मिथ्या दृष्टि को मरण से डर पर सम्यग्दृष्टि को नहीं, फिर शरीर में वेदना बराबर क्यों?

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शंका

मिथ्या दृष्टि को मरण से डर पर सम्यग्दृष्टि को नहीं, फिर शरीर में वेदना बराबर क्यों?

समाधान

वेदना होना और वेदना के साथ उसका अनुभव करने में बहुत अन्तर है। पीड़ा होना और पीड़ित होने में बहुत अन्तर है। अज्ञानी के साथ पीड़ा ही नहीं होती, पीड़ा होने पर वह पीड़ित होता हैं और ज्ञानी के अन्दर पीड़ा होती है पर वह पीड़ित नहीं होता। वह जानता है कि “यह पीड़ा कर्म के उदय से हो रही है, शरीरजन्य विकृति से हो रही है, मुझे इसे शान्त भाव से सहन करना है।” कर्म का उदय है, उसके भीतर का यही विवेक ज्ञान उसके परिणामों को स्थिर कर देता है। 

अज्ञानी शरीर के प्रति आसक्त होता है, शरीर में ही उसकी आत्म-बुद्धि होती है। तो शरीर को छूटता देखकर वह व्याकुल चित्त हो जाता है। ज्ञानी सोचता है, शरीर तो एक दिन छूटना है, यह छूटने के लिए ही है। जैसे हम रोज वस्त्र बदलते हैं हमको कोई तकलीफ़ नहीं होती वैसे ही यह तन का चोला भी एक वस्त्र है। वस्त्र बदलना है इसमें क्षोभ कैसा? मेरी आत्मा तो सदैव शाश्वत एक रूप है। उस तत्व ज्ञान के कारण, शरीर छूटने में उसे किसी भी प्रकार की खेद खिन्नता की अनुभूति नहीं होती।

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