जीवन का निर्वाह-सिद्धांतों पर या व्यावहारिकता पर?

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शंका

जीवन का निर्वाह सिद्धान्तों पर होना चाहिए या व्यवहारिकता पर?

समाधान

सिद्धान्त जीवन के लिए है पर जीवन सिद्धान्त के लिए नहीं, इस बात का ध्यान रखना चाहिए। हम यथासम्भव सिद्धान्तों का पालन करें पर अपने व्यवहार को संभालते हुए। 

हमारे यहाँ दो तरह के सिद्धान्त हैं, सिद्धान्त को यदि हम मूल्य से जोड़ें तो हम इसे दो तरीके से मूल्य कह सकते हैं – एक शाश्वत मूल्य और एक सामयिक मूल्य। हमारे व्यावहारिक जीवन में जो भी मूल्य जुड़ते हैं वो सब सामयिक मूल्य होते हैं, समय काल की परिस्थिति के अनुरूप उनमें परिवर्तन होता रहता है। लेकिन जो शाश्वत मूल्य होते हैं वे चिरस्थाई होते हैं, वह कभी देशकाल की परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होते- जैसे थे, हैं, और वैसे ही रहेंगे- उन में कोई परिवर्तन नहीं होता। जैसे प्रेम, आत्मीयता, परस्परता, सद्भाव, अहिंसा, करूणा- ये हमारे जीवन के शाश्वत मूल्य हैं और इन्हें हमें हर हालत में अपने जीवन में प्रतिस्थापित करना चाहिए। जो अन्य चीजें हमारे साथ जुड़ रही हैं- धन-पैसे पर आधारित, फैशन (fashion) पर आधारित, बाहरी प्रतिष्ठा पर आधारित या हमारी परम्पराओं और सरोकारों से जुड़े हुए मूल्य- वे समय काल के अनुरूप परिवर्तित होती रहती हैं। सामयिक मूल्यों को हम व्यावहारिक तौर पर बदल दें तो मुझे उसमें कोई ज्यादा ऐतराज नहीं है लेकिन अपने शाश्वत मूल्यों में कोई परिवर्तन नहीं करना चाहिए। 

जीवन के निर्वाह में सिद्धान्त और व्यावहारिकता के मध्य सन्तुलन का मैं एक उदाहरण देता हूँ- जैसे पेड़ की शाखा-प्रशाखायें हैं, झुकती हैं, झूमती हैं, धरती को चूमती हैं लेकिन उसका तना हमेशा तना रहता है। अगर पेड़ की शाखा-प्रशाखाओं के साथ उसका तना भी झुक जाएँ तो पेड़ उखड़ जाएगा। सन्त कहते हैं “व्यवहार की शाखाओं को तुम जितना झुकाना चाहो झुकाओ पर शाश्वत मूल्यों के सिद्धान्तों के तने को हमेशा तना रहने दो अन्यथा तुम्हारा वजूद समाप्त हो जाएगा।

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