बुढ़ापा कैसे सार्थक बनाना चाहिए?
जवानी में बुढ़ापे की बात पूछ रही है। सोच रही है कि बुढ़ापे में बुढ़ापे की बात क्यों पूछें, अभी से पूछ लें, आना तो है ही!
बुढ़ापे को सार्थक बनाने के लिए हमें कुछ ध्यान रखना चाहिए, मैं तो यह कहता हूँ जिसकी जवानी अच्छी होती है उसका बुढ़ापा अच्छा कटता है; जिसकी जवानी खराब होती है, उसका बुढ़ापा भी खराब हो जाता है। हमें अपनी जिंदगी के हर पल को सार्थक बनाने का प्रयास करना चाहिए जहाँ तक बुढ़ापे को अच्छा बनाने का सवाल है, कोई गारंटी है कि हमारा बुढ़ापा आए ही? जिंदगी को अच्छा बनाने का प्रयास करो और हम हर क्षण अच्छा क्षण बनाकर जियें तो आनंद होगा। जिन्होंने बुढ़ापे की दहलीज पर पाँव रखा है मैं उन सब से कहना चाहता हूँ कि अपने जीवन का कल्याण करना चाहते हो कुछ खास बातों का ध्यान रखें। यह प्रश्न काफी लंबी विवेचना की अपेक्षा रखता है लेकिन मैं सार संक्षेप पर कुछ बातें उन लोगों के लिए देना चाहता हूँ जो वृद्धावस्था के नज़दीक पहुंच गए हैं या वृद्धावस्था के दौर से गुज़र रहे हैं। यह बुढ़ापे का जीवन बड़ा विचित्र जीवन होता है। जिस शरीर में सत्व नहीं रहता मन में बहुत इच्छाएँ होती है और उस घड़ी उन बुजुर्गों को बहुत तकलीफ़ होती है, जब उन्हें अपने ही संतान की उपेक्षा का पात्र बनना पड़ता है। ऐसी स्थिति में क्या करें मनुष्य जीवन बहुत दुर्लभता से मिला है और अपने इस मनुष्य जीवन को सार्थक बनाने के लिए हमें कुछ ठीक तरीके से समझना चाहिए।
हमारे यहाँ प्राचीन काल में आश्रम व्यवस्था रही। ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और फिर सन्यास आश्रम! सबसे पहले कहा गया कि अध्ययन काल में ब्रह्मचर्य पूर्वक अध्ययन करें, वह है ब्रह्मचर्य आश्रम! अध्ययन परिपूर्ण होने के बाद यौवन से परिपूर्ण हो जाने के बाद गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने की व्यवस्था विवाह विधि से बंद करके थी। गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने के उपरांत यह कहा गया कि एक निश्चित समय अवधि तक कोई भी व्यक्ति गृहस्थी का पालन करें और जितनी जरूरत है उतना अर्जित करें। जब उसकी संतान योग्य हो जाए, अपने पाँव पर खड़े होते दिखे तो फिर इस गृहस्थी के जंजाल से अपने आप को मुक्त कर कल्याण के रास्ते पर आगे बढ़ने का प्रयास करें, उसका नाम है वानप्रस्थ आश्रम! जिसमें घर में रहते हुए भी न रहने जैसी स्थिति धीरे-धीरे धीरे-धीरे वन की ओर जिसका मुख यानि गुरुजनों की ओर जिसका मुख हो गया; और जीवन के आखिरी क्षणों में सल्लेखना-समाधि पूर्वक अपने जीवन को बिताने का नाम सन्यास आश्रम है। यह चार आश्रम की व्यवस्था है जब तक कोई भी व्यक्ति पढ़ रहा है पढ़ने के काल तक उसे ब्रह्मचर्य से रहना चाहिए।पुराने युग में ब्रह्मचर्य पूर्वक ही गुरुकुल में अध्ययन होता था और प्रत्येक विद्यार्थी, चाहे वो राजकुमार भी क्यों ना हो, अपने अध्ययन के काल में ब्रह्मचर्य के साथ रहा करता था।
