आज कल ऐसा देखा जाता है कि धर्महीन लोग बहुत फलते-फूलते दिखाई पड़ते हैं और धर्मी जीवों को कोई पूछता नहीं! आखिर ऐसी स्थिति में धर्म का क्या प्रभाव?
हर व्यक्ति के मन में ऐसा प्रश्न आता और लोक में देखने में भी मिलता है कि जितना पापी, अनाचारी, पाखंडी हो खूब पनपता दिखता है और धर्मात्मा व्यक्ति को कोई पूछता भी नहीं है। लेकिन ऐसा नहीं है! हम थोड़ा इसे गहराई से समझने की कोशिश करें।
सबसे पहले धर्म और पाप, पुण्य और पाप का जो मूल concept है उसे समझें। हम लोग सोचते हैं कि धर्म करने से हमारा संकट दूर हो जाएगा, विपत्तियाँ टल जाऐंगी, परेशानियाँ मिट जाऐंगी। प्रायः आप सबकी धर्म के प्रति यही अवधारणा है ना? हमको बचपन में यही सिखाया गया कि-‘धर्म करोगे, संकट टलेंगे, विपत्ति नहीं आएगी, परेशानियाँ नहीं होंगी, सब अच्छा हो जाएगा।’ जबकि यह बात ही गलत है! इसलिए गलत है कि धर्म करने से संकट नहीं टलते, धर्म करने से विपत्तियाँ नहीं टलती; बल्कि, सच्चाई यह है कि जितने संकट और विपत्तियाँ धर्मात्माओं पर आते हैं उतने अधर्मिओं पर नहीं आते! क्यों? सोने को कसौटी पर कसा जाता है, लोहे को नहीं! परीक्षा सतियों की होती है, वेश्याओं की नहीं! उपसर्ग साधुओं पर आते हैं, डाकुओं पर नहीं! तो, फिर क्या है धर्म का concept?
धर्म हमारे संकट को नहीं टालता, तो धर्म क्यों करें? आप एक दूसरा सवाल कर सकते हैं कि-धर्म जब हमारे संकटों को नहीं टालता तो हम धर्म क्यों करें? मैं आपको कहता हूँ, आप धर्म करें, क्योंकि धर्म भले ही हमारे संकटों को नहीं टालता, लेकिन केवल धर्म ही है जो हमें संकटों में संभालता है! धर्म हमें संकटों में संभालता है, जो हमें एक दिशा देता है, दृष्टि देता है कि- ‘संसार के सुख-दुःख, जीवन-मरण, हानि-लाभ, संयोग-वियोग सब कर्म के अधीन हैं, समता रखो।
धर्म का पहला पाठ है,-‘होकर सुख में मग्न न फूलें, दुःख में कभी न घबरावें, इष्ट-वियोग अनिष्ट-योग में सहनशीलता दिखलावें।’ यह एक धर्मी ही कर सकता है। मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि जब भी धर्मी के संबंध में बात आये कि अधर्मी फलता फूलता दिखता है और धर्मी को कोई पूछता नहीं, आप थोड़ा नज़दीक जाकर देखो। जो अधर्मी आपको फलता फूलता दिख रहा है, उसके जीवन में झाँक कर देखने की कोशिश करें; आप पाएंगे वह व्यक्ति २४ घंटे तनाव और शंका से ग्रसित है, टेंशन है ढेर प्रकार का और उस व्यक्ति के पास संपत्ति अपार है, प्रभाव ज़बरदस्त है, रुतबा भी बहुत है, बहुत ऊँचा ओहदा है, पर टेंशन है कि कहीं कोई मेरा kidnap (अपहरण) ना कर ले, कहीं कोई मुझ पर attack (आक्रमण) ना कर दे, कहीं मेरे यहाँ कोई लूट ना हो जाए, कहीं कोई raid (छापा) न पड़ जाए। यह टेंशन किसको होता है, एक धर्मी को कि एक अधर्मी को? धर्मी को देखो, पैसा नहीं है, धर्मी विपन्न हो सकता है पर खिन्न नहीं! अधर्मी संपन्न हो सकता है पर प्रसन्न नहीं। वह अंदर से प्रसन्न नहीं रह सकता-टेंशन, नींद की गोलियाँ उसी को खानी पड़ती है। तो पाप मनुष्य को टेंशन दिए बगैर नहीं रहता; वह परेशान करेगा।
मैं दूसरा उदाहरण देता हूँ, आप ट्रेन में यात्रा कर रहें हो, आपकी टिकट है, आपका रिजर्वेशन है, अपनी सीट पर बैठे हैं, कोई चिंता होगी? निश्चिंतता से यात्रा करोगे? बोलोगे- “महाराज ! इसीलिए तो पहले से रिजर्वेशन कराके आते हैं।” अब मान लो किसी दिन आप की टिकट नहीं बन पाई और आप ट्रेन में बिना टिकट बैठ गए, तो आपकी यात्रा कैसी होगी? “महाराज!, हर आदमी के चेहरे पर टी.सी. नजर आता है।” बोलो, होगा कि नहीं ऐसा? क्यों? जब आपके पास टिकट थी तो आप निश्चिंत थे और जब टिकट नहीं तो शंका! टिकट लेके यात्रा करना धर्ममय जीना है, और बिना टिकट यात्रा करना पापमय जीवन जीना है।
