आत्मा शरीर में निवास करती है फिर भी आत्मा को शरीर से भिन्न माना गया है। ये भेद- विज्ञान क्या है, आत्मा को पहचानने व पाने के लिए क्या करना चाहिए?
आत्मा शरीर में है पर शरीर से भिन्न है। घी दूध में पाया जाता है! दूध के रग-रग में घी घुला है लेकिन दूध घी से भिन्न है। वैसे ही शरीर के एक-एक प्रदेश में आत्मा का प्रवेश है फिर भी आत्मा शरीर से भिन्न है।
शरीर से भिन्न आत्मा की अभिव्यक्ति कैसे होगी? जैसे दूध और घी दोनों स्वभाविक रूप से मिले हुए हैं, उस दूध में से घी निकालने के लिए उस दूध को जमाते हैं, नवनीत निकालते हैं, तपाते हैं तब घी निकलता है, प्रोसेस (प्रसंस्करण) करने से घी निकलता है। ऐसे ही अपनी आत्मा को हम तब तक पृथक नहीं कर सकते जब तक हम साधना की सही कोशिश न कर सकें। जिसे ये पता है कि इस दूध में घी है, वही घी निकाल सकता है। आजकल तो लेक्टोमीटर से सब पता लग जाता है इसमें कितना फैट है कितना पर्सेंट फेट रखना है। लैक्टोमीटर से सब जान लेते है किस दूध में कितना घी है, तो जिनको केवल घी से प्रयोजन होता है वह दूध को अनदेखा करते हैं। उनको पता है इसमें इतना फेट है और उनको आठ परसेंट रखना है या १० परसेंट रखना है -उसकी नजर केवल फैट पर होती है। इसी प्रकार से जिसे अपनी आत्मा की पहचान हो जाती है वे शरीर में स्थित होने पर भी शरीर के तरफ दृष्टि रखने की जगह यह मानते हैं कि इस देह के भीतर शुद्ध ज्ञाता दृष्टा आत्माराम है, वह चैतन्य तत्त्व है, उसकी तरफ दृष्टि रखते हैं। और जैसे दूध के घी को पहचानने के बाद उसी प्रक्रिया के तहत उसमें से घी निकालने का उद्यम किया जाता है, इसी तरह शरीर के अन्दर हमारी आत्मा है इसकी पहचान पा जाने वाला भेद-विज्ञानी साधक ही साधना के रास्ते पर चलता है। ज्ञान और वैराग्य का आश्रय लेता है, त्याग और तपस्या का मार्ग अपनाता है तब कहीं जाकर अपनी आत्मा के शुद्ध स्वरूप को उद्घाटित करता है।
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