हमारा मन व्रत-संयम लेने का करता है। कई बार हम ले भी लेते हैं, पर कई बार ऐसा होता है कि व्रत संयम में परिपक्वता नहीं आ पाती। बच्चे भी छोटे हैं, मन भी बहुत करता है कि यह छोड़ दें, वह भी छोड़ दें, तो ऐसा क्या करना चाहिए जिससे परिपक्वता बनी रहे?
जब भी कोई व्रत लो, उसके प्रति आपकी निष्ठा गहरी होनी चाहिए। हर पल यह भाव रहना चाहिए कि “यह व्रत मैंने स्वयं स्वीकार किया है। यह मेरे जीवन की एक बहुत बड़ी निधि है, सम्पदा है, मुझे सम्भाल कर रखना है।” आप अपने कीमती गहने, ornaments (आभूषणों) को क्यों सम्भाल कर रखते हैं? क्योंकि आपको उसके मूल्य का बोध है। “यह व्रत मेरे जीवन की सबसे बड़ी सम्पदा है, मेरे जीवन की मूल निधि है, मुझे अपने जीवन की अन्तिम साँस तक इसका अनुपालन करना है। मेरे द्वारा जोड़ी गई बाहर की निधि खो जाए तो उसे फिर भी पाया जा सकता है, पर मेरे व्रत की निधि यदि खो गई, तो दोबारा मैं नहीं पा सकती।” यह श्रद्धा ये निष्ठा अपने मन में जगाओ तो आप जो भी व्रत लोगे उस व्रत के प्रति उत्साह बना रहेगा, खंडित नहीं होगा।
दूसरी बात जब कोई व्रत ले और उसके बाद कोई विपत्तियाँ आएं, प्रतिकूल परिस्थितियाँ आएं, मन विचलित होने लगे, तो उस समय मुनियों को याद करो- “हम तो थोड़ी सी परिस्थिति से विचलित हो रहे हैं। वे मुनि महाराज प्रकृति की कितनी प्रतिकूलताओं को सहते हुए अपने व्रतों का अनुपालन करते हैं और उससे विचलित नहीं होते तो हम क्यों विचलित हो रहे हैं?” मन में दृढ़ता आएगी, मजबूती आएगी। कुछ ऐसा उपदेश सुनने लगो या ऐसा कुछ पढ़ने लगो कि जैसे मन को इस तरह का मोटिवेशन (motivation) मिले, मन फिर से रिचार्ज (recharge) हो जाएगा और मन कभी इधर-उधर नहीं भागेगा अपितु नए-नए व्रत संकल्प लेने के लिए सदैव उत्साहित बना रहेगा।
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