इन बातों के साथ मनोविज्ञान भी जुड़ा हुआ है। मनोविज्ञान के अनुसार १४-१४ वर्ष के चार साइकिल हमारे जीवन चक्र में चलते हैं। १४ वर्ष की जो प्रारंभिक अवस्था होती है उसमें हमारा मानसिक विकास बहुत तेज गति से होता है। इस विकास का आधार बताया कि मनुष्य के मन में जब तक यौन विकार प्रकट नहीं होते तब तक उसका मानसिक विकास बहुत तेजी से होता है। भारत में पहले यह अवधि १४ वर्ष थी, अमेरिका में १२ वर्ष, अब भारत में ११ वर्ष हो गया है। धीरे धीरे धीरे धीरे यौन विकारों का उद्दीपन, असमय, आज के परिवेश के निमित्त से होने लगा है। तो १४ वर्ष की अवस्था जो प्रारंभिक अवस्था है, जिसमें मानसिक विकास होता है और उसके बाद के १४ वर्ष की अवस्था में उसका पल्लवन होता है। तो इन २८ वर्ष तक के लिए अगर कोई ब्रह्मचर्य की साधना करता है, उसके बाद विवाह में प्रवेश करता है, तो वह एक योग्य संतान का जनक होने का सौभाग्य प्राप्त करता है। २८ वर्ष तक ब्रह्मचर्य, उसके बाद वह गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करे। २८ वर्ष के बाद के १४ वर्ष जो बात का,है वह ४२ वर्ष तक की अवस्था है; इस अवस्था में मनुष्य के मन में तीव्र जीवेश्ना प्रकट होती है। विश्व के जितने भी नाम चीन लोग हुए हैं, जिन्होनें पूरे विश्व में प्रसिद्धि को पाया है, वे प्रायः ३५ -३८ साल की उम्र में हुए हैं। इस उम्र में बहुत कुछ करने की प्रगाढ़ आकांक्षा होती है, जिसको तीव्र जीवेश्ना बोलते हैं। इस आयु में व्यापार करना, नाम कमाना, परिवार-परिजन, अपने आप को समाज में स्थापित करना, इन सब की एक ललक उठनी शुरू होती है। ४२ वर्ष तक यह जीवेश्ना बढ़ती है; ४२ वर्ष के बाद के ५६ वर्ष तक ये जीवेश्ना धीरे-धीरे मंद होने लगती है और मनोविज्ञान के अनुसार ५६ वर्ष की उम्र के बाद व्यक्ति की मृत्युऐश्ना प्रारंभ हो जाती है। फिर बहुत ज्यादा आकांक्षाएँ मन में नहीं रहती, धीरे-धीरे कम होती हैं। आप भी अपने जीवन में महसूस करते होंगे कि एक समय तक आदमी के अंदर बहुत तेजी से दौड़ने का भाव होता है; फिर धीरे धीरे धीरे मन कहता है ‘बहुत हो गया, अब रुको!’
मैं आपसे धर्म के हिसाब से कहना चाहता हूँ, प्रत्येक व्यक्ति अपने विवाह के दिन एक टारगेट फ़िक्स करे, कि मैं कब तक सक्रिय गृहस्थी में जीऊंगा! यदि किसी युवक का विवाह २४ -२५ वर्ष की उम्र में होता है, तो वह तय कर ले कि-“आज से २५ वर्ष के बाद, जब मेरा बेटा २०-२२ साल का हो जाएगा, तब तक ही मैं पूर्ण सक्रियता के साथ गृहस्थी में रहूँगा। ५० वर्ष के होते होते मैं अपने आप को समेटना शुरू करूँगा। फिर धीरे- धीरे घर परिवार की ज़िम्मेदारी अपने बेटे और बहू को देना शुरू करूँगा। जब मुझे लगेगा कि यह अपने कारोबार को संभालने में घर की ज़िम्मेदारी को संभालने में पूरी तरह दक्ष हैं, में उनके साथ ढील छोड़ता जाऊँगा और अपने लिए उतना रखूंगा जितने के लिए हमें उसके आगे कभी हाथ न फैलाना पड़े।”
५० कैसे बनता है? ५ पर ० लगाने पर ५० होता है, ५० को छूते ही ५ बातों पर ० लगाना शुरु कर दो। ५ चीज़ें शून्य “०” करो!
