हम सोचते हैं कि लाइफ में जो हमारी achievements (उपलब्धियाँ) हैं उन्हीं से satisfaction (संतुष्टि) है-जैसे कभी क्लास में फर्स्ट आते हैं, कभी कुछ जीत लिया तो वह हमारी छोटी-छोटी achievements होती है, हमें लगता है कि हमें तृप्ति हो गई। जैसे जैसे टाइम आगे बढ़ता है तो हमें लगता है कि हमारा self-satisfaction (आत्म-संतुष्टि) जो हमारी soul (आत्मा) को satisfy करेगी वो हमारा अचीवमेंट है। बचपन में जो मेरी अचीवमेंट थी, मैं उनमें सेटिस्फाय होता था; पर आज सोल सेटिस्फेकशन है वह मेरी अचीवमेंट है। मुझे पता है कि त्याग ही मोक्ष का मार्ग है और मैं सब कुछ त्याग कर मोक्ष मार्ग पर जा सकता हूँ। आज मैं इतनी मेहनत करता हूँ material (भौतिक) चीजों के लिए, गाड़ी के लिए, बंगले के लिए, पैसों के लिए, मुझे पता है कि यदि मुझे मोक्ष मार्ग पर चलना है तो उन सब का कोई लाभ ही नहीं । जब मुझे अपना अन्तिम मार्ग भी पता है और अपनी destination (गंतव्य) पता है और ये भी पता है कि ऐसे ही लाइफ चलती है, तो हम इतने ज़्यादा corrupted (भ्रष्ट) क्यों हैं? दूसरी बात-हम मन्दिर जाते हैं, दान करते हैं, पूजा-पाठ करते हैं; दिल्ली में लोग religious (धार्मिक) तो बहुत हैं पर spiritual (आध्यात्मिक) कोई नहीं है; अच्छा इंसान कोई नहीं है बस अच्छा धर्म कर रहे हैं। जैन धर्म स्पिरिचुअलिटी बताता है, अच्छा धर्म करना थोड़ी बताता है। हम आज अच्छा इंसान क्यों नहीं बनते? अच्छे धर्म की तरफ concentrate (ध्यान केन्द्रित) करते हैं, अच्छे इंसान बनने की तरफ concentrate (ध्यान केन्द्रित) क्यों नहीं करते?
इसकी बात में बड़ी गहराई है। बहुत अच्छा वाक्य आया-’पहले हम छोटे-छोटे अचीवमेंट से सेटिस्फाइड होते थे पर एक स्तर पा जाने के बाद सेटिस्फेक्शन को ही अपना अचीवमेंट मानते हैं।’ सच्चे अर्थों में देखा जाए तो true achievement (सच्ची उपलब्धि) और stable achievement (स्थिर उपलब्धि) जो भी है, तो वह satisfaction (संतोष) ही है। मन की सन्तुष्टि के अभाव में पाई गई बड़ी-बड़ी उपलब्धियाँ भी अर्थहीन हैं। हमें अन्ततः स्वीकारना तो वही चाहिए लेकिन मनुष्य की दुर्बलता है, उसका चित्त प्राय: बाहर भागता है वह अपना सुख हमेशा दूसरों में खोजता है; और दूसरों में जो खोजता है, वह दूसरे के सुख को पाना चाहता है। अपना सुख नहीं पाना चाहता- ‘वह इसलिए सुखी है क्योंकि उसके पास अच्छी गाड़ी है, मेरे पास भी वैसी गाड़ी आएगी तो मैं सुखी होऊँगा; उसके पास अच्छा बंगला है, वह बंगला मुझे मिलेगा तो………; उसके पास इस तरह के कपड़े हैं, मुझे वैसे कपड़े मिल जाएँ तो…….; उसके पास जो बैग है मुझे ऐसा बैग मिलेगा तो…. मैं सुखी होऊँगा।’ हम शुरू से अपने दिल-दिमाग में यही बैठा कर रखते हैं। अपना सुख जब मनुष्य दूसरों पर खोजता है तब तक वह अचीवमेंट में सेटिस्फेक्शन देखता है; लेकिन जिस दिन मनुष्य अपना सुख अपने भीतर खोजने लगता है उसी पल सेटिस्फेक्शन ही उसका अचीवमेंट बन जाता है। सन्तोष को अपने जीवन की उपलब्धि बनाना चाहते हो पहला काम अपना सुख खोजो। अन्ततः सेटिस्फेक्शन है, तो अन्दर ही। आप अचीवमेंट में सेटिस्फाइड होते हैं वह भी अन्दर है, वह inner feeling (आंतरिक अनुभूति) है। अपना सुख अपने भीतर खोजने की शुरुआत हमें करनी चाहिए और यही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
