धर्म करते हैं उसके बाद भी भगवान ने मेरे पापा को मुझसे छीन लिया। धर्म ने हमको क्या दिया? यह बात आम लोग करते हैं। बच्चा भी थोड़ा बहुत धर्म से जुड़ा हुआ था बचपन से। एक दिन उन्होंने आकर मुझसे कहा- महाराज जी! अब हमारे पति चले गए। वह तो चले गए जो चले गए उसका हमें दु:ख नहीं है, लेकिन हमें इस बात का मलाल है कि मेरा बेटा धर्म-विमुख हो गया। इसको किसी भी प्रकार से आप धर्म के रास्ते पर लगाएँ। आप ही ऐसा कर सकते हैं। उसके मन में धर्म से घोर अश्रद्धा हो गई। मैंने कहा आप उसे लेकर आओ। आग्रह पूर्वक वह अपने बेटे को मेरे पास लेकर आई। मैंने जब उससे बात की तो उसने कहा- धर्म ने हमको क्या दिया? मैंने कहा- बिल्कुल ठीक, धर्म कुछ देता ही नहीं है तो तू लेने की क्या बात करता है? तुझसे किसने कहा कि धर्म कुछ देता है? धर्म देता नहीं तो लेने की बात क्या है? वो बेटा बोला- तो फिर महाराज! हम धर्म क्यों करते हैं? मैंने कहा- धर्म समाधान देता है। समस्याएँ तो आएगी ही वह तो सबके साथ आती है पर धर्म समाधान देता है। बेटे ने पूछा- धर्म क्या समाधान देता है? मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आया। मैंने कहा- देखो! तेरे पापा को एक्सपायर हुए कितने दिन हुए? वह बेटा बोला- साल भर हो गया। हम बोले कि अभी कुछ दिन पहले एक और घटना घटी। एक आंटी ने सुसाइड किया था। उनकी उम्र करीब-करीब 55 साल के आसपास थी और अंकल का पता है तुम्हें? बेटा बोला- 60 वर्ष के आसपास अंकल की उम्र होगी। मैंने पूछा तुम्हें उनकी दशा का पता है। बेटा बोला-अंकल डिप्रेशन में है। 60 साल की उम्र में अपने पत्नी को खोने वाला आदमी डिप्रेशन में है। पत्नी ने सुसाइड किया तो पति डिप्रेस्ड हो गया। हम बोले तेरी मम्मी की उम्र उनसे आधी जैसी है। तूने अपनी मम्मी को कभी डिप्रेस्ड देखा। बेटा बोला- नहीं, कभी नहीं देखा। तेरी मम्मी क्या करती है? वो बेटा बोला- महाराज जी! जो रूटीन का काम होता है, पूजा-पाठ करती है, स्वाध्याय करती है और हमने देखा मम्मी बिलकुल नॉर्मल है। हमको भी अच्छा मोटिवेशन देती है। हम बोले- यह किसकी बदौलत है? तेरी मम्मी के पास यह सामर्थ्य कहाँ से आई? वह किसके बदौलत आई? उसी लड़के ने कहा- महाराज! यह तो धर्म के कारण ही आई है। हम बोले- यह ही समझ लो धर्म यही ज्ञान देता है। इसी का नाम धर्म है। यही धर्म का फायदा है। धर्म संयोग-वियोग को भले ही नहीं टालेगा, लेकिन तुम्हारे अंदर धर्म का ज्ञान होगा तो तत्व का ज्ञान भी होगा। तुम्हारा यह तत्वज्ञान हर संयोग-वियोग में तुम्हें संभाल लेगा। ज्ञान प्राप्त करो। उसे हमेशा सामने रखो तो सम्भले रहोगे और समाधान मिलेगा। समस्या कहीं नहीं होगी।

