मैं विकलांगों का ट्रस्ट चलाता हूँ। ९ महीने पहले मुझे “सक्षम” नामक ट्रस्ट का प्रमुख बनाया गया, तीन महीने तक तो मैंने कुछ नहीं किया। मन में संशय था। ६ महीने २८ दिन पहले मुझे एक अन्य ट्रस्ट में मन्त्री बनाया गया, उसकी प्रमुख, ज्योति बेन शाह, ८०% डिसेबल है। उसको देखकर मैंने विकलांगो के लिए काम शुरू किया। काम तो अच्छा चल रहा है मेरी पत्नी का इस विषय में कहना है कि ये ट्रस्ट चलाने का काम जैनियों के लायक नहीं है, निम्न लोगों का काम है। आप मार्गदर्शन करें।
सबका अपना-अपना दृष्टिकोण है। कुछ लोगों की ऐसी विचारधारा है किसी अपंग की सेवा तभी करो जब तुमको उसका बैकग्राउंड पता हो। ऐसा कहते हैं कि ‘यदि तुमने किसी पैर से अपंग को पैर दे दिया और वह चोरी करे तो तुम्हें पाप लगेगा’; ऐसा मैं नहीं कहता, कुछ लोग कहते हैं। शास्त्र की भी लोग कुछ इस तरह से विवेचनाएँ और व्याख्याएँ करते हैं। इसी तरह कहते हैं कि ‘तुमने किसी व्यक्ति को मजबूत बना दिया जिसने मजबूत बनने के बाद पाप किया तो उस पाप के भागीदार तुम होगे। किसी के हाथ टूटे, तुमने उसको हाथ दिए और उसने उन्हीं हाथों से गुलेल से किसी पक्षी को मार दिया तो उस पाप के भागी तुम होगे- इसलिए ऐसे लोगों को कोई सहयोग नहीं दे। ऐसा लोग कहते हैं अब आप मुझसे पूछो कि आपका क्या दृष्टिकोण है?
मेरा दृष्टिकोण बिल्कुल साफ़ है। मैं एक ही पंक्ति में अपनी बात कहता हूँ, मानवीय संवेदना से जुड़ी हुई बातों को पुण्य, पाप, धर्म, अधर्म से ऊपर उठकर देखना चाहिए। हर बात में पुण्य-पाप, धर्म-अधर्म नहीं लगाना चाहिए। यह बुद्धि का वितंडा है जिसने हमारी करूणा को सुखा डाला, हमारी संवेदनाओं को नष्ट कर डाला। मैं कतई इसमें सहमत नहीं हूँ, ‘नेकी कर कुएँ में डाल।’ जिस समय कोई व्यक्ति पीड़ित है, दुखी है, कराह रहा है, उसका खून बह रहा है, तो यह देखने की जरूरत नहीं है कि वह शाकाहारी है या मांसाहारी, पापी है या धर्मी, उस समय केवल यह देखना है वह पीड़ित प्राणी है और उसे केवल मेरी सहायता की आवश्यकता है। सहायता कीजिए और सहायता करने के बाद उनका हृदय परिवर्तन कीजिए ताकि वह पापों से बचे, उसे सत्संग और संकल्पों से बांधिये, उसका जीवन बदल जाए तो बहुत अच्छा है। आपने उसकी पीड़ा का प्रतिकार किया है, आपने उसे हिंसा के लिए रास्ता नहीं दिखाया। वह कर रहा है, तो उसकी बुद्धि का दुरुपयोग है लेकिन ऐसी बातें देखकर, सुनकर के यदि हम इन सब चीजों का निषेध करने लगेंगे तो मुझे लगता है जैन धर्म की बड़ी गंदी छवि बनेगी। लोग जैनियों को बड़ा निष्ठुर और स्वार्थी कह कर पुकारेंगे। जैन धर्म ऐसा नहीं है क्योंकि जितने उदात्त जीवन मूल्यों के प्रति आस्था जैन धर्म में प्रकट की गई है दुनिया के किसी भी धर्म में नहीं की गई। हमारे यहाँ ‘क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत’ ये हमारा धर्म है, उसका ध्यान रखना होगा।
हो सकता है मेरी बातों से बहुत से विद्वानों को, त्यागीयों को, साधुओं को असहमति हो, पर यह मेरा अपना दृष्टिकोण है जो साफ है, मैं आप सबके बीच रखता हूँ।
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