व्रतों में अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार दोष किन कारणों से लगता है? ऐसा हमें क्या करना चाहिए जो इनसे बचा जा सके?
पहले तो अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार का स्वरूप समझें। फिर उनके कारण को जानें, फिर उनके निवारण की बात सोचें। अपने मन की विशुद्धि की कमी हो जाना, अतिक्रम है। मतलब व्रत में उल्लास की कमी होना एक प्रकार का अतिक्रम है। व्रत से विमुख तत्त्व के प्रति झुकाव हो जाना, व्यतिक्रम। अतिचार, यानी अपनी प्रतिज्ञा का आंशिक खंडन। और अनाचार, व्रत का भंग हो जाना।
मन की विशुद्धि का कम हो जाना, मानस शुद्धि की हानि हो जाना, अतिक्रम। कभी भी कोई व्रत लो तो उसे अपने जीवन की अमूल्य निधि के रूप में स्वीकार करो। उसके प्रति अपने उत्साह को सदैव बढ़ा कर रखो। साथ ही उसके विरोधी तत्वों से अपने आप को बचाओ अन्यथा मन का झुकाव उधर हो सकता है। जैसे ही झुकाव हुआ, व्यतिक्रम हो गया। और यह दोनों चीजें रखेंगे तो अतिचार की सम्भावनाएँ कम होंगी और जब अतिचार नहीं होगा तो अनाचार तो आप ही आप खत्म हो जाएगा। अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार यह सब कषाय की अधिकता में होता है, हमें कषायों के शमन का प्रयास करना चाहिए।
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