अंग विच्छेदन, प्रत्यारोपण और आत्मा का स्वरूप!

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शंका

आत्मप्रदेशों के सम्बन्ध में कहा गया है कि- ‘चींटी में भी वही आत्मा है और हाथी में भी वही आत्मा है। आत्मा अपना रूप शरीर के हिसाब से बदल लेती है।’ लेकिन जैसे आजकल साइंस ने तरक्की कर ली है और कभी किसी का अंग विच्छेद हो जाता है, तो वापस प्रत्यारोपण कर दिया जाता है। तो जो विच्छेदित अंग है उसमें आत्मा का क्या रूप रहता है?

समाधान

एक चिकित्सक होने के नाते आज पहली बार इस तरह का प्रश्न किसी ने  इतने वर्षों में पूछा है। यह प्रश्न है कि किसी के लिए अंग प्रत्यारोपित किया और अंग के प्रत्यारोपण से पूर्व किसी अंग का पहले विच्छेदन हुआ है, तो वहाँ जगह हो गई और जगह होने से फिर दोबारा अंग लगाया तो वहाँ रक्त संचार जब तक नहीं होगा तब तक अंग जीवित नहीं, तो क्या आत्मा के प्रदेश संकुचित होकर के बीच जीवन में भी बढ़ते-घटते हैं? 

आगम अनुसार आत्मा संकोच-विस्तार स्वभावी है। आत्मा के प्रदेशों में संकोच विस्तार होता है और इसके कारणों का वर्णन करते हुए शास्त्रों में लिखा है कि शरीरनाम कर्म के उदय से संकोच विस्तार होता है। शरीर नाम कर्म उसे जैसा शरीर देता है, उसी के अनुरूप आत्मा के प्रदेश छोटा शरीर मिलने पर संकुचित हो जाते है और बड़ा शरीर होने पर विस्तृत हो जाते हैं। एक छोटा सा प्राणी जैसे-जैसे बढ़ता जाता है उसके आत्मप्रदेश भी फैलते जाते हैं। यह एक सामान्य बात तो आगम में बताई है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि संकोच और विस्तार केवल हमारे शरीर के ही से होता है। मेरी अवधारणा यह है कि जो भी व्यक्ति इस तरह की सर्जरी कराते हैं वहाँ जैसे ही हमने अंग का विच्छेद किया आत्मा के प्रदेश संकुचित हो गए और अंग का प्रत्यारोपण करने पर शरीर नाम कर्म का तो उदय वही है शरीर नाम कर्म भव-विपाकी है, जीवन के आदि और अन्त तक एक सा उदय में रहता है। शरीर नाम कर्म के साथ कोई और कर्म की गड़बड़ी होने से आत्मा के प्रदेशों का सिस्टम (प्रणाली) बिगड़ जाती है। लेकिन यदि सिस्टम इस तरीके से कार्य कर रही हैं और रक्त का संचार हो रहा है तो हम बाह्य निमित्तों के माध्यम से भी आत्मा के प्रदेशों का विस्तार कर सकते हैं। 

आप कहोगे कि आप ये किस आधार पर बोल रहे हैं? आगम में इस बात पर कुछ नहीं बोला गया लेकिन मैं आपको आगम से ही इस बात का समर्थन देता हूँ। चूँकि आज तक कभी प्रश्न ही नहीं उठा तो उत्तर देने की भी बात नहीं होनी चाहिए। अभी-अभी आपने प्रश्न उठाया तो मेरे मन में एक जवाब आ रहा है कि आत्म प्रदेशों का संकोच-विस्तार केवल जन्म और मरण से जुड़ा हुआ नहीं है, आत्म प्रदेशों का संकोच विस्तार अन्य निमित्तों से भी होता है इसको समुद्घात कहते हैं- वेदना समुद्घात, विक्रिया समुद्घात, कषाय समुद्घात! इन समुद्घातों की स्थिति में जब आत्मप्रदेश बाहर जाकर संकुचित होते हैं या फैल करके संकुचित होते हैं तो इस प्रकार आगम में कोई नुकसान नहीं कि किसी के आत्मप्रदेश रूक गये और बाद में सर्जरी कर दी। ऊँगली कट गई, बाद में ऊँगली ट्रांसप्लांट कि तो ऊँगली में उसके संचार हो गए। इसमें कोई बुराई नहीं है। 