नंबर एक- अंधकार शून्य! तुम्हारा अज्ञान अंधकार खत्म हो जाना चाहिए।
नंबर दो – अहंकार शून्य! अपनी मिलकियत के अहंकार को खत्म कर देना चाहिए।
नंबर तीन – अधिकार शून्य! अपने स्वामित्व के भाव को खत्म कर देना चाहिए।
नंबर चार- अंगीकार शून्य! अब मैं अपने लिए कुछ भी खरीदूंँगा नहीं।
नंबर पांच- अलंकार शून्य! तड़क-भड़क से खत्म, अपने आप को सादा रखने की कोशिश करो।
५० से प्रारंभ करो, ६० की उम्र आते-आते अपने आप को रिटायर कर दो। आजकल लोग टायर्ड हो जाते है लेकिन रिटायर्ड होने की कोशिश नहीं करते। रिटायर्ड माने- सेवानिवृत्ति! अब अपनी सेवा करना है, पर की सेवा नहीं करना। ६० की आयु छूते- छूते इन सब चीजों से अपने आप को मुक्त करें। अपने खाने-पीने की आदतों पर संयम रखें; अपने प्रवृत्तियों में संयम रखें और अपना अधिकतम समय धर्म ध्यान में दें। बचपन ज्ञानार्जन के लिए, जवानी धनार्जन के लिए और बुढ़ापा पुण्यार्जन के लिए सुरक्षित रख लो। जब जो करना है, करना है। “अभी तक मैंने जो किया, अपने परिवार के लिए, अपने बच्चों के लिए, सबके लिए कर दिया और अब मुझे जो भी करना है, मुझे अपने लिए करना है।” अपनी शक्ति का, अपने संसाधनों का, केवल अपने लिए उपयोग करो। जितना बन सके, व्रत- संयम का पालन करो और अपना चित्त धर्म-ध्यान में लगाओ। अपनी संपत्ति का दान धर्म में उपयोग करो, ये सबसे अच्छा उपयोग है। इसके बाद अब ज्यादा बच्चों के पीछे हो उलझना, उनके मोह में पड़ना, अपनी आत्मा की दुर्गति करना है। इससे अपने आपको बचा ले तो इंसान बहुत आगे बढ़ सकता है, उसका जीवन बहुत सुखी हो सकता है।
आप अपने आपको इसमें धीरे-धीरे लगाना शुरु कीजिए, आपके जीवन में आनंद आएगा। कुछ अपनी आंतरिक व्यवस्थाओं को बदलिए, व्रत-संयम से जुड़ने के साथ दान-धर्म से जुड़िये, और घर में मालिक की भाँति न रहकर मेहमान की भाँति रहना शुरू कर दें। घर में रहते हुए भी न रहने जैसा! अब तक आप घर के मार्ग निर्णायक थे, ६० के बाद जब बेटा-बहू सब कुछ अच्छे से संचालित करने लगे, आप मार्ग निर्णायक ना बनकर मार्गदर्शन की भूमिका तक अपने आप को समेट लीजिए। पूछें, तो बता दीजिए, ज़बरदस्ती बताने का कोई काम नहीं।
एक और बात बोलता हूँ! पहली पारी में इतना स्कोर खड़ा कर लीजिए कि दूसरी पारी में आपको बल्ला उठाने की नौबत ही ना आये। अपनी व्यवस्था कर लो, बच्चों पर कभी निर्भर (DEPEND) मत रहना। ज़माना खराब है, या तो त्यागी बन जाओ तो कोई जरूरत नहीं और यदि गृहस्थ हो तो इतना बचा के रखो कि कभी किसी के आगे हाथ फैलाने की नौबत ना आए या ऐसी व्यवस्था कर लो कि एक नियमित आमदनी आपके जीवन के निर्वाह के लिए हो जाए। दूसरी बात- संतान को जो देना है, पहले दे दो! बाद में जो बचे अपने पास रखो, उसको अपने साथ ले जाओ!
