प्राकृत और अपभ्रंश भाषाएँ जैन संस्कृति के आधार हैं!

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शंका

अधिकांश जैन साहित्य प्राकृत और अपभ्रंश भाषा में रचा गया है। प्राकृत और अपभ्रंश भाषाएँ जैन संस्कृति के आधार हैं। दोनों भाषाओं की सुरक्षा पर कुछ प्रश्नचिन्ह लग रहे हैं। इनकी सुरक्षा, सुदृढ़ता और जीवंतता के बारे में आप अपने विचार से हमें अवगत कराएँ।

समाधान

संस्कृति हमेशा भाषा से चलती है, जब तक भाषा है तब तक हमारी संस्कृति है। जैन संस्कृति का मूल है – प्राकृत और अपभ्रंश। संस्कृत भी जैन संस्कृति का एक अंग है लेकिन यह बाद में आया है। मूल है प्राकृत! प्राकृत और अपभ्रंश को जीवित रखेंगे तभी हम अपनी संस्कृति को जीवित रख सकेंगे। हमारा मूल मन्त्र, णमोकार मन्त्र, प्राकृत में लिखा गया। जो हमारा मूल मन्त्र है, जो हमारा मूल ग्रन्थ है, उसके बारे में हमें ज्ञान होना चाहिए। इसे सुरक्षित रखने के लिए हम शास्त्रों को रक्षित करके ही इनको सुरक्षित नहीं रख सकेंगें, इनको हम तभी सुरक्षित रख सकेंगे जब हर बच्चा-बच्चा अपनी मूल भाषा को जानने के लिए उत्साहित होगा। आजकल अर्थकारी विद्या हो जाने के कारण लोग इस तरफ अपना रुझान रखना नहीं चाहते जबकि यह बहुत आवश्यक है। सबका अंग्रेजी की तरफ रुझान है, आप बहुभाषावादी बनें मुझे उससे कोई आपत्ति नहीं, पर अपनी मूल भाषा को पहचानें। कम से कम एक जानें, जो भगवान की वाणी है। भगवान की वाणी अर्धमागधी प्राकृत भाषा में थी। भगवान ने जो कहा है वह तो जानें। आज हमारे शास्त्र जिस मूल भाषा में लिखे हैं उसे तो हम जानें। अलग-अलग सम्प्रदायों के लोग अपनी-अपनी मूल भाषा को सीखने के प्रति रुचि रखते हैं और बड़े उत्साह से सुनते हैं, सीखते हैं। जैनियों को भी चाहिए कि अपनी मूल भाषा को सीखें। 

आप “जैन विद्या संस्थान के द्वारा प्राकृत अपभ्रंश अकादमी चला रही हैं। यह आप लोगों के लिए प्रेरणा है। मैं खासकर महिलाओं से कहना चाहता हूँ, आपके पास बहुत समय रहता है, यहाँ से पत्राचार कार्यक्रम चलता है। आप पत्राचार्य कार्यक्रम के माध्यम से घर बैठे कम से कम प्राकृत और अपभ्रंश भाषा तो सीखें। सर्टिफिकेट और डिप्लोमा कार्यक्रम के माध्यम से आप सीखें। इससे आपको किसी भी ग्रन्थ को मूल से पढ़ने में बहुत आसानी होगी। आप न केवल उस को पढ़ पाएँगे अपितु उनका अर्थ भी सीख पाएँगे। अपने बच्चों को भी यह बात सिखानी चाहिए कि हमारी मूल भाषा क्या है जिससे हम अपनी संस्कृति की पहचान करें। जब तक भाषा है तभी तक संस्कृति है। 

मेरे पास अमेरिका से एक व्यक्ति आये थे, मैंने पूछा कि आप लोग घर में कौन सी भाषा का प्रयोग करते हैं? बोले “महाराज, हम घर में विशुद्ध हिंदी का प्रयोग करते हैं। हम अपने बच्चों को हिंदी शाला में भी भेजते हैं क्योंकि हमें पता है जब तक हमारी भाषा है तभी तक हमारी संस्कृति होगी। भाषा से विमुख होंगे, संस्कृति भी विमुख हो जाएगी।” इसलिए अपनी भाषा को जीवित रखना जरूरी है हम संस्कृति की सुरक्षा तभी कर पाएंगे।

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