और एक बात! आप लोग जो सर्जरी करते हैं एक निश्चित समयावधि के अन्दर ही ट्रांसप्लांट करना होता है। दो घंटे से लेकर पचास घंटे तक ऐसा हो सकता है, ठीक ढंग से प्रिजरवेशन (संरक्षण) किया गया हो तो।

मैं आप सबसे यही कहना चाहता हूँ कि इस तरीके की जो व्यवस्थाएँ हैं, आगम कहता है जिससे वेदना समुद्घात हो तो वेदना की अधिकता में आत्मा के प्रदेश शरीर से तिगुने प्रमाण फैलते हैं और वापस संकुचित होते हैं। कषाय समुद्घात है, तो हमारे शरीर के तिगुने प्रमाण फैलते हैं और संकुचित होते हैं। आत्म प्रदेशों में विस्तार अन्य निमित्तों से भी हो सकता है, तो मैं मानता हूँ कि जहाँ हमारे आत्मप्रदेश किसी कारण वश, अंगच्छेद के कारण वश रुक गए हैं, अगर प्रक्रिया एक निश्चित समयावधि में बना दी जाए तो वह हो सकता है। जैन आगम में इसका कहीं से निषेध नहीं है। अभी इंटरनेशनल कांफ्रेंस में साउथ कोरिया से एक व्यक्ति ने इसके ऊपर पेपर प्रेजेन्ट किया था। जब पैर कट जाता है, तो उन्होंने हर घंटे में उससे पूछा कि ‘उसकी ऊँगली कहाँ है?’ तो उसकी ऊँगली उसको पहले जहाँ पैर कटा था, वहाँ तक सामान्य लग रही थी। एक-दो घंटे में वो आगे आई फिर दो घंटे में और आगे आई और जहाँ पैर कटा वो चौबीस घंटे के बाद उसने कहा अभी मुझे पैर की ऊँगली वहीं लग रही है जहाँ पैर कट गया है। तो ये वैज्ञानिक प्रमाण (साइन्टीफिक एविडेन्स) उन्होंने प्रस्तुत किया कि आत्मा के प्रदेश संकुचित होते गए और एक समय ऐसा आया कि उसके पैर के अँगूठे के बारे में आँखें बंद करके वह बता रहा था, उसकी रिकार्डिंग की गई। उसने चौबीस घंटे के बाद कहा कि अभी अंगूठा मेरा जहाँ कटा है वहाँ लग रहा है। पैर के अँगूठे की ऊँगली कटी है या पूरा पैर कटा है, यहाँ से पैर कट गया, ऊँगली कि संवेदना घुटने में आने में चौबीस घंटे लगे। इसका तात्पर्य यह है कि पैर के कट जाने के बाद भी चौबीस घंटे तक आत्मा प्रदेश का संकोच नहीं हो सका। वह धीरे-धीरे होता है।

एक और बात बताता हूँ। आत्मा प्रदेशों के संकोच, विस्तार का एक कारण और है। आगम में एक बात मिलती है कि किसी पर उपसर्ग करके हाथ-पाँव काट दिया जाए; केवल ज्ञान हो जाए तो वह सर्वांग हो जाते हैं। टुकड़े-टुकड़े कर दें मुनिराज के और केवल ज्ञान हो जाए तो केवली का शरीर सर्वांग होता है। केवल ज्ञान होने के बाद अगर वह सिद्ध परमेष्ठी हैं और किसी का एक हाथ काटा, शुक्ल ध्यान हुआ, अन्तःकृत केवली हो गए तो उनके आत्म प्रदेश एक हाथ कम नहीं होंगे। सिद्धों, चरम शरीर वालों जो होते हैं वह पूर्ण ही होंगे। तो यह बात अभी इस उदाहरण से तो मैं सौ प्रतिशत कह सकता हूँ कि जो आपका जो साइंस कहता है पूरी तरह साबित होता है।

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