Letter V- वेल्यू, व्यू, विक्ट्री, वर्च्यू

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Letter V- वेल्यू, व्यू, विक्ट्री, वर्च्यू

हीरे का मूल्य है, काँच की कोई कीमत नहीं। हीरा मूल्यवान है क्योंकि उसमें एक अलग प्रकार की चमक है और वह सहज सुलभ नहीं, दुर्लभ है। काँच का मूल्य नहीं क्योंकि उसमें वैसी कांति नहीं और वो सहज सुलभ है। संसार में सब तरह की चीजें हैं, कुछ मूल्यवान और कुछ मूल्यहीन। हर वस्तु का लोग अलग- अलग तरीके से मूल्यांकन करते हैं और उसे उतना मूल्य देते हैं। लेकिन इन सब के मध्य सबसे अधिक मूल्यवान यदि कुछ है- वो हमारा जीवन है। हम सबका मूल्यांकन करते हैं, जीवन का कोई मूल्य नहीं आँक पाता और ये सच्चाई है कि दुनिया की सब चीजें मूल्यवान हो सकती है, पर जीवन अमूल्य है। उसे मूल्य देकर खरीदा नहीं जा सकता, बेचा नहीं जा सकता। आवश्यकता है उस अमूल्य के मूल्य को पहचानने की। मनुष्य के जीवन की एक बहुत बड़ी दुर्बलता है कि वो सबका मूल्यांकन करता है लेकिन जो अमूल्य है उसका मूल्य नहीं समझता जिसके होने पर ही सबका मूल्य है। तुम्हारे पास कितनी भी मूल्यवान चीजें हों, उसका मूल्य कब तक? कब तक? हाँ? जब तक उसका मूल्य आंकने वाला हो, तब तक। तुम्हारे पास खूब अच्छे आभूषण हों, आवरण हों, ज्वैलरीज (jewelleries) हों, मूल्यवान हैं, वैल्यूएबल हैं लेकिन कब तक? जब तक तुम में प्राण हैं। वही आभूषण यदि किसी मुर्दे को पहना दिया जाए तो उसका कोई मूल्य नहीं। संत कहते हैं- ‘इस सच्चाई को समझो’ यथार्थत: मूल्य किसका? उसका जिन्हें तुम अभी तक मूल्य देते रहे? या उसका जिसे तुमने आजतक पहचाना नहीं?

आज बात वैल्यू (value) की है। V for value.
तुमने अभी तक किसे वैल्यू दिया? जड़-धन को या जीवन-धन को? पदार्थ को या परमार्थ को? पैसे को या परमेश्वर को?
किसे मूल्य दिया? किसकी वैल्यू है तुम्हारी दृष्टि में? कभी सोचा? तुम्हारी नजर में वैल्यू किसकी?
देखेंगे तो शायद ये ही पाएंगे कि अभी तक हमने जो भी वैल्यू आँकी है, वह सब जड़ पदार्थों की। चेतन से मेरा अब तक का कोई संपर्क ही नहीं रहा। मैंने उसे पहचाना ही नहीं, जाना ही नहीं। हर व्यक्ति अपना एसेसमेंट करता रहता है समय-समय पर। मेरे कितने एसेट्स हैं? क्या बोलते हैं आप लोग? दीवाली आने वाली है। नेट वर्थ कितनी है? बोलते हैं आप लोग? भैया! तुमने सबका मूल्यांकन किया। इवन घर के कबाड़ख़ाने में रखी हुई चीजों का भी तुमने कोई मूल्यांकन किया होगा कि कबाड़ी को बेचेंगे तो रूपए, दो रुपए तो ले ही लेगा। हैं ना? पर अपने जीवन का क्या मूल्य आँका? कोई हिसाब- किताब? कोई लेखा- जोखा? तुम्हे लगा कि इन सब के मध्य सबसे कीमती यदि कुछ है तो मेरा जीवन है। कभी सोचने में आया? क्यों नहीं? इस विषय पर अब तक क्यों नहीं सोच पाए? तुमने इसका मूल्य अब तक क्यों नहीं पहचाना? इसको महत्व क्यों नहीं दिया? ये एक अहम प्रश्न है। अपने मन में ये सवाल खड़ा करो कि वैल्यू किसकी? एक आदमी मकान बनाता है तो उस मकान में लगने वाले ईंट, गारे का, सबका हिसाब-किताब होता है। होता है? पाई-पाई का हिसाब जोड़ते हो। पर उस मकान पर रखे जाने वाले एक-एक ईंट के साथ जो एक-एक साँस खप रही है, उसका कोई हिसाब? और मान लो- उस मकान पर रखी जाने वाली अंतिम ईंट के साथ व्यक्ति की आखिरी साँस चले जाए, तो उसका क्या मूल्य? बोलो ऐसा हो सकता है कि नहीं? होता है। ये भी होता है। कई ऐसे प्रसंग आए जिसमें आदमी ने गृह प्रवेश किया और दरवाजे पे ही चल दिया। हाँ! मैं पूछना चाहता हूँ कि यदि उस मकान पर रखी जाने वाली आखिरी ईंट के साथ व्यक्ति की आखिरी साँस चले जाए, तो उसकी क्या कीमत? तुमने सबकी कीमत आँकी, पर जो इसकी कीमत आँकता है, उसकी अनदेखी क्यों की? उसको पहचानो।