अपने साथ ले जाओ मतलब? आज तक इस दुनिया से अपने साथ में कोई कुछ लेकर गया? ले जा नहीं सकता। आप ले जा नहीं सकते इसलिए अपने बच्चों को देते हैं या आप को बच्चों को देना चाहते हैं इसलिए देते हैं? ईमानदारी से बताइये! अगर ऐसी व्यवस्था होती कि आपकी संपत्ति को आप अपने साथ ले जाने में समर्थ होते, तो ईमानदारी से बताओ, अपने बच्चों को दे कर जाते कि अपने साथ लेकर जाते? यदि अपने साथ लेकर जाने की व्यवस्था होती तो शायद एक भी नहीं होता देकर जाने वाला। हम आपको एक ऐसी व्यवस्था दे रहे हैं अपने साथ लेकर जाने के लिए, क्या आप तैयार हो? कैसे? देखो आज अमेरिका की करेंसी, भारत में काम नहीं आती और भारत की करेंसी,अमेरिका में काम नहीं आती, ठीक है। अगर आपको भारत से अमेरिका जाना होता तो आप क्या करते हैं? करेंसी को एक्सचेंज करते हैं! कहाँ एक्सचेंज करते हैं? बैंक के माध्यम से करेंसी को एक्सचेंज करते हैं। जब करेंसी एक्सचेंज हो जाती है, तो वहाँ की वैल्यू के अनुसार आपको वहाँ की करेंसी मिल जाती है, आपका काम चल जाता है। जब एक देश से दूसरे देश में जाने पर आपको करेंसी बदलनी पड़ती है, तो एक लोक से दूसरे लोक में जाना है, तो करेंसी चेंज कर लो! एक्सचेंज करने की व्यवस्था हम लोगों के पास है- दान देने का अर्थ है अपनी करेंसी को एक्सचेंज करना! एक्सचेंज कर लो, जो दान करोगे, सब तुम्हारे साथ जाएगा।
जिंदगी भर जो तुमने पाप करके कमाया उसे छोड़कर यहीं चले जाओगे, लेकिन उसे दान धर्म में लगाओगे तो वह तुम्हारे साथ जाने वाला होगा, वह तुम्हारे काम आएगा। ऐसा प्रयास करो, धर्म करो, संयम-साधना करो, साधु -संतो के साथ जुड़ जाओ, तुम्हारा बुढ़ापा आनंददायी हो जाएगा। जो ऐसा कर लेते हैं उनके लिए बुढ़ापा वरदान बन जाता है, जो ऐसा नहीं कर पाते उनके लिए बुढ़ापा बोझ बन जाता है। अथवा फिर किसी सामाजिक कार्य में लग जाओ, समाज कल्याणकारी कार्यों में अपनी एनर्जी को लगाओ, आपका मन बहुत आनंद से भरेगा, आपके काम करने में बहुत उत्साह और रुचि बनी रहेगी। यहाँ अजीत जी पाटनी बैठे हैं, जिस दिन रिटायर हुए, उस दिन बड़े हताश मन से आए थे कि “महाराज! मैं जीवन बीमा निगम का उच्च अधिकारी रहा, डिप्टी डायरेक्टर की पोस्ट से रिटायर हुआ, सबको आशा और उम्मीद बढ़ाता रहा लेकिन आज मेरी आशा टूटती रही है। रिटायरमेंट के बाद मैं क्या करूँगा? दोनों बेटे बाहर हैं, एक अमेरिका में, एक इंदौर में; मैं क्या करूँगा?” मैंने कहा- ‘कुछ नहीं करो, करने के लिए बहुत काम है’ और ऐसे लगे कि धर्म संयम के मार्ग में भी लग गए और समाज की सेवा में भी लग गए। आज ८० बरस में भी ६० बरस के दिखते हैं, अप-टू-डेट!
यह एक रास्ता है, मैंने देखा ऐसे अनेक लोग हैं जो अपने जीवन का सही दिशा में नियोजन कर लेते हैं, आख़िरी तक जवान बने रहते हैं और जो ऐसा नहीं करते हैं उनकी दशा बड़ी विचित्र हो जाती है। मैंने देखा है कि शेर की तरह जीने वाले लोग कुत्ते की मौत मरे हैं। इसलिए अपनी दुर्गति से बचना चाहते हो, बच्चों को पढ़ाओ – लिखाओ, वह बाहर जाए, रिटायर हो या रिटायरमेंट की उम्र में आओ, लग जाओ गुरु चरणों में तुम्हारा बेड़ा पार हो जाएगा, जीवन का उद्धार हो जाएगा।
Leave a Reply