जो लोग धर्मों में भेदभाव करते हैं, क्या वह उचित है?
धर्मों में भेदभाव करते हैं, इसका मतलब क्या है? सब धर्मों को एक मान लेना कतई उचित नहीं है। धार्मिकों के प्रति एक भाव होना चाहिए लेकिन धर्म के प्रति नहीं। अगर धर्म में एकरूपता होती तो इतने सारे धर्म बनते कैसे?, हर धर्म के साथ अपना एक दर्शन है, हर धर्म के साथ अपनी आचार्य व्यवस्था है।
आज जैन धर्म की बात करो, वो अहिंसा और वीतरागता का पोषण करता है, उसे ही धर्म के आदर्श के रूप में लेता है। तो जिस धर्म में हिंसा है, जिस धर्म में राग का पोषण है, उसे हम धर्म के रूप में कैसे आदर दे सकते हैं?
हमारा धर्म कहता है, धार्मिकों के प्रति सद्भाव रखो लेकिन धर्म के प्रति जो तुम्हारी आस्था है उसकी कसौटी पर जो खरे उतरे उसे ही स्वीकार करो। इस भेदभाव को भेदभाव नहीं कहा जा सकता अपितु अपनी आस्था पर दृढ़ता और अपनी अवधारणा की स्थिरता का द्योतक माना जाता है। जब तक तुम्हारा concept (विचारधारा) सही नहीं होगा, अपने जीवन को आगे नहीं बढ़ा सकोगे। इसलिए सही concept (विचारधारा) विकसित करो।
आजकल एक अवधारणा बढ़ते जा रही है, “गॉड इज़ वन” (“god is one”) , ये गलत अवधारणा है।” गॉड इज़ व”,, गॉड कोई नहीं है। ठीक है, हम सब एक हैं, मनुष्य मात्र एक है, ये सोच होना अलग बात है। लेकिन धर्म का जहाँ तक सवाल है, वही धर्म है जहाँ अहिंसा है और वही धर्म है जहाँ वीतरागता है। जिसमें हिंसा है और राग का पोषण है उसे धर्म मानना कतई उचित नहीं।
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