आध्यात्मिक जीवन यात्रा की शुरुआत स्वयं को पहचानने से होती है। जिस दिन तुम अपने आप को पहचान लोगे, उसे मूल्य देना शुरू कर दोगे, उसका महत्व आँकना शुरू कर दोगे, तुम्हारे जीवन की दिशा और दशा सब परिवर्तित हो जाएगी। उसे मूल्य दो। उसे पहचानो। जड़-वैभव तो मनुष्य अनेक बार प्राप्त करता है और खोता है। जीवन धन को पहचानने की कोशिश करो। मनुष्य अपने जीवन में चाहे कितनी संपदा इकट्ठी करे, चाहे जितना प्रभाव जमा ले, चाहे जैसी प्रतिष्ठा पा ले लेकिन वे सब तभी तक काम में आती हैं जब तक की जीवन है। इन सब का स्थान जीवन से नीचे है। इसे पहचानो, अपने जीवन को ऊपर रखो, बाकी सबको नीचे। काश! ऐसी पहचान हो, तो जीवन की धारा बदल जाए। लोग जीवन जीते हैं। बस जी के जीवन गुजार देते हैं। सारी ज़िन्दगी को जी लेने के बाद भी अंत तक अपने जीवन का मूल्य बोध नहीं हो पाता। कितना दुर्लभ जीवन है? कितनी कठिनाईयों से हमें प्राप्त हुआ है? इसे तो समझें। पर क्या कहें? जितनी दुर्लभता से हमने जीवन पाया, लोग उतनी सुलभता से इसे खो रहे हैं। इस बेशकीमती जीवन को सही दिशा दो। इसका मूल्य समझो।

देखिए! कोई वस्तु आपके घर में रहती है, अनेक प्रकार की चीजें रहती हैं। मूल्यवान चीजें भी होती हैं, कम कीमत की चीजें भी होती हैं और अत्यंत साधारण चीजें भी रहती हैं। रहती हैं? कुछ आइटम को आप अपने घर के सेफ में सेफ करके रखते हैं और कुछ चीजें ऐसी होती हैं, जिन्हें आप दरवाज़े की ओंट में रख देते हैं। बोलो सेफ में किसे रखते हो और दरवाज़े की ओंट में किसे रखते हो? हाँ? बोलो! हाँ? महाराज! ज्वैलरी को तो हम सेफ में रखते हैं और झाड़ू को दरवाज़े के बाजू में। हैं ना? ज्वैलरी को रोज पहनो या ना पहनो, झाड़ू तो रोज़ लगानी पड़ती ही है। उपयोग की दृष्टि से देखा जाए, तो ज्वैलरी से ज्यादा उपयोग झाड़ू का है। लेकिन तुम झाड़ू को खुलेआम रख देते हो। ज्वैलरी को खुलेआम रखने की भुल कभी नहीं करते। यह झाड़ू बहुत उपयोगी है, काम की है, ऐसा सोच कर उसे सेफ में रखने की कोशिश कभी नहीं करते। क्यों? क्यों? तुम्हें पता है झाड़ू सहज- सुलभ है। इसे कोई उठाएगा भी नहीं और कदाचित कोई उठा के ले भी गया तो सहजता से मिल जाएगी। लेकिन मेरी ये जो ज्वैलरी है, और वो भी डायमंड की बड़ी दुर्लभ है। बड़ी दुर्लभ है। इसे कोई भी उठा के ले जा सकता है और एक बार खोने के बाद दुबारा पाना मुश्किल है। यही समझ है ना? तो तुम हीरे की दुर्लभता को समझते हो, उसकी हिफाजत करते हो। हीरे से भी कीमती इस जीवन की दुर्लभता को जिस दिन समझ जाओगे उसी पल हिफाजत में जुट जाओगे। जीवन तो हीरे से भी दुर्लभ है। इसकी हिफाजत कीजिए। इसके प्रति सावधान होइए। इसे व्यर्थ बर्बाद मत कीजिए। तो ये वैल्यू समझिए।

मनुष्य की एक बड़ी दुर्बलता है- ‘कोई भी वस्तु जब उसे उपलब्ध होती है, तब तक उसका उसे मूल्य नहीं होता। जब हाथ से जाने लगती है, तब उसे उसका मूल्य समझ में आता है’। चौबीस घंटे साँस लेते हैं। श्वासों का मेरे जीवन में क्या स्थान है, इसका कभी पता लगता है? मैं एक श्वास के बल पर जी रहा हूँ, इसका कभी आभास होता है? होता है। कब? जब श्वास उखड़ने लगती है तब। अलग से ऑक्सीजन लेना होता है तब। अरे! श्वास का मेरे जीवन में कोई महत्वपूर्ण रोल है, तब समझ में आता है। बत्तीसी मुँह में है। एक दफह भी जीभ बत्तीसी पर नहीं जाती। पर किसी दिन एक दाँत बाहर निकल जाए तो, चौबीस घंटे जीभ वहीं जाती है। बार-बार बार-बार जीभ वहीं जाती है। क्यों? जब तक दाँत सलामत थे दाँत का पता नहीं था। दाँत खोने के बाद दाँत का पता समझ में आता है, महत्व समझ में आता है। जब तक जीवन सलामत है, तुम्हे जीवन का मूल्य पता नहीं होता। जब जीवन खोने को होता है तब लगता है कि मेरा जीवन कितना कीमती था। मैं कुछ कर नहीं सका। मरते समय इंसान सोचता है- अरे! मैंने इतना लंबा-चौड़ा सुदीर्घ जीवन पाया। और मुझे जो करना था वो तो कर ही नहीं सका। काश! मैं पहले चेता होता। अब तो मेरी शरीर की स्थिति भी इतनी शिथिल हो गई। कुछ कर नहीं सका। कर क्या नहीं सका करने लायक भी नहीं बचा। होता है कि नहीं? आखिरी समय में सब रोते हुए अपना जीवन बिताते हैं। संत कहते हैं- ‘जीवन में जागते हुए जिओ। समय से पहले अपने आप को पहचनो और अपने जीवन की दिशा को परिवर्तित कर लो। यदि ऐसा करोगे, तो तुम्हारा जीवन धन्य हो जाएगा।‘

