उत्तम त्याग धर्म
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आत्मशुद्धि के उद्देश्य से विकार भाव छोड़ना तथा स्व-पर उपकार की दृष्टि से धन आदि का दान करना त्यागधर्म है। अतः भोग में लाई गई वस्तु को छोड़ देना भी त्याग धर्म है। आध्यात्मिक दृष्टि से राग द्वेष क्रोध मान आदि विकार भावों का आत्मा से छूट जाना ही त्याग है। उससे नीची श्रेणी का त्याग धन आदि से ममत्व छोड़कर अन्य जीवों की सहायता के लिये दान करना है।
उत्तम प्रवचन
उत्तम त्याग धर्म - आकांक्षा को कम करो
उत्तम त्याग | मंगल प्रवचन | मुनि प्रमाणसागर जी
उत्तम सूक्तियाँ
- घर पर आया हुआ भिखारी भीख नहीं माँगता अपितु सीख देता है कि मैंने दान नही दिया तो मैं भिखारी बन गया। अब तुम अपनी बात सीख लो।
- पैसों के दान से ज्यादा महत्त्व आपके समय के दान का है, क्योंकि पैसे के दान से व्यक्ति केवल दान करता है परन्तु समय के दान से व्यक्ति योगदान करता है|
- धन का अभिमान नहीं दान करना, यही धन का सही प्रयोग है।
- दान जीवन में मिठास भरता है और संग्रह जीवन को खारा बनाता है।
- कंजूस व्यक्ति से बड़ा इस धरती पर कोई दानी नहीं होता क्योंकि वह अपना सब कुछ बिना हाथ लगाये छोड़ जाता है|
- उदारता और वितरण में मिठास है, संग्रह और कृपणता में खारापन है।
- सम्पत्ति तुम्हारे पास है, मगर तुम्हारी नहीं है। यह कर्म की है, जब तक कर्म है तब तक तुम्हारे पास है।
- एक व्यक्ति है जो सम्पत्ति को अपनी मानकर त्यागता है, और एक व्यक्ति है जो पर सम्पत्ति जो पर मान के छोङता है। दोनो की मानसिकता में बहुत अन्तर होता है। जो अपनी सम्पत्ति को अपनी मानकर त्यागता है, उसके मन में अभिमान भी आ सकता है लेकिन जो पर सम्पत्ति जो पर मानके छोङता है, उसके मन में किसी प्रकार का अभिमान नहीं आता, अपितु अपने को दायित्यमुक्त और निर्भार महसूस करता है।