तो ज्ञान हो जीवन का, जीवन की व्यवस्था का, लोगों को उसका ज्ञान नहीं है। दुनियादारी का ज्ञान है और उन सब बातों में तुम्हारी रुचि रहती है। हरपल उत्साह रहता है। जीवन के बारे में, जीवन की व्यवस्था के बारे में तुम कितना उत्सुक रहते हो। बोलो! अपने जीवन के बारे में क्या जानते हो? जीवन की व्यवस्था के बारे में क्या जानते हो? महाराज! हम तो अपने घर की व्यवस्था आपको बता सकते हैं। ज्यादा आप पूछो तो अपने घर की बातें भी आपको बता सकते हैं, बैकग्राउंड बता सकते हैं। लेकिन यह तो सब उपरी-उथली चीजें हैं। यह जो सब बाहर की चीजें हैं वो सब तुम्हारे कल्याण का कारण नहीं है। अपने जीवन के बारे में जानो- यह क्या है। यह हमारा जीवन अनादि से प्रवर्तित आ रहा है। अनंत काल तक चलता रहेगा। जन्म-मरण चल रहा है और यह जन्म-मरण हमारे अपने कर्मों के बंधन के कारण है। जब तक कर्म का बंधन रहेगा तब तक इस संसार में जन्म मरण का चक्र चलता रहेगा। यह संसार की सारी व्यवस्था कर्म-जन्य संयोगों के आधार पर है। जैसे संयोग मिलते हैं वैसे ही हमारी सारी व्यवस्थाएँ होती है। सारी की सारी व्यवस्थाएँ संयोग-वियोग हमारे हाथ में नहीं कर्म के अधीन है। सारी व्यवस्थाएँ कर्माधीन है। मेरा एक छोटा सा रोल है। मैं केवल एक निमित्त हूँ। इस पर है विश्वास। इसको जानते हो। जिस पल इस बात का ज्ञान हो जाएगा उसी पल सारा दु:ख समाप्त हो जाएगा। कर्म की व्यवस्था को जानो, जीवन को जानो, जीवन की व्यवस्था को जानो। उसके बारे में रुचि लो। आप दुनिया में, स्कूल में, कॉलेज में पढ़ते हैं, वहाँ जो पढ़ाया जाता है, वह क्या पढ़ाया जाता है? क्या पढ़ाया जाता है? क्या पढ़ाते हैं आपको स्कूल, कॉलेज में? वहाँ तुम फिजिक्स पढ़ोगे, केमिस्ट्री पढ़ोगे, मैथ्स पढोगे, हिस्ट्री पढ़ोगे, जोग्राफी पढ़ोगे और क्या पढ़ोगे? सोशल साइंस पढ़ लोगे? यह दुनिया की जो चीजें पढ़ने में आती है, यह सब बाहर की चीजें हैं, जो केवल कलेक्शन ऑफ इंफॉर्मेशन है। बाहर की जानकारियाँ तुमने इकट्ठी कर ली और वहाँ सब ज्यादा से ज्यादा तुम्हारे जीवन के गुजारे का साधन बनेगे। उससे विशिष्ट लाभ नहीं मिलने वाला। संत कहते हैं- दुनिया चलाने के लिए उसे जानना है, जानो, पर भैया! जिसकी दुनिया है उसको भी तो पहचानो। दुनिया को जान रहे हो पर दुनिया वाले को नहीं जान रहे हो। कैसी विडंबना है? कैसी विडंबना है? मनुष्य के जीवन की बड़ी विचित्रता है।

