अहंकार को कम करने का क्या उपाय है?
जिनसे अहंकार पुष्ट होते हैं, उन सारे कामों को बंद कर दो, अहंकार कम हो जाएगा।
अगर आप अपने अहंकार को कम करना चाहते हैं तो सबसे पहले, विनम्रता को अपने जीवन का आदर्श बनाएं। जिन व्यक्तियों को आप देखते हैं कि विनम्रता की मूर्ति हैं, समृद्धि के शिखर पर बैठने के बाद भी जो विनम्रता की मूर्ति बने बैठे हैं उनसे कुछ सीखें, देखें और ये बात समझें कि महानता का आधार अहंकार नहीं है, विनम्रता है। पेड़ उतना ही ऊँचा उठता है जितनी की उसकी जड़ें गहरी होती हैं। ऊँचाई सदैव गहराई के सापेक्ष होती है, यह हमारे चिंतन में होनी चाहिए। विनम्रता को आदर्श बनाकर चलने वाला व्यक्ति अपने अहंकार को जीत सकता है।
दूसरी बात संयोगों की नश्वरता का विचार करें। किन पर अहंकार होता है? अपने रूप पर, अपने वैभव पर, बुद्धि पर, अपने धन पर, अपने प्रभाव पर, अपनी प्रतिष्ठा पर- यह सब कितने दिनों की है? क्योंकि आज कर्म का उदय है, अनुकूल तो सब ठीक है, कल कर्म करवट बदल ले तो? जीवन की नश्वरता संयोगो की नश्वरता का बार-बार विचार करें। ‘किसका मैं अंहकार करूँ?’ अहंकार करने लायक कुछ है ही नहीं, दुनिया में ऐसे बहुत लोग हुए है जिन्होंने अपने आप को अहंकार के बल पर आसमान को छूना चाहा है लेकिन आज तक का इतिहास यही बताता है कि कोई भी व्यक्ति आसमान को छू नहीं सका। हाँ, जमीन में दबना जरूर पड़ा है। आसमान को छूने की ख्वाहिश रखने वाले हर इंसान को एक दिन जमींदोज होना पड़ा है। इसलिए इस पर विचार करें, ये नश्वर है, कोई टिकाऊ नहीं है, आज है कल रहे न रहे, कौन जानता है? अगर आप इसका विचार करेंगे तो जीवन में अहंकार कम होगा।
तीसरी बात अपने से ऊपर वालों को देखो, जब तुमको अहंकार सताने लगे तो देखो कि ‘मैं किसका अहंकार करता हूँ, मेरे से भी बड़े-बड़े लोग हैं, औरों के तो आगे मैं कुछ भी नहीं हूँ।’ अज्ञानी प्राणी तुच्छ उपलब्धियों को ही सर्वस्व मानकर अभिमान करता है जबकि ज्ञानी महान उपलब्धियों को भी तुच्छ समझता है; तो ये देखो कि औरों की अपेक्षा मैं क्या हूँ? मुनियों के लिए एक ज्ञान परिषह है और एक अज्ञान परिषह, वहाँ प्रश्न उठा कि दोनों परिषह एक साथ कैसे? या तो ज्ञान परिषह या अज्ञान परिषह? तो बहुत अच्छा उत्तर आया कि ज्ञान होने पर ज्ञान का मद न हो, तो ज्ञान परिषह; और तुम कितने भी ज्ञानी हो, केवल ज्ञान की अपेक्षा अज्ञानी हो, तो मन में हीन भावना न आने देना, अज्ञान परिषह है। तो तुम कितने भी बड़े बन जाओ, सबसे बड़े नहीं हो सकते, इसलिए इस बात का ध्यान रखो। व्यक्ति अगर यह विचार करे तो अहंकार को विगलित करने में समर्थ हो सकता है।
जीवन का कोई भरोसा नहीं, कब क्या हो जाए? हमारा समग्र जीवन कैसा है? हवा के वेग से कागज का एक टुकड़ा उड़ा और पर्वत के शिखर तक जा पहुँचा। पर्वत ने कागज का स्वागत करते हुये पूछा कि ‘भाई! यहाँ कैसे?’ कागज ने अहंकार से अकड़ते हुए कहा ‘अपने दम से और कैसे?’ तभी हवा का एक दूसरा झोंका आया और उस कागज को उड़ा कर वापस नीचे ले आया। अगले पल वह कागज नाली में पड़ा हुआ, सड रहा था। बस यही है मनुष्य की परिणति! पुण्य के योग में शिखर पर चढ़ जाओगे, पाप का प्रकोप आएगा, नाली में सड़ना पड़ेगा इसलिए कभी इन पर भरोसा न करो, जीवन धन्य हो जाएगा।
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