ईर्ष्या क्यों और कहाँ से पैदा होती है?
ईर्ष्या बड़ी भयानक बीमारी है, पुरुषों में क्रोध और महिलाओं में ईर्ष्या की बहुलता होती है। इसके चार लक्षण हैं – (1) किसी की प्रगति न देख पाना, (2) किसी की प्रशंसा न सुन पाना, (3) अपनी अयोग्यता या अपात्रता की अनदेखी कर सामने वाले पर दोषारोपण करना; अथवा (4) यूँ ही दूसरों को देखकर जलना- कुढ़ना। अगर कोई आदमी आगे बढ़ रहा है और आपके मन में तकलीफ़ हो रही है, तो समझ लेना ईर्ष्या है। अगर आपके किसी परिवार के सदस्य, आपके मित्र, आपके परिचित, आपके सम्पर्क के व्यक्ति की कहीं कोई प्रशंसा हो रही और उस प्रशंसा को सुनकर के मन में तकलीफ़ हो रही है, तो समझना ईर्ष्या की भूमिका में जी रहे हो। यदि किसी व्यक्ति को किसी कार्य में कोई सफलता मिलती है और उसमें उसके साथ में हम भी हैं, हमें अपेक्षाकृत कम सफलता मिल रही हैं और उस दूसरे व्यक्ति को ज़्यादा, किसी को ज़्यादा मान-सम्मान मिल गया- समझने के लिए इस सभा में किसी को आमंत्रित करके उसका तिलक कर दिया गया और बाकी को नहीं, तो सामने वाले पर पक्षपात का आरोप लगाना “देखो! चेहरा देखकर तिलक होता है, हमको तो किया ही नहीं” ये अपनी अयोग्यता या अपात्रता की अनदेखी करके सामने वाले पर दोषारोपण करना। और चौथा है-किसी की बात को पचा ही नहीं पाना, अपने आप में जलना-कुढ़ना। ये सब ईर्ष्या के लक्षण हैं।
इस ईर्ष्या के जो मूलभूत कारण हैं, उसमें सबसे पहला कारण है अहमन्यता- अपने आप को बड़ा मानने की प्रवृत्ति; दूसरा कारण है असहिष्णुता- दूसरों की बातों को न सह पाने की स्थिति; तीसरी बात है अनुदारता- हमारा मन उदार न रहे, किसी के प्रति उदारता का न होना, संकीर्ण होना; और चौथी बात है ओछी मानसिकता।
इसके चार फल भी हैं। सबसे पहला फल बैर और विरोध की भावना जगना। दूसरा फल- अपने आप के प्रति असन्तुष्टि होना, दूसरों से तो होती ही है, अपने से भी असन्तुष्टि होती है। तीसरा – मन शान्त नहीं होता। चौथा है – हिंसा और प्रति हिंसा का भाव और ईर्ष्या से क्रोध की अभिव्यक्ति होती है।
निवारण का उपाय है- गुणग्राही दृष्टि रखो, अपनी लाइन लम्बी करने की कोशिश करो, दूसरों की प्रशंसा करने की आदत डालो, कोई भी व्यक्ति अच्छा करे उसकी प्रशंसा करो और औरों को धन्यवाद देना सीखो, ईर्ष्या खत्म हो जाएगी।
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