दो पनिहारिन पानी भर रही थी। एक पनिहारिन ने नाक में नथनी, सुंदर-सी नथ पहने हुए थी। दूसरी पनिहारिन ने पूछा- यह नथ बहुत ही सुंदर है। कौन ने लाकर दी? वह बोली मेरे पति ने लाकर दी। वह मुझे बहुत प्यार करते हैं। यह नथ मुझे मेरे पति ने दी है, वह मुझे बहुत प्यार करते हैं और मैं भी उनको बहुत प्यार करती हूँ। तो दूसरी पनिहारिन ने कहा जिसने नथ दी है उसको तुम प्यार करती हो तो जिसने तुम्हे नाक दी है उसे भी तो प्यार करो। नथ देने वाले का ख्याल है तो नाक देने वाले को। दुनिया के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है लेकिन जिस की दुनिया है उसको भी तो जानो। वह अज्ञान जब दूर होगा तब ही जीवन का कल्याण होगा। वह हमारा अज्ञान दूर होना चाहिए। जीवन का ज्ञान, स्वयं का ज्ञान, स्वयं के प्रति अपनी दृष्टि होनी चाहिए। अपने अज्ञान के कारण ही हम संसार में भटकते आए हैं। जब हमें अपना ज्ञान होगा सारा भटकन खत्म होगा। सारा दु:ख खत्म होगा। भैया! यह संयोग-वियोग लगा हुआ है, लाभ-हानि लगा हुआ है, आना-जाना लगा हुआ है, जय-पराजय लगा हुआ है, सम्मान-असम्मान लगा हुआ है। यह संसार है, यह कर्म की परिणति है। समता रखो और धैर्य के साथ उसे स्वीकार करो। यहाँ कुछ भी मेरे हाथ में नहीं है। ज्ञान यहाँ हमें संतुष्टि देता है। ज्ञान से हमारे परिणामों में निर्मलता आती है, शांति मिलती है, सारा समाधान मिलता है। इसलिए हमेशा ज्ञान की आराधना करो। वह ज्ञान जिनवाणी की कृपा से मिला है। गुरुओं की कृपा से मिलेगा। उन के माध्यम से अगर हमने थोड़ा भी ज्ञान पाया और अपने जीवन की धारा को मोड़ दिया तो जीवन धन्य-धन्य हो जाएगा। उस तरफ हमारी दृष्टि जानी चाहिए। अंतर्दृष्टि, आत्मा को पहचानने की दृष्टि और आत्मा के साथ जुड़ी हुई जितनी भी बातें हैं, उन सब को जानने की दृष्टि जिस पल विकसित होगी, हमारा जीवन धन्य हो जाएगा।

ज्ञान हो, नॉलेज हो, नॉलेज कब होगी? कब होगी नॉलेज? बताइए कब होगी? आज चार बातें आप से करूँगा। नॉलेज को बढ़ाने के और नॉलेज का फल क्या है? नॉलेज पाना चाहते हो, आत्म ज्ञान पाना चाहते हो, अपने आप को जानना चाहते हो तो क्या करो?
दूसरी बात- कीन(keen), उत्साह, रुचि, इंट्रेस्ट, इगरनेस।

हमारे अंदर उत्साह होना चाहिए। अभिरुचि होनी चाहिए, उमंग होनी चाहिए, उल्लास होना चाहिए, किसके लिए- अपने लिए। अपने प्रति जितनी गाढ रुचि तुम्हारी होगी, उतना ही तुम ज्ञान पिपासु बनोगे। अंदर का उत्साह मनुष्य को ज्ञान की ओर उत्कंठित करता है, जोड़ता है, उल्लासित करता है। उत्साह जगाइए, अपना उत्साह जगाइए। अभी अपना उत्साह किसमें है- गोरखधंधे में, दुनियादारी की बातों में। देखो, अगर किसी पॉलिटिक्स की चर्चा करनी हो तो लोग कितनी रुचि से सुनते हैं, किसी बिजनेस की चर्चा करनी हो तो लोग कितनी रुचि से सुनते हैं। किसी की और किसी फिल्म के बारे में जानना हो, किसी इंडस्ट्री के बारे में जानना हो तो लोग कितनी रुचि से सुनते हैं। लेकिन आत्मा के बारे में, जीवन के बारे में, जीवन के कल्याण के बारे में बहुत कम लोग हैं। जिनके अंदर जीवन के प्रति गाढ़ अनुराग की भावना होगी, जिनको जीवन को जानने के लिए तीव्र उत्साह हो वह ही जीवन को जान सकते हैं। प्रवचन सुनने की बात हो तो लिमिटेड लोग आएंगे और कोई कोई मंडली सजा दी जाए, कोई नाटक-नौटंकी इत्यादि किया जाए, कोई शो दिखा दिया जाए, किसी फिल्मी व्यक्ति-सेलिब्रिटी को बुलाकर उसका प्रोग्राम कर दिया जाए तो प्रशासन बुलाना पड़ेगा। पांडाल ही छोटा पड़ जाएगा, प्रशासन को बुलाना पड़ेगा। क्यों? क्योंकि लोगों की रुचि उस तरफ ही जाती है उस तरफ उत्साह ज्यादा है। जहाँ उसका उत्साह होना चाहिए वहाँ उसका उत्साह है नहीं और जहाँ उसका उत्साह मंद होना चाहिए वहाँ ही वह उत्साहित होता है। अपने प्रति उमंग जगाइए। अपने प्रति उत्साहित होइए। ज्ञान की पिपासा ही मनुष्य को ज्ञान अनुरागी बनाती है। उसी से कल्याण होता है। मेरी ज्ञान पिपासा बढ़नी चाहिए। जितना-जितना पढ़ोगे उतना आनंद आएगा। उतना-उतना आनंद आएगा। हालांकि कागजी ज्ञान काम में नहीं आता। अंतरंग से जुड़ करके ज्ञान पाओगे तो नियमत: कल्याण होगा इसलिए ज्ञान पिपासु बनिए, रुचि जगाइए। जितना बन सके उतनी रूचि जगाइए। धीरे-धीरे जितना-जितना आपके मन में ज्ञान की रुचि होगी आप उतना ही ज्ञान पाओगे तो ज्ञान के प्रति कीन हो।

