मैं प्रतिदिन मन्दिर जाती हूँ, तब शास्त्र और जिनवाणी जी को व्यवस्थित जमा कर रख कर आती हूँ। लेकिन दूसरे दिन जाती हूँ तो वे फिर अस्त-व्यस्त मिलते हैं, तो अपने मन में थोड़ा क्रोध आता है। ऐसा क्यों होता है?
ऐसा इसलिए होता है कि जिनवाणी को पढ़ने वाले लोग अव्यवस्थित हैं। जो स्वयं अव्यवस्थित होगा वो क्या व्यवस्थित करेगा? यह बहुत बड़ी गलती है। जिनवाणी को अर्घ्य चढ़ाते हैं पर जिनवाणी को व्यवस्थित नहीं रखने वाले जिनवाणी का फल नहीं पाएँगे। एक जगह की नहीं सभी जगहों के मन्दिरों की कहानी है। इसलिए मैं सब से कहना चाहता हूँ कि यह आप जितने विनय से जिनवाणी को shelf (अलमारी) से बाहर निकालते हैं उतने ही विनय से और बहुमानपूर्वक उसे यथा स्थान रखना चाहिए। यहाँ-वहाँ रखने का फल अच्छा नहीं होता।
क्रोध को संयत रखते हुए भक्ति बढ़नी चाहिए। यह सोचना चाहिए कि “इनके निमित्त से मुझे जिनवाणी की सेवा करने का सौभाग्य मिल रहा है”, उन सब को धन्यवाद देना चाहिए। “नहीं तो मैं घर चली जाती, इन्हें अस्त- व्यस्त देख कर मैं उन्हें व्यवस्थित कर नहीं रही हूँ, खुद को व्यवस्थित कर रही हूँ।”
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