आपके मस्तक पर जो चंद्रमा बना हुआ है यानि ललाट पर जो सिद्धशिला बनी हुई है उसमें सिद्ध परमेष्ठी के प्रकाश का स्वरूप भी दिखाई देता है। क्या ये बचपन से है या आपके साथ तप के द्वारा हुई है?
मुझे पता नहीं कि मेरे माथे पर क्या है? हर व्यक्ति के ललाट पर बहुत कुछ है और जिसके ललाट पर जो लेख लिखा है, वह उसी को जीता है और उसी को भोगता है। लोग मुझे कहते हैं कि ‘महाराज जी! आप जब बोलते हैं तो आपके चेहरे पर एक विशिष्ट आकृति उभरती है वो क्या है?’ मुझे नहीं मालूम ये क्या है! रहा सवाल कि ये कब से है, तो ये भी मुझे नहीं मालूम। लेकिन मुनि दीक्षा के बाद कुछ लोगों ने मेरा ध्यान इस तरफ आकृष्ट किया कि ‘महाराज जी! आपके माथे पर ये उभार है ये क्या है?’ एक बहुत बड़े ज्योतिषी थे, उनकी दृष्टि इस पर गई तो उन्होंने मुझसे कहा कि ‘महाराज जी! ये जो उभार है ये एक विशिष्ट लक्षण होता है और उन्होंने कहा कि ये विरले जीव (भाग्यशाली जीव) को ही होता है।’ मैंने कहा कि “मैं तो भाग्यशाली ही नहीं सौभाग्यशाली हूँ। क्योंकि ७२९ अंक प्रमाण मनुष्यों में तीन कर्म नौ करोड़ ही मुनि बन पाते हैं, भाव लिंगी मुनि बन पाते हैं। मैं मुनियों में अपना स्थान बना पाया मुझसे ज्यादा भाग्यशाली और कौन होगा? रहा सवाल इस चंद्रमा रूपी चिन्ह् का; ये पुद्गल का परिणमन है इसको लेकर मैं बहुत ज्यादा विश्वास नहीं करता। जो है सो है, शरीर है, मैं क्या करूं? मैंने उसे बनाया नहीं है प्रकृति ने बनाया है। मुझे स्वीकार है। आप लोगों को अच्छा लगे तो ठीक और न अच्छा लगे तो ठीक। आपको सिद्धशिला जैसी दिखती है, तो यही सोचो कि लोक के माथे पर भी ऐसी सिद्धशिला है और हमें वहीं जाना है ताकि हमारा रास्ता प्रशस्त हो।
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