तीसरी बात की-(KEY)
ज्ञान क्या है? ज्ञान की(Key) है? KEY का मतलब चाबी। चाबी किसके काम में आती है, ताले को खोलने के लिए। ताला कैसे खुलता है? ताला किस तरफ घुमाने से खुलता है? चाबी को क्लॉकवाइज घुमाने से ताला खुलता है और एंटी क्लॉक घुमाने से ताला बंद होता है। क्लॉकवाइज घुमाने से ताला खुला और एंटी क्लॉक वाइज घुमाने से ताला बंद हुआ। रोज ताला खोलते हो और रोज ताला बंद करते हो। यह बाहर का ताला है। भीतर के ताले को भी खोलना सीखो। ज्ञान एक ऐसी कुंजी है जो भीतर के ताले को खोल देती है। ताले को खोलना मतलब बंधन के ताले को खोल देना। कहीं अपार खजाना पड़ा हो और उसका हमें पता ना हो तो हम उस खजाने का कोई लाभ नहीं ले सकेंगे। पता नहीं है, ताले में बंद है, कोई पता नहीं है। ताला खोला तो पाया अरे! यहाँ तो अपार खजाना है। तुम्हारे भीतर भी अपार खजाना है पर उस खजाने के ऊपर एक ताला लगा है। कौन सा ताला? अज्ञान का ताला, मोह का ताला। वह ताला बंद है जो भीतर के तत्वों को जानने ही नहीं देता। ज्ञान की कुंजी से उसे खोलो। तो जैसे ही वह ताला खुलेगा तुम्हें उस अपार निधि के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होगा। उसे पहचानो, उसका आनंद लो, उसका रस लो। वह परम तत्व है, यह ज्ञान रूपी चाबी है, कुंजी है। जिसके हाथ में आ गई वह निहाल हो गया। ज्ञान की कुंजी बहुत काम की है।

पुरातन काल में गुरु-शिष्य की परंपरा थी। शिष्य जब साधना करता था तो गुरु उसे ज्ञान देते थे। गुरु उससे कहते थे कि यह तेरे जीवन की अमूल्य निधि है। इस बात का ख्याल रखना और इसी से तेरा कल्याण होगा। एक-दो बीज पद मिल जाते थे, एक-दो वाक्य मिल जाते थे तो वह शिष्य उसी के बल पर अपना कल्याण कर लेता था। क्योंकि उनको केवल चाबी ही नहीं दी जाती थी वो चाबी का इस्तमाल करना भी जानते थे। तुम्हारे पास चाबी नहीं चाबीयों का पूरा गुच्छा है फिर भी ताला नहीं खुलता है।

