सबको खुश रखना मेरे हाथों में नहीं है पर किसी को दुखी न करें, ये जरूर मेरे हाथों में है। तो महाराज श्री, यदि कोई मेरे सुख की खुशी को देख करके खुद दुखी होता है, ईर्ष्या भावों से भरता है कि फलाने व्यक्ति तो इतना हो गया, कल तो कुछ नहीं था, साइकिल पे चलता था, आज मोटरसाइकिल पे, कल कार में आ गया। ये हर व्यक्ति के मन में पलता है, ईर्ष्या करता है। तो हम ऐसा क्या करें कि महाराज श्री उसके जीवन में सुख की सुगन्ध फैले और दुःख की दुर्गन्ध को निजात कैसे पाएँ। कृपया मार्गदर्शन करें।
मैं किसी के सुख में सुखी होऊँ या मैं सबको सुखी करूँ, ये मेरे हाथ में नहीं है पर मेरे कारण कोई दुखी न हो, ये भावना हर सच्चे धर्मात्मा की होती है। लेकिन कभी-कभी लोग हमारे सुख से भी दुखी हो जाते हैं। महाराज जी ने कहा है कि हमारे सुख से दुखी होने वाले लोगों के जीवन में सुख की सुगन्ध कैसे फैले। बहुत ऊँची सोच है, फैल सकती है। जिनको हमारे सुख से पीड़ा हो, उनके हृदय को अगर हम बदल दें तो उनका दुःख भी सुख में बदल सकता है। मैं आपको एक घटना बताना चाहूँगा और मैं समझता हूँ ये घटना ही इस प्रश्न का एक अच्छा उत्तर होगी। रविंद्र नाथ टैगोर को जब नोबल प्राइज मिला, पूरे विश्व भर के लोगों ने उन्हें अपनी-अपनी ओर से बधाइयाँ दीं, उनको प्रशंसा पत्र दिए गए। लेकिन उनके ही पास में रहने वाला एक व्यक्ति इस बात से बहुत चिड़ा हुआ था। उसके मन में बड़ी जलन हो रही थी, वो ईर्ष्या से भरा था। और वो सबसे कहता है, ये तो सब चापलूसी का परिणाम है, जुगाड़ करके नोबल प्राइज उसने लिया है। टैगोर साहब के बारे में वे नकारात्मक टिप्पणियाँ कर रहे थे। टैगोर साहब को पता लगा वो सुबह भ्रमण करने के लिए जाते थे, मॉर्निंग वॉक पर। रास्ते में उनका घर पड़ता था सीधे आए और उनके घर पर पहुँच गए। चरणों में सिर रखा, प्रणाम करके कहा, प्रणाम, आपकी कृपा से नोबेल प्राइज पाया हूँ, आशीर्वाद चाहता हूँ। सामने वाला पानी-पानी हो गया। उन्होंने टैगोर साहब को अपने गले से लगा लिया। माफ करना तुम वाकई में महान हो और तुम्हारे जैसे लोग ही नोबेल प्राइज के हकदार हैं। मैं व्यर्थ में तुम्हारे प्रति द्वेष पाल रखा था। मेरा हृदय बदल गया, मुझे गर्व है कि तुम्हारे जैसे लोगों को नोबेल प्राइज मिला है।
ये बात सही है कि मुझसे कोई दुखी हो, मेरे सुख को देखकर कोई दुखी हो, तो मैं कुछ नहीं कर सकता। लेकिन यदि मेरे से कोई परेशानी हो तो उसे मिटाने का प्रयत्न जरूर कर सकता हूँ और यदि वो व्यवाहरिक न हो तो भी उसे सुख पहुँचाने की भावना तो कर ही सकता हूँ। और हमारे यहाँ एक उक्ति है, “सबको सन्मति दे भगवान“। यह तो हम कर ही सकते हैं न। उनके प्रति भी हम यदि सकारत्मक दृष्टिकोण रखेंगे तो उनका भी ह्रदय परिवर्तित हो सकेगा।
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