टूटा पापड़
(मुनि श्री प्रमाणसागर जी के प्रवचनांश)
एक व्यक्ति एक भोज में गया। भोजन के अंत में सभी को अखण्डित पापड़ परोसा जा रहा था। जब उसका नम्बर आया तब उसको खण्डित पापड़ मिला। उसने इसे अपना अपमान मान लिया। परोसने वाला तो बेखबर था। उस व्यक्ति ने इस अपमान का बदला लेने की ठान ली। उसने सोचा मुझे भी एक भोज का आयोजन करना चाहिए पर भोज देने के लिए उसके पास पैसे नही थे। इसलिये बाजार से पैसा कर्ज लेकर गाँव को पंगत दी। पंगत में जब पापड़ परोसने का नम्बर आया तो सभी को अखण्डित पापड़ परोसा और जब सम्बन्धित व्यक्ति का नम्बर आया तो उसे खण्डित पापड़ परोसा। सामने वाला सहज भाव से पापड़ खाने लगा। उसके मन में कुछ नहीं था। परोसने वाले ने कहा – देखो, आज मेंने बदला ले लिया। उस दिन तुमने मुझे खण्डित पापड़ परोसा था। आज हमने भी तुम्हें खण्डित पापड़ परोसा है। उसका नतीजा दिखा दिया। वह बोला – इतनी ही बात थी तों उसी समय मुझे टोक देते, मैं तुमसे क्षमा माँग लेता। उस खण्डित पापड का बदला लेने के लिये कर्जा और पंगत देने की क्या जरूरत थी।
कई बार हमारा मान हमें गलतफहमियों के बीच खड़ा कर देता है। इसी मान की वजह से हम दूसरे व्यक्ति से वार्तालाप की पहल नहीं कर पाते जो गलतफहमी को बैर में भी बदल सकता है। उस बैर का बदला लेने के चक्कर में खुद को बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ सकती है। इसलिए बहुत जरूरी है कि हम मान का त्याग कर गलतफहमी को दूर करने के लिए वार्तालाप की पहल करें।
Edited by: Pramanik Samooh
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