जब हम ब्रह्मचर्य आश्रम से गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करते हैं तो हमारे जीवन का एक लम्बा हिस्सा बच्चों के लालन-पालन में निकल जाता है। हम यह समझना चाहते हैं कि बच्चों का लालन-पालन एक भार है, एक जिम्मेदारी है, एक कर्तव्य है या व्यवहार में यही धर्म है? इसको भार मानने का बहुत बड़ा कारण है “हम दो और हमारे एक” वाली संस्कृति! इसका कृपया मार्गदर्शन कीजिये।
यदि आप गृहस्थ बने हैं तो गृहस्थी में दायित्त्व भी हैं, कर्तव्य भी है और धर्म भी है। हमारे तीर्थंकर भगवन्तों ने गृहस्थों के लिए गृहस्थ धर्म निरूपित किया है। गृहस्थ धर्म के अन्तर्गत अपने गृहस्थिक दायित्वों और कर्तव्यों का निर्वहन भी समाहित है। हमारे तीर्थंकर भगवन्तों ने गृहस्थों को धर्म का उपदेश देते हुए केवल यह नहीं कहा कि खूब पूजा-पाठ, दान धर्म करो, त्याग-तपस्या करो, हमारे तीर्थंकर भगवन्तों ने गृहस्थों को जो धर्म करने के लिए कहा उसमें षट्कर्म करने को कहा
इज्याँ वार्तां च दत्तीं च स्वाध्यायं संयमं तपः।
श्रुतोपासक सूत्रत्वात् स तेभ्यं समुपादिशत्।।
इज्या, वार्ता, दत्ती, स्वाध्याय, संयम और तप -ये गृहस्थों के षट्कर्म भगवान ऋषभदेव ने बताएँ जिसे आदि पुराण में आचार्य जिनसेन ने प्रतिपादित किया। ये षट्कर्म हैं, इससे गृहस्थ अपने जीवन का निर्वाह करें। इज्या मतलब भगवान की पूजा, वार्ता- वृत्ति का कर्म यानि अपनी जीविका का उपार्जन, जीविका के उपार्जन के लिए षट्कर्म बताए गए हैं- अर्थोपार्जन कर्माणि षट:– असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प, वाणिज्य। इन ६ कर्मों से अपनी जीविका का निर्वाह करो। यह तुम्हारे गृहस्थ धर्म का एक अंग है। दत्ती अर्थात दान। स्वाध्याय, संयम, तप ये अलग चीजें हो गई। मैं जिस बात पर आप सबका ध्यान केंद्रित कर रहा हूँ, वह यह कि वार्ता को भी गृहस्थ के धर्म में बताया। वार्ता शब्द को अति व्यापकता से समझिए, वार्ता का मतलब केवल वृत्ति का संचालन नहीं, अपितु समस्त गृहस्थी का संचालन और इसमें न केवल सन्तान के लालन-पालन की बात आएगी, अपितु अपने परिजनों की सेवा की भी बात आएगी। परिजनों की सेवा, कुरल काव्य में लिखा है- परिजनों की सेवा, अतिथि सत्कार, देव पूजन, कुलाचार का पालन और आत्मोन्नति, गृहस्थ के यही पंचकर्म हैं। तो ये तुम्हारा धर्म है, इस धर्म का अनुपालन होना ही चाहिए तो सन्तान को उत्पन्न करना और सन्तान को उत्पन्न करने के बाद उनका लालन-पालन करना, उनको अच्छे संस्कार देना, ये तुम्हारा कर्तव्य भी है, दायित्त्व भी है और धर्म भी है।
अगर गृहस्थ सन्तान को उत्पन्न नहीं करेंगे तो सन्तति का विकास कैसे होगा? धर्म की परम्परा आगे कैसे चलेगी?किसी माँ बाप ने एक सपूत को नहीं जन्मा होता तो तीर्थंकर कैसे बने होते? मलप्पा और श्रीमती ने विद्याधर को नहीं जन्मा होता तो आज विद्यासागर कैसे बने होते? इसे उथली दृष्टि से देखना कतई उचित नहीं है। यह धर्म है, जिम्मेदारी है, दायित्त्व है, इसका निर्वाह होना चाहिए। इसे भार समझने वाले लोग खुद इस धरती पर भार हैं। यह उल्टा कंसेप्ट है, जिसे अपना कर्तव्य और दायित्त्व समझकर के सहज स्वीकार करना चाहिए कि तुमने गृहस्थ आश्रम में पैर रखा तो अपने दायित्त्व का अच्छी तरह से निर्वहन करो और एक आदर्श गृहस्थ के रूप में अपने आप को प्रतिस्थापित करो। उसकी जगह आज यह सब पश्चिमी जीवन मूल्यों का दुष्प्रभाव है कि जब लोग अपनी सन्तान को ही भार समझने लगे।
‘हमारे दो और हमारे एक’ का कंसेप्ट बहुत बुरा है। इसके दुष्परिणाम भी बहुत आ रहे हैं। आज सुबह मैंने अपने प्रवचन में कहा था कि विजयपथ सिंघानिया की जो दुर्दशा हुई वह इसी वजह से हुई। साहनी की जो दुर्दशा हुई वह इसी वजह से हुई। आप अपने बच्चे के लिए ही अपना जीवन लगाएँ, बच्चे को लालन-पालन करें और १ बच्चे तक सीमित नहीं रखे। मैं तो कहता कम से कम चार रखो, कभी दुखी नहीं होंगे। एक तो संभालेगा! अब क्या होता है, एक बच्चे को पैदा करते हैं, एक में ही सारा प्यार उमड़ जाता है। बाद में, वही बच्चा अंगूठा दिखा देता है।
पुराने समय में और आज के समय में कितना अन्तर है? देखिए कंसेप्ट में कितना बदलाव आया है। पुराने समय में घर में लावना आता था तो जितने सदस्य होते थे उनकी पाती होती थी जो अनुपस्थित होता था उसके हिस्से की चीज एक तरफ रख दी जाती थी कि जब आएगा तब खाएगा। और आज एक बेटा है उसकी माँ उसके पीछे घूमती है- ‘बेटा, खाले, खाले!’ बेटा कहता है-मम्मी नहीं खाना। पहले लाड़ बँटता था तो भी बच्चों में प्यार रहता था; और आज सारा प्रेम एक पर केंद्रित होता है, तो भी बच्चे दुत्कारते हैं, बड़े होने के बाद। क्यों? क्योंकि उनके भीतर जो अपनत्व के संस्कार होने चाहिए वे खत्म हो गए। एक परिवार में जब अनेक सदस्य होते हैं तो जो किलकारियाँ गूंजती है उसका रूप ही अलग है। इसको भार कभी नहीं समझना चाहिए और सन्तति के नियंत्रण का कोई भी कृत्रिम उपाय नहीं करना चाहिए। प्राकृतिक रूप से जो हो सो हो। महान पुरुषों के तो एक ही होते थे, तीर्थंकर तो एक ही इकलौते सन्तान होते हैं। प्रकृति जो तुम्हें दे दे सो दे दे लेकिन मुझे नहीं चाहिए, ये गलत है। बीज बोयें तो फसल काटने के लिए भी तैयार रहे। ‘मैं बीज तो बोऊँगा पर मुझे फसल नहीं चाहिए’, ये अवधारणा निश्चित गलत है। हमें ऐसी अवधारणाओं को कभी प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए।
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