बहुत अच्छा सवाल खड़ा किया है, जब सबको ये पता है फिर ये भागमभाग क्यों? दिमाग को पता है, ह्रदय में वह बात नहीं है। सब दिमाग से सोचते हैं, जिस दिन दिल से सोचने लगेंगे दिशा बदल जाएगी। तुम लोगों में और हम लोगों में इतना ही तो अन्तर है। तुम लोग दिमाग से सोचते हो तो सोचते ही रह जाते हो, हमने दिल से सोचा तो आज कहाँ से कहाँ पहुँच गए। बात दिल से लगनी चाहिए, हमारे अन्दर का मोह का संस्कार हमें मानने नहीं देता। बार-बार बार-बार उसी में लगता है। जब हारने लगता है तब वो सोचता है- ‘अरे यार यह तो व्यर्थ है, सेटिस्फेकशन तो ऐसे होगा।’ ये चीजें हमें अपने भीतर दिखाना चाहिए।
दूसरी बात, आपने कहा कि ‘जैन लोग religious (धार्मिक) तो बहुत हैं, spiritual (आध्यात्मिक) भी होना चाहिए।’ वस्तुतः धर्म के वास्तविक रूप को हम यदि समझें तो उसका वास्तविक रूप आध्यात्मिक चेतना का जागरण है। अपने भीतर अध्यात्मिकता का जागरण होना चाहिए। जब भी हम धर्म को देखें तो धर्म के तीन रूप हैं – पहला उपासना, दूसरा नैतिकता और प्रमाणिकता और तीसरा आध्यात्मिक जागरण- तीनों धर्म हैं। उपासना का धर्म बड़ा सरल है एक घंटा पूजा कर लो, दो घंटा पूजा कर लो, पाठ कर लो, प्रवचन सुन लो, गुरुओं के समागम में आ जाओ और कुछ दान पुण्य कर दो, त्याग तपस्या कर दो, धर्मात्मा होने का लेवल पालो- ये उपासना है। लेकिन कोई जरूरी नहीं कि जो उपासना हो सच्ची उपासना हो। सच्ची उपासना वही है जो हमारे मन की वासना को शान्त करती है। उपासना करने के बाद भी यदि मेरे मन में वही चीजें हैं तो अभी मेरी उपासना कच्ची है, सच्ची नहीं। हम उपासना करें, ठीक करें, पूरी तरह से करें और उपासना के साथ अपना ईमान सुरक्षित रखें। नैतिकता और प्रमाणिकता की कसौटी पर पूरी तरह खरे उतरें, उसमें रंच मात्र भी कमी न होने दें। ये सब चीजें तब होंगी जब हमारे अन्दर आध्यात्मिक चेतना का जागरण होगा। अन्त में आध्यात्मिक चेतना का जागरण होते ही सारी चीजें आपोआप जुड़ने लगती हैं और हमारे जीवन की धारा बदल जाती है। धार्मिक होना सरल है, आध्यात्मिक होना कठिन। आपने कहा ‘लोग अच्छा धर्म करते हैं अच्छा इंसान क्यों नहीं बनते?’ मैं कहता हूँ अच्छा इंसान बनना ही हमारा सबसे अच्छा धर्म है। हम एक अच्छा इंसान बनने को अपना धर्म माने, जिसमें हमारे अन्दर नैतिकता हो, प्रमाणिकता हो, इंसानियत हो और हमारा जीवन अध्यात्म से रचा-पचा हो, वो हमारी लाइफ टाइम अचीवमेंट है। वही हमारे जीवन के रूपांतरण का आधार है। मैं कहता हूँ लोगों को इसी दिशा में बढ़ना चाहिए और सब इसी दिशा में बढे। तुम भी धर्म के साथ जुड़े हो, अध्यात्म के साथ और जुड़ो, जीवन में चार चाँद लगेंगे।
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