तो आप concept ठीक कीजिए। धर्म का प्रत्यक्ष फल समृद्धि नहीं, संतुष्टि है; धर्म का पारंपरिक फल सुख-समृद्धि है और पाप का प्रत्यक्ष फल संताप है, पारंपरिक फल दुःख दारिद्र है। लोग कहते हैं धर्म का फल तुरंत नहीं मिलता, मैं कहता हूँ धर्म का फल जितनी जल्दी मिलता है शायद अधर्म का उतनी जल्दी ना मिले। बल्कि दोनों का साथ साथ मिलता है।
तो आप concept ठीक कीजिए। धर्म का फल समृद्धि नहीं, संतुष्टि है। पारंपरिक फल सुख-समृद्धि है और पाप का प्रत्यक्ष फल संताप है, पारंपरिक फल दुःख दारिद्र है। लोग कहते हैं धर्म का फल तुरंत नहीं मिलता, मैं कहता हूँ धर्म का फल जितनी जल्दी मिलता है शायद अधर्म का उतनी जल्दी ना मिलें। बल्कि दोनों का साथ साथ मिलता है।
देखो, धर्म का फल कैसे होता है? आपने किसी भूखे व्यक्ति को देखा, २ दिन से खाया नहीं, उस को देखकर आपका मन दया से द्रवीभूत हुआ और आपने रु १०० से उसका भोजन कराया। रुपया देने के कितनी देर बाद आपको प्रसन्नता की अनुभूति होगी? तुरंत!, उसी क्षण में होगी। मान लीजिए आप ने सभा में बैठे-बैठे अपने पड़ोसी के जेब से हजार रुपए निकाल लिया, १००० का नोट निकालकर अपने जेब में डाल लिया। आपके मन में कितनी देर बाद शंका होगी कि उसको पता न लग जाय, वह देख न ले? तुरंत! आपने एक व्यक्ति की सेवा की, उसे सहयोग दिया, पुण्य का कार्य किया, तुरंत प्रसन्नता हुई। और आपने एक व्यक्ति के पैसे को चुराया, पाप का काम किया, उसी समय आपके मन में टेंशन आया। कितनी देर की बात हुई? इसी को तो पुण्य-पाप का फल बोलते हैं, Then and there! जैसे रोटी खाते हैं तो पेट भरने में तो ५-१० मिनट लग सकता है, लेकिन पुण्य करते ही प्रसन्नता आने में कोई देर नहीं और पाप करते ही संताप आने में एक पल का विलंब नहीं। पुण्य का या धर्म का प्रत्यक्ष फल संतुष्टि और पारंपरिक फल सुख समृद्धि और पाप का प्रत्यक्ष फल संताप और पारंपरिक फल दुःख दारिद्र! थोड़ी सी इस बात को और clear कर लो। यह प्रश्न स्पष्ट होना जरूरी है।
“महाराज!, फिर भी हम लोग देखते हैं कई लोग तो एकदम टॉप पर रहते हैं, थोड़ा-सा कुछ करते है और कई लोग हैं धर्म करते हैं और कुछ गलत नहीं करते तो भी, खूब मेहनत करते हैं, तो भी उनको कुछ नहीं मिलता। तो कहीं ना कहीं कुछ ना कुछ तो संबंध होगा। देखो, इसमें भी धर्म और अधर्म का संबंध है। आप कहीं जा रहे हैं, आपने देखा कि पूरे नगर को सजाया गया है, जगह-जगह बंधन-वार लगाए गए हैं और हजारों लोग खड़े हैं हाथ में माला लिए। एक व्यक्ति रथ पर सवार होकर आ रहा है और हर कोई उसके गले में पुष्प-माला डाल रहा है। इस घटना को देखकर आप क्या अनुमान लगाएँगे? आप यही अनुमान लगाएँगे कि ‘ज़रुर इस आदमी ने कोई अच्छा काम किया होगा इसलिए आज उसको स्वागत मिल रहा है, वर्ल्ड कप जीत के आया है, जनता स्वागत कर रही है, कोई अच्छा काम किया तो स्वागत हो रहा है’, यही सोचेंगे ना? और आप आगे जाते हैं, आप देखते एक आदमी को जूते की माला पहनाई गई है, केवल चड्डी पर है, गधे पर बिठाकर मुँह काला करके चलाया जा रहा है। क्या अनुमान लगाओगे? ‘ज़रूर इसने कोई गलत काम किया होगा इसलिए ऐसी दुर्दशा है।’ तो मैं आप से कहता हूँ कोई आदमी आज बहुत सुखी संपन्न दिखाई पड़ता है, तो यह सोचो कि ज़रूर इसने पिछले जन्म में कोई पुण्य का कार्य किया होगा इसलिए आज इसका ठाठ-बाट है और कोई व्यक्ति दुःखी दिखता है, तो समझो ज़रूर इसने पिछले जन्म में पाप का कार्य किया होगा इसलिए ऐसा है। नीतिकार कहते हैं –
नसिदनपिधर्मेन मनोअधर्मे निवेषियेत अधार्मिकाणां च पापानां आसु पश्यन विपर्येयं।
धर्मात्माको कष्ट में फँसा देख और अधर्मी को फलता-फूलता देखकर भी तुम कभी अपने मन को अधर्म में मत लगाओ क्योंकि अधर्म तो अधर्म ही है। उत्थान करने का कोई साधन है, तो केवल धर्म, धर्म और धर्म ही।
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