महिलाएँ महाराज जी को आहार देने के समय सोलह के वस्त्र पहनती हैं लेकिन भगवान की पूजा करते वक्त तो कोई सोलह के वस्त्र नहीं पहनतीं। ऐसा क्यों?
सोलह तो महाराज और भगवान दोनों के लिए रखना चाहिए। बिना स्नान और शुद्धि के देवतार्चन नहीं करना चाहिए। पुरूष जब अभिषेक करते है, तो वस्त्र शुद्ध रख कर करते हैं और महिलाएँ पूजन करती हैं प्रायः उनके वस्त्र शुद्ध नहीं रहते। बहुत कम महिलाएँ हैं जो सोलह के वस्त्र से ही पूजा करती है और बाक़ी तो ज़्यादातर अलमारी से निकालती हैं और सीधे मन्दिर जाकर पूजा करती हैं। उपासका अध्याय में तो इतना तक लिखा गया है कि ‘बिना संसर्ग के, अन्यों के सम्पर्क रहित अपने वस्त्र आदि की शुद्धि के साथ आप पूजा करें’। मैं तो कहना चाहूँगा कि महिलाएँ भी मन्दिर जाएँ तो सोलह के वस्त्र पहनकर के जाएँ। जैसे आप आहार में शुद्धि रखती हैं, वैसे अगर पूजन में शुद्धि रखोगे तो वह आपकी विशुद्धि की वृद्धि करेगा।
वस्तुओं का मन पर बड़ा प्रभाव पड़ता है, मन्दिर में उसी वस्त्र को पहनकर के जाएँ जो केवल मन्दिर में पहनने के काम आये, दुनियादारी के काम ही नहीं आये। अगर आप शुद्ध वस्त्र मन्दिर में पहनेंगे तो बहुत सारे विकल्पों से बच जायेंगे। अशुद्ध वस्त्रों के साथ की गयी पूजा समिचीन पूजा नहीं मानी जाती।
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