तन मन धन से सुखी हैं पर फिर भी धर्म करने के भाव क्यों नहीं होते?

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शंका

आज परिवारों में लोग मन से सुखी, तन से सुखी और धन से भी सुखी हैं लेकिन कभी पूजा पाठ करने में, कोई दान देने में, आहार देने में, विधान में भाग लेने में उनके भाव क्यों नहीं बनते हैं?  हमारे परिवारों में कई ऐसे लोग हैं, तो कौन से उन्होंने पाप किए हैं या कोई पाप क्रम चल रहा है या पुण्य नहीं है?

समाधान

शुभ संयोगों की अनुकूलता पुण्य से मिलती है। शुभ संयोगों की अनुकूलता का मिलना योग है जो पुण्य से मिलता है। पर उसका लाभ उठाना प्रयोग है जो परम पुण्य से होता है। योग मिलना अलग चीज, प्रयोग करना अलग चीज। जिसके पास केवल पुण्य होता है, वह योग पाते हैं पर उसको भोगते हैं प्रयोग में नहीं लेते। और जिनका परम पुण्य होता है, जिसको हम सातिशय पुण्य या पुण्यानुबंधी पुण्य कह सकते हैं, वो उसका सही प्रयोग करता है। अपने जीवन में प्रकट संसाधनों का और संयोगों का पाप में उपयोग नहीं करता, परमार्थ में लगाता है। यह सातिशय पुण्य का लक्षण है पुण्यानुबंधी पुण्य का लक्षण है।

जिनका पापानबंधी पुण्य होगा सब कुछ होने के बाद भी भाव ही नहीं होगा, रुचि नहीं जगेगी। वे अपने पुण्य को भोगेंगे, पाप करेंगे और इस दुनिया से खाली हो करके जायेंगे। जिनका परम पुण्य होता है, वो भर करके आते हैं और जितना भर करके आते हैं उससे कई गुना भर करके जाते हैं। और जिनका केवल सामान्य पुण्य होता है वह भर करके आते हैं और खाली हो करके जाते हैं।

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