भक्ति के माध्यम से कठोर कर्मों की भी निर्जरा हो जाती है!

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शंका

भक्ति के माध्यम से कठोर कर्मों की भी निर्जरा हो जाती है!

समाधान

यह बात पहले बहुत ध्यान से समझने की है कि हमारे मूलभूत कर्मों की निर्जरा ध्यान की विशुद्धि से ही होती है। निधत्ति और निकाचितपना भी शुक्ल ध्यान की विशुद्धि से ही नष्ट होता है। कर्म सिद्धान्त की दृष्टि से जब हम बात करते हैं तो नवें गुणस्थान में जब कोई साधक प्रवेश करता है, तो निर्वृत्तिकरण के प्रथम समय में सब कर्मों का निधत्तिपन और निकाचितपन नष्ट होता है, लेकिन भक्ति का ऐसा कुछ प्रताप है कि उनका कुछ अंश भगवान की भक्ति से भी नष्ट हो जाता है। तो जो कार्य शुक्ल ध्यान की विशुद्धि से संपादित होता है, वही कार्य भक्ति भाव के प्रभाव से भी कुछ अंशों में संपन्न हो जाता है। इसलिए शुक्ल ध्यान जब हो तो हो, लेकिन जब तक शुक्ल ध्यान नहीं है तब तक भाव-भक्ति के साथ धर्म-ध्यान करते रहना चाहिए, इस धर्म-ध्यान में भी कल्याण है यह मोह के क्षय का सातिशय निमित्त बनता है।

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