मैं पिछले ४० साल से सदाचार शाकाहार और व्यसन मुक्ति के लिए काम करता हूँ, आचार्य श्री से व्रत भी लिया है। मगर अभी दिग्ध होता है कि क्या यह सब छोड़कर प्रतिमा धारण करूँ और दूसरे मार्ग पर चला जाऊँ या यही काम करता रहूँ, जो मैं आज देश विदेश में करता हूँ। क्या मैं खुद के कल्याण का विचार करूँ या जगत कल्याण के लिए सोचता रहूँ?
हमारे आचार्यों ने कहा –
आदहिदं कादव्वं जं सक्कइ परहिदं च कादव्वं।
आदहिदपरहिदादो आदहिदं सुट्ठु कादव्वं।।
अर्थात् ‘अपनी आत्मा का कल्याण करना चाहिए और जितना बने औरों का भी कल्याण करना चाहिए। लेकिन अपने और औरों के बीच चुनाव करने का मौका आये तो अपना कल्याण ज़रूर करना चाहिए।’
आपने भाव व्यक्त किया है कि ‘मैं अहिंसा शाकाहार के लिए पूरे देश और दुनिया में घूमता हूँ, मैं वो कार्य करूं या व्रती बन कर के अपने आप को सीमित कर दूँ?’ मैं कहता हूँ आप व्रती भी बनो और उस कार्य को भी जारी रखो। मेरे विचार से व्रती बनने के बाद आपको उस कार्य करने में कठिनाई नहीं होगी। बल्कि सरलता ही होगी। आप सोचेंगे-‘महाराज खाने पीने का पूरा प्रबन्ध कैसे होगा?’ मैं आपको एक बीच का रास्ता बताता हूँ। अभी आप प्रतिमा अंगीकार मत करो। १२ व्रत अंगीकार कर लो और उसका अभ्यास करो। उसमें कुछ ढील है – १२ व्रत यानि जिसमेंं कुएँ के पानी की ढील छोड़कर के बाकी सारे व्रत का आप जितना पालन कर सको, कर लो। १२ व्रत का पालन करो, जहाँ जितना सुलभ हो करो, आगे आपका रास्ता ठीक हो जाएगा। आप अपने को प्रतिमाधारी न मानकर प्रतिमा का अभ्यासी बना लो, यह बीच का रास्ता है।
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