माँ-बाप की दौलत पर बच्चों का पूरा अधिकार है लेकिन यह कैसी विडम्बना है कि बच्चे अनजान बन जाते हैं, सब कुछ पर अपना अधिकार मान लेते हैं?
कानूनन माँ-बाप की सम्पत्ति में, parental प्रॉपर्टी में सन्तान का अधिकार है पर मैं आप सब से कहना चाहूँगा कि हमें अधिकार की भाषा का तो प्रयोग करना ही नहीं चाहिए कर्तव्य की भावना से काम करना चाहिए। सन्तान का कर्तव्य है कि वह माँ-बाप की सम्पत्ति को न देखें, उनकी संस्कृति को देखें और जीवन के अन्तिम सांस तक उनका बहुमान करें, उनकी सेवा सुश्रूषा करें। माँ-बाप की यह जिम्मेदारी है कि अपनी सन्तान को केवल सम्पत्ति ही न दें, उनको ऐसी संस्कृति दें कि वह कभी पैसे के लिए आप से उलझे ही नहीं अपितु आपके लिए प्राण निछावर करने को तत्पर रहे। जो सन्तान अपने माँ-बाप के लिए पैसों से उलझते हैं, पैसों के पीछे उलझते-लड़ते हैं, इसका तात्पर्य है कि उन बच्चों के संस्कार में, उनकी परवरिश में कहीं न कहीं कोई न कोई कमी रही है, उनने पैसे को प्रमुखता दी, संस्कारों को नहीं, संबंधों को नहीं, अगर संबंधों को प्रमुखता देंगे तो पैसा गौण होगा।
मेरे सम्पर्क में ऐसे भी अनेक युवक हैं जिन्होंने माँ-बाप से १ रुपया नहीं लिया और कहा आपका आशीर्वाद ही हमारे लिए पर्याप्त है। आपने पढ़ा-लिखा कर योग्य बना दिया, अब हमें आपसे १ रुपया नहीं चाहिए, आप अपना जो करना चाहते हैं करिए और आज वह बहुत फल-फूल रहे हैं। लेकिन दूसरी तरफ ऐसे भी हैं जो जानते हैं कि दुनिया से जाने के बाद माँ-बाप की सम्पत्ति हमें ही मिलनी है लेकिन उनको इतनी भी ढाढ़स नहीं, उतना भी धैर्य नहीं, अपने सामने ही खींचना चाहते हैं ये विडम्बना है। एक व्यक्ति अपने बेटे को दस लाख रूपये देना चाहते थे, जीवन के आखिरी दिनों में बेटे ने लेने से इंकार कर दिया, बोला पिताजी मुझे इसकी जरूरत नहीं है। इसका जो भी सदुपयोग करना चाहें, कर लें। ‘बेटा तू मेरा बेटा है और मैं देना चाहता हूँ इससे मुझे बड़ी तसल्ली होगी।’ ‘आप क्यों देना चाहते हैं?, मेरे पास बहुत है और आपने मुझे जितना दिया कम नहीं, आपने इस लायक बना दिया है कि मैं कुछ भी कर सकता हूँ। आपको और चाहिए तो मुझसे ले लो।’ ‘नहीं, मैं तुम्हें देना चाहता हूँ और तुम इसका जो उपयोग करना चाहो करलो।’ बेटे ने कहा कि ‘अच्छा यह बताओ आप यह रुपया मुझे दे रहे हो यद्यपि मुझे इसकी जरूरत नहीं है पर क्यों दे रहे हो?’ ‘जा रहा है, जाने की बारी आ गई इसलिए दे रहा हूँ।’ तब बेटे ने कहा ‘पिताजी यदि इस दुनिया से पैसा लेकर के जाने की व्यवस्था होती तो आप मुझे रुपया देते कि अपने साथ लेकर जाते हैं। अगर लेकर जाने की व्यवस्था होती तो यह रुपया आप मुझे देते या लेकर जाते?’ पिताजी ने कुछ नहीं बोला, बेटा कहता है कि ‘तय है, आप मुझे नहीं देते, लेकर जाते। आप यहाँ छोड़कर जा रहे हो इसलिए मुझे दे रहे हो। मैं चाहता हूँ कि आप यह रुपए छोड़कर न जाओ, अपने साथ लेकर जाओ इसलिए मैं आप से कहता हूँ यह रुपए मुझे देने की जगह दान धर्म में लगा दो। सारा रुपया नकद हो जाएगा और आप ले जाओगे।’ पिता ने बेटे को गले से लगा लिया, ‘बेटा! तुम जैसे सपूत से मुझे यही अपेक्षा थी।’ बेटे ने रुपया नहीं लिया और ₹दस लाख पिता दे रहा था, अब बेटे ने अपनी तरफ से ग्यारह लाख रुपए और मिलाकर इक्कीस लाख रुपए का दान कर दिया। ये भाव!
एक सन्तान वो है जो अपने माँ-बाप के नाम पर सम्पत्ति वारती है और एक सन्तान वो है जो सम्पत्ति के पीछे माँ-बाप पर वार करती है। वह सन्तान नहीं सन्तान के नाम पर पेट के कीड़े है, धरती के बोझ हैं, कुल के कलंक हैं। ऐसे सन्तानों को हमें बहुत समझना चाहिए। उन्हें एक बात कभी नहीं भूलना चाहिए कि अगर आज पैसे के पीछे तुम अपने माँ-बाप से उलझ रहे हो तो यह बात है ध्यान रखना तुम्हारे बेटे इससे भी ज़्यादा उलझेगें तो माँ-बाप के पास आज पैसा ऐठने के लिए इस तरह का कृत्य कर रहे हो तो तुम्हारे बच्चों को वहीं संस्कार जाएँगे। तुम तो फिर भी थोड़ी-बहुत रियायत रखे हो, तुम्हारी सन्तान वह भी रियायत नहीं रखेगी इसलिए धन को हाथ का मैल मानो। जीवन में ऐसा कोई कार्य कभी न करो जिससे माँ-बाप को तुम्हें जन्म देने के बाद यह सोचने को मजबूर होना पड़े कि अरे मैंने कैसे पुत्र को जन्म दिया, अरे मैंने कैसे सन्तान को जन्म दिया। हमेशा ऐसा जीवन जियो जिसे देखकर तुम्हारे माँ-बाप गौरवान्वित हो कि मेरा कैसा सौभाग्य है पुत्र नहीं, पुत्र के नाम पर पुत्ररत्न है, सन्तान नहीं सन्तान के नाम पर इस धरती के लिए आदर्श है। ऐसी भावना और ऐसी श्रद्धा अगर विकसित होगी निश्चित सबके भीतर बहुत बड़ा परिवर्तन घटित होगा।
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