व्यापार में मन को स्थिर रखने का मंत्र!

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शंका

व्यापार में उतार-चढ़ाव आता है तो मन बहुत विचलित हो जाता है, तो मन को कैसे स्थिर रखा जाए?

समाधान

जो कुशल व्यापारी होता है, वह व्यापार के उतार-चढ़ाव में भी अपने मन में स्थिरता बनाये रखता है। व्यापार का अर्थ क्या है? व्यापार का मतलब यह नहीं है कि जिसमें केवल कमाई हो; व्यापार उसी को कहते है जिसमें कभी नफा हो तो कभी नुकसान हो, कभी लाभ हो, कभी हानि हो। तो व्यापार को व्यापार के रूप में देखना चाहिए – लाभ हो तो और नुकसान हो तो, उतार-चढ़ाव हो तो। यह बाजार है; बाजार कभी चढ़ता है, कभी उतरता है; चढ़ेगा तो मेरा नहीं, उतरेगा तो मेरा नहीं। मैं व्यापार कर रहा हूँ, व्यापार मेरा नहीं है, मैं तो उसका प्रबन्ध करने वाला हूँ, आ रहा है जा रहा है, बाज़ार चढ़ रहा है, बाजार उतर रहा है। मुझे अर्थ का लाभ और अर्थ का नुकसान हो रहा है; होने दो, यह निमित्त है। जैसे संयोग बनते है, वैसे उत्थान-पतन चलता रहता है लेकिन मैं अपने भीतर उतार-चढ़ाव नहीं होने दूंगा क्योंकि मैं इन सबसे ऊपर हूँ, यह सब मेरा नहीं है।

सबसे पहले तो यह समझो कि जो व्यापार है, वह मेरा नहीं है। जो पैसा है वह मेरा नहीं है, कमाई है वह मेरी नहीं है, नुकसान है वह मेरा नहीं है। आप अपने हाथ से रुपया किसी को देते हो, तकलीफ होती है की नहीं। कोई आपको रुपया देता है, तो आपको अच्छा लगता है की नहीं और फँसा हुआ रुपया आ जाए तो और अच्छा लगता है। तो यह क्या हो गया – रुपयों का लेनदेन करने से आपका चित्त प्रभावित होता है लेकिन कभी बैंक में जाकर देखा, जाते होंगे अक्सर, आजकल तो सारा काम बैंकों से ही होता हैं। जो बैंक का कैशियर होता है, वह अपने हाथों से रोज़ का कितना रुपया लेता है और देता है। एक सामान्य आदमी जितना दिन भर में लेन-देन करता है, उससे कम से कम १०० गुना तो एक कैशियर करता होगा, १००० गुना भी करता होगा। अपने हाथ से रुपया निकाल कर देता है और अपने हाथ से रुपया लेता है। तो जब लेता है, तब उसकी आँखें चमकती हुई दिखती हैं क्या और जब देता है, तो उसके चेहरे पर कोई मायूसी छाती है क्या? क्यों नहीं – क्योंकि यह उसका नहीं हैं, उसका काम तो मैनेज करना है। तो भैया, यही सूत्र दे रहा हूँ; अगर कमाया तो भी मेरा नहीं, गवाया तो भी मेरा नहीं। यह किसका है? यह कर्म का है; मैं तो मैनेजर हूँ – आ जाए तो जमा कर लो, चला जाए तो नाम चढ़ा लो। डेबिट-क्रेडिट करते जाओ और अपना जीवन आगे बढ़ाते रहो, कोई दिक्कत नहीं है, यह उतार तो यह चढ़ाव है।

मेरा क्या है? मैं अच्छी नीति अपनाऊँ, कुशलता से काम करूँ, कोई नीतिगत चूक न करूँ। यह सावधानी मेरी ज़िम्मेदारी है क्योंकि जो फर्म में संभाल रहा हूँ उस फर्म को मेरी लापरवाही से कोई नुकसान नहीं होना चाहिए। पर बाकी चीजें मेरे हाथ में थोड़ी है – चढ़ेगा-उतरेगा, चढ़ेगा- उतरेगा, तो यह जीवन का खेल है।

अभी एक सज्जन मेरे पास आए कुछ दिन पहले, उनका किसी एक ऐसे देश में बड़ा कारोबार था, वहाँ की सरकार की नीति बदल जाने के कारण सारा कारोबार ठप हो गया, सारा इन्वेस्टमेंट प्रभावित हो गया। बड़े दुःखी थे, बोले महाराज क्या करें? वहाँ का कानून ऐसा है कि वहाँ से चीज़ें लाके शिफ्ट नहीं कर सकते, शिफ्ट करेंगे तो इतनी एक्साइज और ड्यूटी लग जाएगी की वही हमारे ऊपर भारी पड़ जाएगी, पूरा बिजनेस बंद। हमने कहा, अकेले तुम्हारा हुआ क्या, बोले महाराज सबका हुआ। तो हम बोले जब सबके साथ हुआ, तो वह तुम्हारे साथ हुआ। यह तो सरकार की नीतियाँ हैं, बनती हैं, बदलती हैं; अब इसमें रोने से क्या होगा। यह बताओ, आज तुम जो बोल रहे हो सब खो गया; यहाँ तुमने जो कुछ भी पाया है वहाँ से कुछ घर आया कि सब वही लग गया? नहीं महाराज, जितना लगाया उससे कई गुना घर आ गया है। हम बोले जो घर आया उसको देखो, उसको क्यों देख रहे हो। जो खोया है उसको देखोगे तो रोते रह जाओगे और जो पाया है उसको देखोगे तो हमेशा मस्त बने रहोगे, रोने की नौबत कभी नहीं आएगी। इसलिए उतार-चढ़ाव कितने भी आए, अपने अन्दर ठहराव रखो। व्यापार है, हमेशा यह सोचो कि आज मेरे घर कमाई आई है, कल मेरे घर कोई कमाई आए इसकी कोई गारंटी नहीं, पर कमाई के प्रति हम जितनी रुचि दिखाते है, गवाई में भी उतनी ही स्थिरता दिखाए।

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