जीवन का मूल्य समझें- नंबर वन और दूसरी बात- जीवन मूल्यों को आत्मसात करें।
वैल्यू! आजकल कहा जाता है- वैल्यूज डाउन हो रहे हैं। हैं ना? वैल्यूज डाउन हो रहे हैं। मूल्यों का अवमूल्यन हो रहा है। ये क्या है- मूल्य? मूल्य क्या है? जीवन और जीवन मूल्य। जिस दिन तुम जीवन के मूल्य को समझोगे, उसी दिन तुम्हारे जीवन में मूल्यों की प्रतिष्ठा होनी शुरू हो जाएगी। जीवन मूल्य यानि जीवन के मूलभूत गुणों की अभिव्यक्ति होनी चाहिए। मैंने मनुष्य जीवन पाया, अपने भीतर मनुष्यता को प्रतिष्ठित कर पाया या नहीं? ये देखने की कोशिश करें। जीवन तो जन्म से सबको मिल जाता है। जीवन मूल्य हमे अपने आचरण से प्रतिष्ठापित करना पड़ता है। हमने बीज बोया। पेड़ भी बड़ा बन गया लेकिन उसमें फूल फल ना लगें तो उस बीज को बोने का कोई लाभ नहीं। ऐसे ही जीवन पाया, लंबा चौड़ा जीवन पा लिया। लेकिन सुदीर्घ जीवन पाने के बाद भी अपने आप को मानवीय गुणों से जोड़ नहीं पाए तो हमारा जीवन व्यर्थ है। जीवन मूल्य हमारे अंदर प्रतिष्ठापित होनी चाहिए। जब तक उदात्य जीवन मूल्यों को हम आत्मसात नहीं करते, तब तक हमारे जीवन का कोई लाभ नहीं है। तो जीवन मूल्य क्या है? धर्म को आत्मसात करो। सद्गुणों को आत्मसात करो। अहिंसा, प्रेम, करुणा, आत्मीयता, परस्परता, बंधुत्व, क्षमा, सहनशीलता, मृदुता, विनम्रता और कोमलता जैसे उदात्य जीवन मूल्यों को जो आत्मसात कर लेता है, सारे संसार में अपने आप उसका मूल्य और महत्व बढ़ जाता है। मैं आपसे पूछना चाहता हूँ- आपकी निगाहों में किस व्यक्ति का मूल्य अधिक है? जिसके पास सत्ता हो, संपत्ति हो, शक्ति हो उसका या जो व्यक्ति सदाचारी हो, संयमी हो, सद्व्यवहारी हो, मिलनसार हो उसका। किसका मूल्य अधिक है? किसको आप मूल्य देंगे? ईमानदारी से बोलना। हाँ? महाराज! ऊपर से मूल्य देंगे तो उनको जिनके पास सत्ता, संपत्ति और शक्ति हो। लेकिन अंतर्मन से पूछोगे तो हमारे हृदय में उसी को स्थान होगा जिसके जीवन में सदाचार हो, सात्विकता हो, सद्व्यवहार हो, सद्गुण हो। हम उसे महत्व देंगे। हैं ना ये सच्चाई? अंतर्मन से कोई उन्हें नहीं पसंद करता। मुँह पर उनकी चाटुकारिता भले कर दें, पीठ पीछे सब उन्हें गाली देते हैं- थर्ड क्लास आदमी, बेईमान आदमी। होता है कि नहीं होता? बोलो! लेकिन सदाचार से जुड़ा हुआ मनुष्य, साधारण भी क्यों ना हो; उसके प्रति उसके मन में सम्मान होता है। तो वैल्यू किसकी? जो सत्ता, संपत्ति को जोड़ा उसकी या सदाचार को अपनाया उसकी। किसकी वैल्यू? आप देखिए! आप सब धन पैसा जोड़े हुए हो। एक आप लोग हो और एक मैं हूँ। आप लोग हो और एक मैं हूँ या हम जैसे साधु हैं। वैल्यू किसकी? हाँ? बोलो! किसकी वैल्यू? नीचे बैठे हो उसकी या जिसे तुमने ऊपर बिठाया है उसकी। ऐसा मैं नहीं कहता कि मेरी वैल्यू है। पर आप लोग बोलो कि आप वैल्यू किसको देते हो। क्यों बिठाया मुझे ऊपर? तुम्हारे पास जो है, वो मेरे पास है नहीं और जिसके पीछे तुम रात दिन पागल होते हो, वो भी मेरे पास नहीं है। फिर इतनी वैल्यू क्यों? हाँ? क्यों? महाराज! जो आपके पास है, वो किसी के पास नहीं है। वस्तुत: किसी सदपुरूष की वैल्यू होती है, तो उसके रूप के कारण नहीं। अगर उसको कोई वैल्यू मिलती है, तो उसके चरित्र के कारण मिलती है। आज जिस मनुष्य का चरित्र ऊंचा होता है, उसे लोग अपने आप मूल्य देते हैं।

