आजकल एक नारा प्रचलित है- गाय बचेगी देश बचेगा! सभ्यता बचेगी संस्कृति बचेगी। न हम गाय को अच्छी तरह से बचा पा रहें है, न देश को, न सभ्यता को, न संस्कृति को! कृपया इसमें मार्गदर्शन दें? रायचंद बहुत मिलते हैं कर्मचंद हमें नहीं मिलते हैं।
ये बात सच है गाय एक प्राणी मात्र नहीं है हमारी संस्कृति की आधार है। संस्कृत में गाय गौ शब्द से बना है। गौ का अर्थ धरती भी होता है। पूरे प्राणी जगत में सारे प्राणी समूह का प्रतिनिधित्व गौ के माध्यम से होता है। भारत की संस्कृति को जब हम पलट करके देखते हैं तो गाय को एक प्राणी के रूप में नहीं लिया, गाय को गोधन के रूप में लिया। पुराने जमाने में ये रुपए- पैसे नहीं थे। रुपया-पैसा तो धन है ही नहीं है, ये तो रसीद है धन की, बैंकों का मायाजाल आप पढ़ोगे तो समझ में आएगा। आप तो चार्टर्ड अकाउंटेंट हो इसे अच्छे से जानते हो। धन वो था, सोना-चांदी धन है, जमीन-जायदाद धन में आते थे और गौधन, गज धन आदि धन में आते थे।
तो गाय व्यक्ति की समृद्धि का आधार माना जाता था। किसके घर में कितने गोधन है इससे उसके स्टेटस का आंकलन होता था और इस धरती पर उस समय दूध की नदियाँ बहती थीं। हमने मूलभूत अवधारणाओं को खोया, उसका एक कुपरिणाम है कि सोने की चिड़िया कहलाने वाला भारत आज पूरी तरह से जर्जर हो गया। जिस भारत में दूध की नदियाँ बहती थी, खून की नदियाँ बहने लगीं। यदि हम उसी पुरातन संस्कृति को फिर दोहरायें और जिस तरह गौधन लोगों के घरों में पहले रहता था वह युग फिर लौट आए तो मैं कहता हूँ आज फिर से भारत को सोने की चिड़िया बनने में देर नहीं लगेगी, भारत फिर से भर जाएगा।
इसलिए यह कहना कि गाय बचेगी, देश बचेगा, सभ्यता बचेगी, संस्कृति बचेगी कतई गलत नहीं है, यह हमारी संस्कृति का मूल आधार है, इसके लिए प्रयास करना चाहिए। गाय को प्रेम और वात्सल्य का प्रतीक बताया गया है। जहाँ गाय होती है वहाँ पॉजिटिव एनर्जी आती है, वात्सल्य की अभिव्यक्ति होती है। पहले घरों में गाय रंभाती थी, अब कुत्ते भौंकते हैं। गाय रम्भाती थी अब उनकी जगह कुत्तों ने ले ली, कुत्ते भौंकते हैं। नतीजा ये हुआ घर का वात्सल्य विदा हो गया और क्रूरता ने प्रवेश कर लिया। आज लोग आपस में उलझे हुए हैं इसलिए परम्परा बदलनी चाहिए और प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सांस्कृतिक पहचान को याद करते हुए गौधन को याद करना चाहिए।
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