मुनिश्री के मोक्षमार्ग पर चलने की वजह एवं आचार्यश्री से जुड़ा यादगार प्रसंग!

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शंका

नमोस्तु महाराज जी। आपको मोक्ष पथ पर चलने की प्रेरणा के निमित्त कारक कौन-कौन से रहें? एवं आचार्य श्री के साथ का कोई ऐसा प्रसंग हमें सुनाएं जो आज भी आपको सबसे ज्यादा प्रेरणा देता हो।

समाधान

मोक्ष मार्ग की प्रेरणा कई लोगों को कई तरीके से मिलती है। पर आपने पूछा आपको प्रेरणा कैसे मिली तो सच्चे अर्थों में देखा जाए तो मुझे कहीं से कोई प्रेरणा नहीं मिली। पहले तो मैं मोक्षमार्ग भी नही समझता था की मोक्ष मार्ग क्या होता है। एक बार मुझसे किसी ने पूछा महाराज आप को वैराग्य कैसे हुआ? मैंने कहा मुझे बैराग्य तो हुआ ही नहीं था। वैराग्य के कारण तो मैं निकला ही नहीं था। तो महाराज जी क्या हुआ कोई परेशानी हुई? नही तो फिर कैसे निकले? वैराग्य के कारण से ही नही निकले, राग से प्रेरित होकर निकला हूँ। किसका राग? परम पूज्य गुरुदेव की इस मुद्रा को देखा और मैं मुग्ध हो गया, पागल हो उठा कि इस से अच्छा मार्ग नहीं है, अपने जीवन को आगे बढ़ाना है। तो इनके चरणों में अपने आप को समर्पित कर दो। और जिस दिन मैंने पहली बार उनके दर्शन किए थे, उससे पूर्व मेरी मुनियों के प्रति श्रद्धा भी नही थी। लेकिन उनके दर्शन करते ही मेरे मन में यह भाव जगा कि धन्य है यह। धरती पर भगवान का रूप है। इनकी शरण में जाऊंगा तो मेरा कल्याण हो जाएगा। उस समय मोक्ष क्या होता है मुझे नहीं पता। राग क्या होता है मुझे नहीं पता। वैराग्य क्या होता है मुझे नहीं पता। बस मुझे यह पता था कि यह जो कर रहे हैं वह सबसे अच्छा कर रहे हैं और इनका जो रूप है सबसे अच्छा रूप हैं। इनके चरणों में समर्पित हो जाओ बेड़ा पार हो जाएगा। और मैं उनके चरणों में गया, उन्होंने मुझे स्वीकारा और मेरा उद्धार कर दिया। तो यह कारण है। 

रहा सवाल उनके साथ बीते पलों की बातों में कोई ऐसी बात जिसे आप आज तक ना भूल सके। अरे उनके साथ मेरे जितने पल भर बीते हैं हर पल अपने आप में यादगार पल है। उनका एक एक शब्द बहुत बड़ा संदेश होता है। और उनका एक-एक वाक्य बहुत बड़ा ग्रंथ होता है।

फिर भी एक प्रसंग मैं आज सुनाना चाहता हूँ, गुरु कैसे होते हैं? हम लोग की मुनि दीक्षा हुई। मुनि दीक्षा के उपरांत उन्होंने हम सब साधकों को नव दीक्षित साधुओं को बुलाया। हम लोगों से एक नियम लेने के लिए कहा। क्योंकि वह जो नियम था उसमें मुझे कुछ कठनाई थी। मैंने अपनी तरफ से असमर्थता प्रकट की। उन्होंने कहा ठीक है, उनका मेरी तरफ कोई आग्रह भी नहीं था। सबको नियम दिया। मैंने भी कहा गुरुदेव आपने कहा है तो मैं असमर्थ हो के भी इसको निभाऊ ऐसा सामर्थ्य दो। लेकिन हुआ क्या कि हम सब कच्चे निकले। उस नियम को निभा नहीं पाए। अवधि पूर्ण हुई। मैंने अपने साथियों से कहा कि भाई देखो गुरुदेव ने दीक्षा देने के बाद हम सबको एक नियम दिया और हम लोग नही निभा पायें। यह हम लोगों के जीवन की बड़ी विफलता है। हमें उन से चलकर प्रायश्चित लेना चाहिए। अब मैंने ही सबको राजी करके गुरु चरणों में जाकर प्रायश्चित लेने का निर्णय लिया। सब गए। सब ने अपना आलोचन किया, निवेदन किया, गुरूदेव ने सबको प्रायशचित दे दिया, मुझे प्रायश्चित नहीं दिया। बड़ा अटपटा लगा। मुझे प्रायश्चित्त नहीं। मैंने कहा गुरु देव  मुझे प्रायश्चित्त नहीं? नहीं तुम्हें प्रायश्चित्त की आवश्यकता नहीं। हमने सोचा शायद परखते हों, बहुत परखते हैं, इसे ध्यान रखना, वह जोहरी हैं पक्के। मैं बैठा रहा थोड़ी देर। वह अपनी किताब में दृष्टी गढ़ा ली। थोड़ी देर बाद मैं उठकर आ गया, सोचा फिर जाऊँगा। 

दुसरे दिन फिर गया। गुरुदेव प्रायशचित? कहा ना, तुम्हारे लिए प्रायश्चित नही। खलबली मच गई। गड़बड़ है। और देखे भी नहीं मेरी तरफ। फिर मैं तीसरे दिन गया। जैसे ही कहा गुरुदेव प्रायशचित नहीं, क्यो बारबार आते हों? तुम्हारे लिए कोई प्रायशचित नहीं। यह शब्द मुझे अंदर से हिला दिए कि आखिर मुझसे ऐसी कौन सी गलती हो गई कि मैं प्रायश्चित के अयोग्य हो गया। तीन दिन अगर मैं कहू तो मेरे तीस बरस के संयमी जीवन के सबसे उथल वाले दिन थे। मन नहीं लगा, मेरा किसी काम में मन नहीं लगा। मेरे मन की व्यग्रता मेरे चेहरे पर दिख रही थी। उनसे नजर मिलाने की हिम्मत नहीं हो पा रही थी। तीसरे दिन इरिया पद भक्ति के उपरांत जब हम लोग निकलते हैं, उन्होंने इशारा किया और इशारा करके मुझे रोका, मैं बैठ गया। उंगली से इशारा कर के कहा दो उपवास कर लेना। मैं समझ गया मामला क्या है। मैं चुपचाप कायोत्सर्ग किया, नमोस्तु किया और उनके चरण छू कर चल दिया। दो उपवास करने के उपरांत जब मैं उनके चरणों में गया कि गुरुदेव उपवास तो मेरे आपकी कृपा से हो गये। गुरुदेव मुझे एक बात समझ में नहीं आई कि आखिर मेरा अपराध क्या था? मुझे आपने पहले प्रायशचित नहीं दिया, बाद में प्रायश्चित क्यों दिया? उन्होंने जो शब्द कहा आज भी मेरे हृदय में अंकित है। उन्होंने यह कहा कि मैं यह देखना चाहता था कि प्रायश्चित नहीं देने का परिणाम क्या होता है। मैंने अपने आपको धन्य माना कि कम से कम यह प्रयोग मुझ पर हुआ और मैं अपने आप को और कृतार्थ महसूस किया कि मैं उनकी कृपा से खरा उतर गया। तो यह है गुरु और यह उनकी क्रिया।

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