चरित्र को मूल्य दिया जाता है। तो जीवन में मूल्य पाना चाहते हो, चरित्रवान बनो। आजकल कई लोग बोलते हैं- मेरी कोई वैल्यू ही नहीं। मेरी क्या वैल्यू। सब वैल्यू बोलते हैं। छोटा सा बच्चा- मेरी वैल्यू। बहुत अच्छी बात है। काश! तू अपनी वैल्यू तो समझ। तुमने अपनी वैल्यू समझी है रिस्पेक्ट में, तुमने वैल्यू समझी है रुतबे में, तुमने वैल्यू समझी है रुपए में, तुमने वैल्यू समझी रुप में। दौलत और शोहरत में ही तुमने अपनी वैल्यू समझ रखी है। तुम्हे कितना महत्व मिला इसे ही तुमने वैल्यू समझी। काश! तुम्हे ये पता होता कि मैं कितना महत्वपूर्ण हूँ। तुम्हे अपनी वैल्यू का पता होता, तो फिर किसी कि वैल्यू की जरूरत ही नहीं पड़ती। तुम्हे लगता कि मुझे वैल्यू की जरूरत नहीं क्योंकि मेरी जो वैल्यू है उसे कोई चुका ही नहीं सकता। अपने आप को पहचानो। चरित्र ही हमारे जीवन का सबसे बड़ा मूल्य है। अपने अंतस्चारित्र को उज्जवल करिए। आप की वैल्यू बढ़ेगी। देखिए! भारत में चरण पूजने की परंपरा है। हमारे शरीर में चरणों को सबसे निकृष्ट अंग माना जाता है। किसी को हमारा पाँव लग जाए, तो बुरा लगता है। लगता है? पाँव लग जाने पर बुरा लगता है और पाँव लगने को अच्छा मानते हैं। पाँवलागु बोलते हैं ना। पाँव लगना यानि पाँव पडना। पायलागु, पाँवलागु, चरण स्पर्श। तो चरण लग जाए तो बुरा लगता है और चरनों से लग जाओ, तो अच्छा लगता है। क्यों? पाँव लगने की प्रवृत्ति क्यों? कभी आपने सोचा? और चरणों में किसको लगाया जाता है? शीर्ष को। ये उत्तमांग है। चरण निकृष्ट अंग है। लेकिन उत्तमांग को चरणों में रखा जाता है। क्यों? चरण चरित्र का प्रतीक है, आचरण का प्रतीक है। और ये भारत की विशेषता है- चरित्र की पूजा होती है, चरणों से लग जाने वाली धूल भी माथे में लगाए जाने योग्य हो जाती है। अपनी वैल्यू बढ़ाना चाहते हो। सुचरित्र को अपनाओ। अपने चरित्र को उज्ज्वल बनाओ। तुम्हारा वैल्यू अपने आप बढ़ जाएगा। लोग धन- पैसे को बढ़ाना चाहते हैं, उसे ही वैल्यू देते हैं। संत कहते हैं- ‘धन जोड़ना भी सरल नहीं है। तुम्हे धन जोड़ने के लिए धन को बढ़ाने के लिए कण-कण जोड़ना पड़ता है। धन को बढ़ाने के लिए कण-कण जोड़ना पड़ता है तो गुण को बढ़ाने के लिए क्षण-क्षण खपना पड़ता है’। एक-एक क्षण का उपयोग करना पड़ता है। अपने एक-एक क्षण का उपयोग करो, तब तुम्हारे भीतर के गुण का वैभव बढ़ेगा। गुण भंडार बढ़ेंगे। उसकी तरफ अपनी दृष्टि होनी चाहिए।
तो पहली बात- वैल्यू, दूसरी बात- व्यू (view).

व्यू यानि दृष्टि, दृष्टिकोण, विजन। दृष्टि बदलोगे तो वैल्यू पाओगे। तुम्हारी दृष्टि किस पर? क्या दृष्टि है तुम्हारी? क्या अभिप्राय है तुम्हारा? क्या उद्देश्य है तुम्हारा? क्या ध्येय है तुम्हारा? बोलो, महाराज! अभी तक तो एक ही दृष्टि थी- ‘राम नाम जपना, पराया माल अपना’। ये ही दृष्टि थी। हैं ना? अभी तक एक ही दृष्टि थी- मौज, मजा और मस्ती। अभी तक एक ही दृष्टि थी- पदार्थ और पदार्थजन भोग। अभी तक एक ही दृष्टि थी- राग और रंग। चलो! थी कहो तो कोई चिंता नहीं। थी, सबकी थी, तुम्हारी क्या, हमारी क्या सबकी थी। तीर्थंकरों की भी कभी यही दृष्टि थी। थी में खतरा नहीं है, है की बात करो। अब क्या है? बदली कि नहीं बदली? व्यू चेंज हुआ या नहीं हुआ? विजन बदला या वही है? बोलो! दृष्टि बदली? अगर बदल गई तो खैर है और नहीं बदली तो खैरियत नहीं। नहीं बदली तो खैरियत नहीं, बदलना पड़ेगा, अपने आप को बदलना पड़ेगा, स्वयं को संभालना पड़ेगा, स्वयं में संभलना होगा। अपने आप बदलिए, अपनी भोगोन्मुखी वृत्ति को बदलकर पर्मार्थॉन्मुखी बनिए। परमार्थ से अपने आप को जोड़ने की कोशिश कीजिए, जीवन तब आगे बढ़ेगा। तभी हम उन्नति के सोपानों पर चढ़ने में समर्थ होंगे। एक बार मनुष्य की दृष्टि बदल जाती है, तो सम्पूर्ण जीवन बदल जाता है, दृष्टि के बदलने से।