शिवभूति मुनिराज को केवल इतना कहा था- (36:15)तुषमास, तुषमास तुषमास। उन्हें कोई ज्ञान नहीं था। उनके गुरु ने उनको बहुत सारे मंत्र दिए पर वह कुछ जान नहीं सके। जब वह नहीं जान सके तो गुरु ने उनको कहा कि ‘त्वमासा’(36:32) तुम केवल इतना ध्यान रखो कि जो दिख रहा है वह तुम नहीं है। वह वो भी भूल गए। सोचो! कितने अनाड़ी थे। आप बोलोगे ऐसे अनाड़ी को दीक्षा काहे को दी। तुम्हारी दृष्टि में तो वो अनाड़ी थे पर उनके हृदय में वैराग्य था, प्रबल वैराग्य था। आत्मा के कल्याण की ललक थी। भोले-भंडारी थे सो निकल गए। आहार के लिए जा रहे थे। बीच में देखा एक महिला उड़द और छिल्के अलग कर रही है। तालाब के किनारे दाल धो रही है। संस्कृत में उड़द को मास बोलते हैं और छिलके को तुष् बोलते हैं। महाराज जी कैसे भोले-भंडारी है देखो। आहार को जाते-जाते वह वंही खड़े हो गए। उस महिला से पूछा- क्यों माता! क्या कर रही हो? उसने कहा- ‘तुष्मासं भिन्नामि’(37:20) तुष् और मास को पृथक-पृथक कर रही हूँ। तुष् का मतलब छिलका, मास का मतलब दाल। मतलब दाल और छिलका अलग कर रही हूँ। शिवकुटी बोले- यही तो मेरे गुरु ने कहा था ‘तुषमास भिन्नं’ तुष् यानी शरीर मास यानी आत्मा। (37:35 )‘तुषमास भिन्नं’, ‘तुषमास भिन्नं’, ‘तुषमास भिन्नं’, ‘तुषमास भिन्नं’। सारा विकल्प छोड़कर एक किनारे बैठे और केवल ‘तुषमास भिन्नं’ ‘तुषमास भिन्नं’ के स्मरण से अपने भीतर का वह ताला खोल दिया। केवल ज्ञान का प्रकाश प्रकट किया। क्या हुआ ये? चाबी मिली? चाबी पाने मात्र से काम नहीं होगा। चाबी को घुमाना भी आना चाहिए। एंटी क्लॉक घुमाओगे तो ताला खुलेगा या बंद रहेगा। तो कहाँ चाबी घुसाना है और कैसे चाबी घुमाना है, यह कला हो। यह सीख हमारे अंदर होनी चाहिए। तुम लोगों के पास चाबी है। पूरा गुच्छा लिए घूमते हो पर आपसे कहो भैया! कमरा खोलो तो खुलता ही नहीं है। ताला सब में एक है, चाबी भी एक ही है। आवश्यकता है केवल घुमाने की कला सीखने की। चाबी को ताले में घुसाए और उसको सही डायरेक्शन में घुमाओ तो ताला खुल जाएगा। लेकिन उसके लिए होश चाहिए, समझ चाहिए, तब काम होगा।

एक आदमी शराब पिए हुए था। उसे देर रात आना था तो पत्नी ने पहले से ही कह दिया था कि बाहर से ताला लगा देना और जब आना हो तब आ जाना। वह आदमी दरवाजे पर आए और ताला खोलें। बार-बार ताला पकड़े पर ताला खुले ही नहीं, खुले ही नहीं। ताला नहीं खुले तो पत्नी ने कहा- बहुत देर हो गई, दूसरी चाबी दूँ क्या? चाबी दूसरी दूँ क्या? पति बोला- अरे नहीं! चाबी तो मेरे पास है, तू तो बस ताला फेंक दे। ताला फेंक दें ताकि मैं उसे खोल दूँ क्योंकि ताला खुल ही नहीं रहा है। अब उसे पता ही नहीं कि ताला कहाँ पर है? वह खोलेगा कैसे? चाबी हाथ में है ताला कहाँ है? ताला हाथ में है और चाबी को ताले में घुसाना कहाँ है, यह समझ अपने भीतर विकसित कीजिए। अपने ज्ञान की कुंजी से अज्ञान का ताला खोलिए जीवन निहाल हो जाएगा। अज्ञान के ताले को खोलना है। जिसने अज्ञान का ताला खोला उसका जीवन निहाल हो गया और उसके बाद जीवन की धारा बदल गई।
चौथी बात- ‘कीक’(Kick) मतलब ठुकरा देना।
दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं। वह लोग महान होते हैं जो सारी दुनिया को ठुकरा देते हैं। जो लोग दुनिया को नहीं ठुकराते हैं वह सारी जिंदगी ठोकर खाते रहते हैं। देखो! तुम्हारा स्थान कौन सा है? ठोकर खाने वालों में या ठुकराने वालों में। महाराज! अब तक तो हम ठोकर ही खाते आए हैं। फुटबॉल की तरह किक होते रहे। इधर से उधर उधर से इधर भी। कभी मनुष्य, तो कभी पशु, कभी पक्षी, तो कभी नारकी, कभी देव, यही तो चल रहा है। कभी स्त्री-कभी पुरुष, कभी नपुंसक, कभी गरीब-कभी अमीर, तो कभी राज़ा-कभी रंक, कभी सुंदर- कभी कुरूप, यह कौन Kick कर रहा है? फुटबॉल बने हो इधर से उधर। Kick हो रहे हो। इस जीवन में भी सबसे ठुकराए जाते हो। कभी बेटा, कभी बहू, कभी भाई, कभी बंधु, कभी पड़ोसी, सब ठुकराते हैं। पर वाह रे मोह! इस तरह से ठोकर खाने में ही आनंद आता है।

