वर्तमान की व्यापारिक-उपभोक्तावादी परिस्थितियों में जैनों की सहभागिता कहाँ और कितनी हो?

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शंका

वर्तमान की व्यापारिक परिस्थितियाँ में जैनों का भी कुछ दायित्व है। उनका दायित्व या सहभागिता कहाँ और कितनी होनी चाहिए? जो आज वर्तमान में बाजारवाद की परिस्थिति हैं, उपभोक्तावाद की परिस्थितियाँ हैं उनमें जैनों की सहभागिता कहाँ और कितनी होनी चाहिए?

समाधान

उपभोक्तावाद, आज नहीं, युग- युगांतर से रहा है और रोज अपने नए नए स्वरूप में प्रस्तुत हुआ है। हमारे तीर्थंकर भगवन्तों ने इस उपभोक्तावाद से बचने के लिए अपरिग्रह के आदर्श की बात कही। अपरिग्रह का अर्थ केवल यह नहीं है कि व्यक्ति अपने धन की सीमा बनाए, अपितु इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि धन का संग्रह तो करे, उसका परिग्रह न करे; अर्थात संग्रह के बाद अनुग्रह करे। सदुपयोग करे, जनहित में उसका उपयोग करे। राष्ट्र के, संस्कृति के, धर्म के, समाज के और मानवता के कल्याण के लिए उसका उपयोग करे। धनपति होना कोई बुरा नहीं है, भगवान महावीर ने भी यह कहा है कि धन का संग्रह करो, पर उसे संग्रहित करके मत रखो। यही जैनियों की विशेषता रही है, जैनियों में बड़े-बड़े नगर सेठ हुए हैं, राजा-महाराजा जैनों में हुए। जैनियों के लिए बड़े गौरव की बात है कि भामाशाह जैसे नरश्रेष्ठ भी जैनियों में ही हुए हैं, जिन्होंने राष्ट्र पर संकट आने पर अपना खजाना खोल दिया तो उपभोक्तावाद धर्म के लिए कहीं बाधक नहीं है। हमारी मनोवृति यदि सही बनी रहे तो और धर्म के प्रति निष्ठा यदि जीवित रहे तो।

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