मेरे संपर्क में एक व्यक्ति आया, जिसने अपने जीवन की बयालीस वर्ष तक की उम्र में पैसा कमाया और भोग विलासिता में ही अपना जीवन गवाया। बयालीस वर्ष तक उसने धर्म- कर्म को कहीं कोई स्थान ही नहीं दिया। उसका एक ही उद्देश्य था- ‘खाओ- पिओ, मौज करो’। खूब पैसा जोड़ा। उससे उस समय कोई धर्म की बात भी करता, कल्याण की बात भी करता, तो वो उसको लताड़ दिया करता था। उसे अपने पैसों का बड़ा मद था और उसके मन में ये विश्वास था कि पैसे में वो ताकत है, जिससे चाहे जो हो सकता है। लेकिन उस व्यक्ति के जीवन में घटित एक घटना ने उसे आमूल- चुल परिवर्तित कर दिया। उसकी धर्मपत्नी की किडनी फेलियर हो गई। उस समय सब तरफ उसने हाथ- पाँव मार लिया। कुछ इंफेक्शन ऐसा हुआ कि किडनी ट्रांसप्लांट करने के बाद भी खतरा था। डॉक्टरों ने कह दिया- ट्रांसप्लांट करना भी सरल नहीं है, अब केवल डायलिसिस से काम चलेगा। तब उसे लगा कि जिन पैसों के पीछे मैं गुमान करता था, आज वे पैसे मेरी पत्नी की ज़िन्दगी बचाने में समर्थ नहीं हो रहे। जिस शरीर के पीछे मैं इतना नाज़ करता था, आज वो शरीर किसी काम का नहीं है। कहते हैं ना- ‘मरता क्या नहीं करता’। उसका मित्र उसे मेरे पास ले आया। डिप्रेशन में आ चुका था। उसे अपनी संपत्ति व्यर्थ लगने लगी थी। जीवन से हार चुका था। मेरे पास आया, मैंने उसे सम्बोधा, मोटिवेट किया, उसकी चेतना को जगाया और उसे इस बात का एहसास कराया कि ध्यान रखो- ‘धन, पैसा, शरीर और भोग विलासिता एक सीमा से आगे नहीं चलते। अपनी आत्मा को पहचानो। तुम कौन हो उसे जानो और संसार के संयोग वियोग तो बनते बदलते रहते हैं। तुम्हे तुम्हारी पत्नी का संयोग जितने दिन का होना है, उतने ही दिन का होगा। आयु जब तक है, तब तक कोई उसे हिला नहीं सकता और आयु ख़तम हो जाए, तो कोई जीला नहीं सकता’। उसको मैंने समझाया, कुछ अच्छे कार्य करने की प्रेरणा दी, णमोकार की आराधना करने की बात की। उसका कुछ पुण्य जागा, पत्नी का इंफेक्शन कम हुआ। समर्थ था, सिंगापुर जाकर किडनी भी ट्रांसप्लांट करा लिया। आज पत्नी ठीक है, लेकिन उसकी दृष्टि बदल गई। जिस आदमी को धर्म के नाम पर चिढ़ होती थी, आज उसे लगता है- ‘धर्म ही जीवन का त्राता है, धर्म के बिना कोई किसी को संभाल नहीं सकता’। व्यू बदल गया, बस ये है, कहते हैं ना- ‘ठोकर खाने के बाद ही ठाकुर बना जाता है’। कुछ ठोकर खा करके संभलते हैं, तो कुछ दूसरों को ठोकर खाता देखकर संभलते हैं। ठोकर खाकर के संभलें तो कोई मज़ा नहीं, पर दूसरों को ठोकर खाता देखकर संभल गए, तो इससे बड़ा कोई ओर मज़ा नहीं। सब ठोकर खा रहे हैं, तुम संभलो और जिन्हें अभी तक अपनाए हो, उन्हें ठोकर मारो‌। ठुकराओ, अपने जीवन को आगे बढ़ाओ, अपनी दृष्टि को मोडो। अन्ततः आना तो यहीं पड़ेगा, आज आओगे तो और कल आओगे तो। व्यू को चेंज कीजिए, दृष्टि को मोड़िए, अन्तर्दृष्टि जगाइए। हम पुराणों में पढ़ते हैं तो देखते हैं कि एक पल पहले तो भोगों में मगन और अगले ही क्षण दृष्टि बदली तो वैराग्य का उदय। कई कहानियाँ मिलती हैं। किसका खेल है? दृष्टि का खेल। एक बार दृष्टि बदल जाए, तो सम्पूर्ण जीवन बदल जाता है।

