मेरी शंका भी है और पीड़ा भी। हम कहीं शादी-ब्याह में या अनुष्ठान में जाते हैं वहाँ हमें परोसते तो हैं लौकी की पकौड़ी, मलाई की पकौड़ी, पपीता की पकौड़ी की सब्ज़ी और बोलते है ‘सींख कबाब, वेजिटेबल सींख कबाब, टिक्का आदि” ये ऐसे-ऐसे शब्द हम को देखने और सुनने में मिलते हैं।
आपने बहुत गम्भीर मुद्दा उठाया है। ये सब आज की बदलती हुई जीवन शैली का परिणाम है। जब से कैटरिंग आम हुई इसके साथ ये सब चीजें हो गई। ये घोर भाव हिंसा है। कभी ऐसी चीजों का प्रयोग बंद कर दें, इस शब्द का प्रयोग करें तो आप मत लेना। ये पाप है।
आप न केवल उस चीज को त्यागो अपितु सामने वाले को टोको कि ‘ऐसा मत बोलो, ऐसा मत बोलो’ उसको सावधान करो। हम अपनी भाव हिंसा का ख्याल रखें, विचार करें। बात छोटी है लेकिन संस्कृति की दृष्टि से बहुत गहरी है। क्या ज़रुरत है कबाब कहने की? क्या जरूरत है टिक्का कहने की? क्या जरूरत है कोफ्ता कहने की? पकोड़े बोलिये, और कुछ बोलिए। ऐसे ही आप लोग केक बोलते हैं, क्या है केक? उसको मोहनभोग बोलो न। हालाँकि, उसमे कोई जान नहीं है, लेकिन ये तो वेस्टर्न संस्कृति का अनुकरण है। हमारे यहाँ के जो परम्परागत पकवान थे, मिष्ठान थे, उनको तो लोग भूलते जा रहे हैं और सब इंग्लिश और चाइनीस डिशेज को अपनाते जा रहे हैं। मैं सब से कहना चाहूँगा, जिंदगी ही गड़बड़ हो रही है, किसी भी भोज और पंगत में आप जाएँ और ये शब्द आपको सुनने को मिलें, इस तरह की चीजें आप भूल कर भी मत लेना, चाहे आप उसके कितने भी प्रेमी हों। उस चीज को मत लो और सामने वाले से कहो ये चीज हम नहीं ले सकते।
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