एक सेठ था। बड़ा दु:खी था और अपने दु:ख से दु:खी होकर एक दिन भगवान से प्रार्थना करी। बोला- हे भगवान! बहुत ठोकर खा चुका, अब उठा लो। भगवान बहुत ठोकर खा चुका अब मुझे इस दुनिया से उठा लो। उसने प्रार्थना की तो उसी समय एक देवदूत उधर से गुजर रहा था। उसने उसकी बात सुन ली और उसको बोला भगवान तो कुछ नहीं करते हैं। तू भगवान का भक्त है तो मैं तेरी सहायता कर दूँगा। तू मेरे साथ चल। एक बात बता- तू अभी क्या कर रहा था। वह बोला मैं भगवान की प्रार्थना कर रहा था। तो देवदूत ने पूछा- क्या? उस आदमी ने बोला- क्योंकि मैं जीवन से परेशान हो गया हूँ,उक्ता गया हूँ। तो देवदूत बोले- अच्छा! तुम मेरे साथ स्वर्ग चलो। सेठ जी बोले- तो क्या आप मुझे स्वर्ग ले चलोगे। अच्छा चलो ठीक है पर एक काम करो मेरा बेटा छोटा है, उसके अभी शादी हो जाने दो। फिर मैं चल चलूंगा। अब 6 महीने बीत गए बेटे की शादी भी हो गई तो देवदूत फिर आया और बोला- चलो! तो वह आदमी बोला- देखिए! अभी तो बेटे की शादी हुई है, नई-नई बहू आई है, थोड़ा घर संभल जाने दो। थोड़ा व्यवस्थित हो जाने दो। थोड़ा संभल जाए और थोड़ा कम से कम नाती-पोते का मुँह तो देख लूँ। देवदूत बोला- ठीक है। तीन बरस बाद वह देवदूत फिर आए। देवदूत बोले- अब तो पोता भी हो गया, अब चलो। वह आदमी बोला- पोता बहुत छोटा है। बेटा-बहू अकेले हैं। घर में कोई काम करने वाला है नहीं, संभालना वाला है नहीं। थोड़ा बच्चे को खेलने खिलाने दो, फिर चल-चलेंगे। अब देवदूत पाँच साल बाद फिर आया। वह पोता भी बड़ा हो गया तो बोले- अब तो चलो। तो आदमी बोला- अरे! मेरे ही पीछे क्यों पड़े हो? तुम्हें और कोई दूसरा नहीं मिला?