बुद्ध ने एक वृद्ध को देखा था, एक रोगी को देखा था और एक मृतक को देखा था। उसकी दृष्टि बदल गई, बुद्ध प्रबुद्ध हो गए। कहानी आप सब को पता है- वृद्ध है- मैं भी वृद्ध होऊंगा, रोगी- मैं भी रोगी होऊंगा, मृतक- मुझे भी मरना पड़ेगा। हाँ! संसार में जन्म-जरा-मृत्यु लगी है। दिशा बदल गई, जीवन की धारा बदल गई, बुद्ध प्रबुद्ध बन गए। तुम अभी भी बुद्धू बने हो। कब संभलोगे? खुद वृद्ध हो गए, हेयर डाई कराना शुरू कर दिए। कई बार अस्पताल पहुंच गए, फिर भी नहीं संभल रहे और कितनों को शमशान पहुंचा दिए, फिर भी नहीं समझ रहे हो। कब संभलोगे? कब समझोगे? कब सुधरोगे? अब तो चेतो। आखिर ये कब तक चलेगा? व्यू बदलिए। जो भीतर की तत्व है, उसकी वैल्यू को समझोगे, व्यू बदलेगा और दृष्टि के बदलते ही सृष्टि बदल जाएगी। हमको खुद को बदलना होगा। अपने आपको भीतर से तैयार करना होगा।
नंबर तीन- विक्ट्री (victory).

विक्ट्री मतलब जीतना। जीतो। किसको जीतो? अपने आप को जीतो, अपना मूल्य समझो। देखो एक प्रसंग याद आ गया बीच में- मूल्य का चक्कर क्या होता है? एक आदमी, विक्ट्री के पहले ये बात कहूँ, आप लोगों को पूरा प्रवचन याद रहेगा।

एक आदमी को पता लगा कि उसके नगर में कोई संत आए हैं और वो पशु-पक्षियों की भाषा जानते हैं। लग गया उनकी सेवा में और संत ने करुणा कर उसे पशु-पक्षी की भाषा सीखा दी। वो सब पशु-पक्षी की भाषा सीख गया। पक्षियों की भाषा विशेषतः जाना। एक दिन उसके घर के आंगन में एक पेड़ था, पेड़ पर दो मैना बैठी थीं। आपस में बातें कर रही थीं- इस आदमी का जो गधा है ना, वो दो दिन बाद मर जाएगा। सुना, चिंतित हो गया- गधा है, दो रोज़ बाद मर जाएगा। गया बाज़ार में ओने- पोने दाम में बेच दिया और देखा, पता लगाया दो रोज़ बाद वो गधा मर गया। उसने कहा- ये पक्षी की भाषा बड़े काम की है। आज अगर मुझे पता नहीं होता तो गधा जाता, दाम भी चला जाता। अब दाम तो आ गया। हफ्ता भर बाद, दो तोते बोले कि चार दिन बाद इसका घोड़ा मर जाएगा। मैने की बात की सत्यता उसे पता थी। वो सीधे गया और घोड़े को भी बाज़ार में बेच आया। पता लगाया- ठीक चौथे दिन बाद घोड़ा भी मर गया। फिर एक दिन दो चिड़िया आपस में बातें कर रही थीं और चिड़िया ने कहा कि तीन दिन बाद इसका बैल मर जाएगा। उसने बैल भी बाज़ार में बेच दिया। पैसे पा गए, पता लगाया- तीन दिन बाद उसके बैल भी मर गए, बड़ा खुश हुआ। पक्षियों की भाषा सीख करके बहुत खुश हुआ। दिन चला, एक रोज़ उसने देखा- दो कौवे आपस में बात कर रहे थे कि ये आदमी तीन दिन से ज्यादा नहीं जीएगा। तीन दिन से ज्यादा नहीं जीएगा, घबरा गया, अब क्या करूं? हे भगवन! पहुंच गया उसी संत के पास। महाराज! कुछ उपाय कीजिए, महाराज कुछ उपाय कीजिए। बोले- क्या बात हो गई? बोले- कौवे बोल रहे थे कि मैं तीन दिन से ज्यादा नहीं जीऊंगा। संत मुस्कुराए- अरे! कौवे तो बोलते रहते हैं, उनका काम है, उनके चक्कर में क्यों फस रहे हो? नहीं महाराज! कौवा बोला है, जरूर गडबड होगा, अब तो कोई उपाय बताइए। बोले- क्यों पक्षियों की भाषा पर इतना परेशान होते हो। बोल दिए सो बोल दिए, जो होना होगा सो हो जाएगा। नहीं महाराज! गडबड नहीं, मैंने देखा- पहले मैना बोली कि गधा मरेगा- गधा मर गया, तोता बोला घोड़ा मरेगा- घोड़ा मर गया, चिड़िया बोली कि बैल मरेगा- बैल मर गया। बोले जब गधा, घोड़ा और बैल की बात आई, तब तो तुम यहाँ नहीं आए। तब क्या किया? बोले- जैसे ही उसने बोला कि गधा मरेगा- हमने गधे को बेच दिया; घोड़ा मरेगा- हमने घोड़े को बेच दिया, बैल मरेगा- हमने बैल को बेच दिया। तो संत मुस्कुराते हुए कहे कि एक काम करो, जो काम तुमने गधा, घोड़ा और बैल के साथ किया वो अपने साथ भी कर लो। गधा, घोड़ा और बैल को बेचा जा सकता है पर जीवन को बेचा नहीं जा सकता और दाम देकर जीवन को खरीदा भी नहीं जा सकता। इस सच्चाई को जिस दिन जान लोगे, उसी दिन तुम्हारा व्यू बदल जाएगा और विक्ट्री के मार्ग पर आगे बढ़ जाओगे।

