धर्मात्माओं की सेवा करना ठीक है, मुनियों की सेवा करना भी गृहस्थ का कर्तव्य है परन्तु गृहस्थ की सेवा गृहस्थ किस प्रकार करें?
धर्मात्मा और मुनियों की सेवा करना पुण्य है और एक गृहस्थ अपने परिवार और परिजन की सेवा करें उसे परम पुण्य मान करके करें। मैं उसे परम पुण्य इसलिए कह रहा हूँ कि यह तुम्हारा एक बहुत बड़ा कर्तव्य है। धर्म और कर्तव्य दोनों अलग-अलग चीजें हैं। मेरी दृष्टि में जो मनुष्य अपने कर्तव्य का अनुपालन नहीं कर सकता, सच्चे अर्थों में धर्म का पालन भी नहीं कर सकता। तो तुम्हारे हृदय में संवेदना होनी चाहिए, अपने कर्तव्य और दायित्व के प्रति समर्पण होना चाहिए।
घर में बूढ़े माँ-बाप को रोता छोड़ कर, भूखा छोड़कर यदि तुम भगवान की पूजा में लगो, घर में माँ-बाप को रोता, भूखा छोड़ करके तुम मुनियों की सेवा में लग जाओ तो मैं इस सेवा को सार्थक नहीं मानता। उनकी सेवा करो पर उनकी भी सेवा करो। क्योंकि मुनियों की सेवा और भगवान की सेवा के लिए तो अनेक है पर घर में पड़े बीमार की सेवा के लिए तुम्हारे अलावा कोई दूसरा नहीं है इसलिए वो काम ज़रूर करो। कल तुम्हारी सेवा के अभाव में उसके प्राणों पर संकट आ जाए तो क्या उपाय है? कल तुम्हारी सेवा में थोड़ी सी कमी से वहाँ कुछ गड़बड़ हो जाए तो क्या हो? इसलिए इसे कर्तव्य मानना चाहिए और इस प्रकार की कर्तव्य विमुखता कतई नहीं करनी चाहिए। मेरी दृष्टि में जो लोग अपने परिजनों की सेवा नहीं करते, उनकी उपेक्षा और तिरस्कार करते हैं, उनकी सारी पारलौकिक क्रियाएँ व्यर्थ है।
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