यह तो एक कहानी है। तुम्हे तो ठोकर खाने में ही आनंद आता है। सबकी उपेक्षा तिरस्कार और पराभव का शिकार बनने के बाद भी उसी में ही मग्न रहते हो,क्यों? क्या तुम्हें आत्मज्ञान नहीं? तुम्हें आत्म गौरव का भान नहीं। यह राग, यह आसक्ति, यह मोह उन सबमें जकड़े रखता है तो उलझे रहोगे। संत कहते हैं- इन सब को किक करो, ठुकरा दो, उपेक्षा करो। जिसे अपनी आत्मा का ज्ञान होता है वह दुनिया के गोरखधंधे को एक पल में छोड़ देता है क्योंकि उसके भीतर वैराग्य है। वह वैराग्य वह परिणति है जिसके प्रकट हो जाने पर सब व्यर्थ लगने लगता है। सच्चे अर्थों में जो जीवन का अर्थ जान लेता है उसे सब व्यर्थ लगने लगता है और वह फिर अपने आप को पाने के लिए समर्थ हो जाता है। वह ही समर्थ होता है। जब तुम्हें यह सब व्यर्थ लगेगा तब तुम्हारे अंदर वैराग्य जगेगा। जिस दिन तुम दुनिया को ठुकराने में समर्थ हो जाओगे, जब तुम दुनिया को ठुकराओगे तभी अपने आप को पा सकोगे। ठुकराओ! तीर्थंकरों को देखो। उन्होंने अपने जीवन में सब कुछ होने के बाद भी एक पल में सब छोड़ दिया। तीन तीर्थंकर चक्रवर्ती भी हुए तीर्थंकर होने के साथ। तो क्या करते हैं-
(45:25)लक्ष्मी विभव सर्वस्वं मुमुक्षोश्चक लांछनम,
साम्राज्यं सर्व भोमम ते जिरत्तृणमिवाभवे।

चक्रवर्ती जैसा वैभव, छ-खंड धरा पर एक छत्रपति साम्राज्य, आत्मज्ञान होते ही उनको कैसा लगने लगा? तिनके के समान, सड़े-गले, जीर्ण-शीर्ण तिनके के समान जो किसी काम का नहीं। एक पल में छोड़ दिया। हमें तुम्हें देखने वाले को लग सकता है यह छोड़ा जो बहुत थोड़ा छोड़ा। लेकिन वह कहते हैं कि छोड़ने लायक क्या था जो छोड़ा? मैंने तो अपने आप को पकड़ा। वह किक करने की चीज़ थी वह मैंने किक कर दिया। यह बताओ कि तुम्हारे हाथ में काँच की गोलियाँ हो। दोनों हाथ की मुट्ठी में काँच की गोलियाँ हो और सामने रत्नों का ढेर पड़ा हो। किसी भी प्रकार का प्रतिबंध ना हो, खुला ऑफर हो, तो तुम क्या करोगे? क्या करोगे? हाथ की गोलियों को हाथ में रखोगे या हाथ की गोलियों को फेंक कर के उन रत्नों को बटोर लोगे। हाँ, बताइए! क्या करोगे? गोली को पकड़े रहोगे। क्या करोगे? महाराज! गोलियाँ फेकेंगे और रतन बटोर लेंगे। यह ही है ना पर भैया! इतने दिन से तुम्हे खुला ऑफर दे रखा है। इतने दिन हो गए खुला ऑफर है, ढेर लगा है, फिर भी तुम यह काँच की गोलियाँ क्यों नहीं छोड़ रहे हो? काँच की गोलियों को फेंको। उसे बटोरे। किक करने की क्षमता अपने भीतर विकसित करो। किक करो नहीं तो किक खाओगे। ठुकराओ नहीं तो ठुकराए जाओगे। अब तक तो यही होता रहा है। जो अंदर से अपने प्रति कीन हुआ उसने की(KEY) पाया और जिसने की(KEY) पाया उसने किया और जो किक किया वह किंग हो गया। किक करते ही क्या बन जाओगे किंग, किंग यानी राजा। देखो! आप हम लोगों को महाराज बोलते हो आप लोग क्यों बोलते हो? महाराज क्यों बोलते हो? मेरे से एक समय शंका समाधान में सवाल किया कि मुनि महाराज को महाराज क्यों बोलते हैं या राजा-महाराजा को राजा-महाराजा क्यों बोलते हैं? मुनि महाराज को महाराज क्यों बोलते हैं? हमने कहा राजा या महाराजा उसको कहा जाता है जो शासन करते हैं। दुनिया पर शासन करने वाला राजा होता है और निज पर शासन करने वाला महाराज होता है। किंग बनो, राजा बनो, अपने अपार वैभव के स्वामी बनो। तुम्हारे पास अपार वैभव है इसका पता या पता ही नहीं है। सारी सत्ता साम्राज्य सब खोए हुए हो। अपने वैभव को पहचानो और उस वैभव को उद्घाटित करने के लिए उत्साहित हो, संकल्पित हो। उस साम्राज्य को प्राप्त करो। अपने राजा बनो अपने मालिक बनो। कब बनोगे? जब सबको किक करोगे और किक कब कर पाओगे? जब हाथ में की(key) आएगी। हाथ में की (key) कब आएगी? जब तुम कीन होगे। समझ गए! कुछ छोटे-छोटे शब्द हैं लेकिन इन में बहुत गहरी बात है।