अपने आप को चेंज करना सीखिए। अपने भीतर बदलाव घटित कीजिए। v- विक्ट्री, विजय प्राप्त करें। आजकल सब किसी को जीतना चाहते हैं और जीत जाते हैं तो बडे गर्वस्फीत मुद्रा में कहते हैं- वी बनाते हैं। विक्ट्री, हम जीत गए, सामने वाले को डिफीट करके। हैं ना? वी हो गए, जीत लिए, उसको डिफीट कर दिए। ठीक है, औरों को जीतना बहुत सरल है, अपने आप पर विजय पाना बहुत कठिन है। अपने आप को जीतो, औरों को जीतने वाले खुद से हार जाते हैं। जीतें। किसे जीतें? अपने दोषों को जीतें, अपनी दुर्बलताओं को जीतें, अपने दुर्गुणों को जीतें। दोष, दुर्बलता और दुर्गुणों को जीत लोगे तो दुःख अपने आप दूर हो जाएगा। देखो, कहाँ – कहाँ फॉल्ट है? कौन- कौन से दोष हैं? कौन- कौन सी दुर्बलता है? कौन- कौन से दुर्गुण हैं? उन्हें मुझे जीतना है। उसे जीतने कि कोशिश करो। उन्हें हम जितनी तत्परता से जीतेंगे, हमारे जीवन में उतना ही सुधार होगा और उतना ही निखार होगा। तो जीतिए, सब दूसरों को जीतना चाहते हैं। दूसरों को दबाया जा सकता है, जीता नहीं जा सकता। दूसरों को हराया जा सकता है, जीता नहीं जा सकता। जीता तो केवल खुद को जाया जा सकता है, अपने दोषों को नष्ट करके। हराना सरल है, दबाना सरल है, जीतना कठिन है। अपने दोषों को हम जीत गए, तो काम हो गया।

आप सब जैन हो, अपने आप को जैन कहते हो, जैन का मतलब? हाँ? अपने आप को जीतें नहीं, जैन मतलब जिन को मानने वाला। और जिन कौन? जो अपने आप को जीते। पुण्य के योग से जैन बन गए, पुरुषार्थ के प्रभाव से जिन बनने का रास्ता अपनाओ, अपने आप को जीतना शुरू करो। जिन बनो, जैन तुम जन्म से बन गए। जैन कुल में जन्म लिए, जैन बन गए। जिन बनने के लिए तो पुरुषार्थ करना पड़ेगा। जीतना शुरू करो, एक- एक करके अपनी दुर्बलताओं को दूर करने की चेष्टा करो। तब तुम्हारी जीत पक्की होगी। आप तो कुछ भी करते हो, सफलता पाते हो। कहते हैं- जंग जीत ली, एक विजय की मुस्कान चेहरे पर उभर जाती है किन्तु ये सब अस्थाई जीत है। ये बाहर की जंग को जीतना बहुत सरल, भीतर के जंग को जीतना बहुत कठिन है। उसे जीतो, तब जिन बनोगे। अपने आप को जीतिए, अपने दोषों और दुर्बलताओं को, दुर्गुणों को दूर करना सीखिए, जीवन में बदलाव आएगा।

कहते हैं- सम्राट सिकंदर, जब विश्वविजय के अभियान में भारत आया, तो भारत में उसे अनेक संतों के दर्शन का सौभाग्य मिला और सिकंदर को संतों से मिलने का शौक था। उसे पता चला, कहीं से गुजर रहा था, तो यहाँ बड़े पहुंचे हुए संत हैं। उसने अपने शागिर्दों को भेजा और कहा- जाओ, उस संत को दरबार में हाज़िर करो। संत अपनी मस्ती में लीन रहने वाले थे। जैसे ही ये समाचार और संदेश उनके पास पहुंचा, संत ने उसके कारिंदो से कहा कि मुझे किसी सम्राट से नहीं मिलना। कहा- आपको पता नहीं सिकंदर महान, विश्व विजेता सम्राट, उसके आदेश को टालने का परिणाम क्या होगा? बोले हाँ-हाँ, मैं तुम्हारे सम्राट को अच्छे से पहचानता हूँ। तुम्हारा वो सम्राट है, पर वो तो मेरे गुलामों का गुलाम है। तुम्हारा वो सम्राट है, पर वो तो मेरे गुलामों का गुलाम है और जाओ, अपने सम्राट से कहना कि अपने मालिकों के मालिक से थोड़ा तमीज से बात करे। सिकंदर के लिए ऐसी टिप्पणी कि मैं तुम्हारे सम्राट को जानता हूँ, तुम्हारे लिए वह सम्राट है, पर वो तो मेरे गुलामों का गुलाम है और जाओ तुम अपने मालिक से कहना, अपने सम्राट से कहना कि अपने मालिकों के मालिक से थोड़ा तमीज़ से बात करे। सब हैरत में रह गए, हैरान रह गए। क्या करें? सिकंदर तक बात पहुंची, सिकंदर ने ये सुना तो उसके मन में संत से मिलने की उत्कंठा प्रबल हो उठी। वो संत के पास गया। सर्दियों का समय था, संत धूप में विश्राम कर रहे थे। सिकंदर सामने आया, कहा- महाराज! मुझे पहचाना? मैं महान सिकंदर हूँ। आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ? संत ने सहज भाव से कहा- सेवा ही करना है, तो एक साइड हो जाओ। जो प्रकृति की सेवा मिल रही है, उसमें बाधक मत बनो। सिकंदर साइड हुआ, फिर सिकंदर ने कहा- कि महाराज! आप मुझे पहचानते हो? बोला हाँ, अच्छे से पहचानता हूँ। महाराज! मैं तो आपसे कभी मिला नहीं, आप मुझे कब पहचाने? बोले- तुम जैसे लोगों को मिलने की जरूरत नहीं, बिना मिले ही पहचान जाता हूँ। पर आपने मुझे अपने गुलामों का गुलाम कैसे कह दिया? संत ने कहा- देखो भाई! तुम विश्व विजय के अभियान में निकले हो, युद्ध लड़ते हो, तुम्हे गुस्सा तो आता ही होगा? बोले- हाँ, आता है। और गुस्सा करने के बाद जब तुम युद्ध लड़ते हो, युद्ध में विजय मिलती है, तो तुम्हे उसका गुरूर भी होता होगा, गुमान भी होता होगा? बोले- होता है। तुम अपने साथ इतने सारे सैनिकों को लेकर के आए हो, इनके लिए कई तरीके का तिकड़म भी तुमने लगाया होगा? और जब तुम युद्ध लड़ते हो, तो उसमें भी दस प्रकार के तिकड़म लगाते होंगे? बोले- हाँ, लगाता हूँ, उसके बिना तो युद्ध जीतना संभव नहीं। सब तरह का प्रपंच करना पड़ता है, फरेब करना पड़ता है। कई तरह के फरेब करना पड़ता है। संत ने कहा- एक बात ओर बताओ, जब तुम युद्ध जीतते हो, तो वहाँ की संपत्ति को, वैभव को हड़पने का लालच भी तुम्हारे अंदर होता होगा? बोले- होता है। तुम अपने साथ जितने लोगों को लेकर आए हो, उनको भी कई तरह के सब्जबाग दिखाएं होंगे, लालच दिए होंगे? बोले- हाँ, उसके बिना कौन आता है। तो कहा- बस इसीलिए तो मैंने तुम्हे ठीक कहा- तुम गुलामों के गुलाम हो। बोले- क्यों? तुमने अभी अपने मुख से यकीन दिलाया कि मेरे अंदर गुस्सा है, गुरूर है, फरेब है और लालच है और गुस्सा, गुरूर, फरेब और लालच के वशीभूत होकर के ही मैं इस क्रम में लगा हूँ। तो मैं तुमसे ये कहता हूँ- तुम गुस्सा, गुरूर, फरेब और लालच के गुलाम हो और मैंने इन्हे अपना गुलाम बना रखा है। तो तुम गुलामों के गुलाम हुए के नहीं हुए? मैंने इन्हे अपना गुलाम बना रखा है। ये मुझपर हावी नहीं होते, मैं इनपर हावी हूँ। तो मैंने तुमसे जो कुछ कहा, उसमें क्या ग़लत है? सिकंदर स्तब्ध रह गया और उसी मुद्रा में वो संत के चरणों में नमन किया और कहा- आप बिल्कुल सही हैं।

बंधुओं! बात बिल्कुल यथार्थ है।- ‘बाहर के लोगों को जीतना सरल है, अपने आप को जीतना बहुत कठिन है’।
हमारी कोशिश हो- हम अपने आप को जीतें, जीतें, जीतने का लक्ष्य रखें। अपनी दुर्बलताओं को नजरंदाज ना करें, पुरुषार्थ जगाकर उन्हें जीतने की कोशिश करें, हमारी वैल्यू अपने आप बढ़ जाएगी। तो वैल्यू, व्यू और विक्ट्री- ये तीन चीज़ें हमारे जीवन में आईं तो वर्च्यू (virtue) है, नहीं तो वेन (vain) है। ये अगर आ गई तो हमारे जीवन में कुछ वर्चुअल अचीवमेंट है, गुणात्मक उपलब्धि है और ये नहीं आई तो सब क्या है? इन वेन, व्यर्थ, बर्बाद। हमने अब तक अपने जीवन को बर्बाद किया। अब अपने जीवन में कुछ गुणात्मक परिवर्तन घटाकर उसे अर्थ दें, उसे सार्थक बनाएं। वर्चुअल अचीवमेंट अपने भीतर हम जागृत करें, तो वो हमारे जीवन के लिए शाश्वत उपलब्धि देगी। उसके बल पर हम अपने जीवन का उद्धार कर सकेंगे अन्यथा हमारे जीवन में जो कुछ भी है, सब यूं ही छिन्न- भिन्न हो जाएगा, सब व्यर्थ होगा। इससे पहले कि सब कुछ व्यर्थ हो, हम अपने जीवन को अर्थ देना शुरू करें, जीवन का मूल्य समझना शुरू करें और अपने जीवन को सही दिशा में आगे बढ़ाएं। इसी शुभ भाव के साथ आज अपनी वाणी को यहीं पर विराम दूंगा।

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