आचार्य कुंदकुंद कहते हैं- ‘अगर तुम्हें दु:ख से मुक्त होना है, तो तुम राजा हो इस बात को जानो। तुम राजा हो इस बात को जानो, उसे पहचानो और उसके अनुरूप परिवर्तन करो’।
(49:42) ज: नामको विपुरिषो रायानम जानिदोन सदहध्दि
तो तम अनुचरदिपणो अतत्थियो पयत्तिन
एवम ही जीवराया नादब्बो तय्यसद्दहेदब्बो
अनुचरएवदब्बो अप्पन्नो सो चेव दू मोक्खकामिन
उन्होंने बहुत ही अच्छी बात लिखी है जैसे लोक में कोई धन का अर्थी मनुष्य राजा के बारे में जानता है और राजा को जानकर उस पर श्रद्धान करता है। उसके अनुकूल अनुकरण करता है अनुचरण करता है। प्रयत्नपूर्वक राजा के अनुकूल वर्तन करता है ताकि राजा खुश होकर उसे कुछ धन दे दे, उसे कुछ इनाम दे दे। राजा को जानने का, राजा के स्वभाव को जानेगा। राजा क्या पसंद करता है यह जानेगा। और फिर उसके सामने ऐसा व्यवहार करेगा ताकि राजा खुश हो जाए और उसको कुछ दे दें। कहते हैं इसी तरह अगर तुम्हारे अंदर मोक्ष की कामना है, तो अर्थ की कामना के लिए राजा के पास जाओ। मोक्ष की कामना है तो इसी प्रकार जीव रूपी राजा को जानो।

(51:29) ‘सद्दहेदब्बो’ उसका श्रृद्धान करो और ‘अनुचरएवदब्बो अप्पन्नो’ उसका अनुचरण भी करो। क्यों? ‘सो चेव दू मोक्खकामिन’ मोक्ष की कामना के लिए अपने जीव रूपी राजा को जानो उसको श्रद्धान में लो और उसके अनुरूप आचरण करो तो मोक्ष की प्राप्ति होगी। तो जीव राजा को जानो क्योंकि सच्चे अर्थ में हो तो तुम राजा पर रंक बने हुए हो क्योंकि तुम्हें अपनी शक्ति का भान नहीं, तुम्हें अपने सामर्थ्य की पहचान नहीं, तुम्हें अपने वैभव का ज्ञान नहीं और तुम्हें अपनी ताकत का भान नहीं। जब यह हो जाए तो पल में उसे पहचानोगे। जीवन का कल्याण होगा और जीवन का पथ प्रशस्त होगा। अपने जीवन का पथ प्रशस्त करना चाहते हो तो अपने भीतर के उस चिन्मई वैभव को पहचानो। अपने भीतर के साम्राज्य को जानने की कोशिश करो। धन-वैभव तो बाहर की चीज है उन्हें एक दिन छोड़ना ही होता है। ठुकराना ही पड़ता है। गुण वैभव को जो प्राप्त कर लेते हैं वह निश्चयत: महान बनते हैं।

हमारे भीतर वह परम तत्व प्राप्त हो वह नॉलेज हम पाएं और उस की बदौलत कीन, की(key),किक और किंग इन चारों बातों को ध्यान में रखें।

Share

Leave a Reply