जिनवाणी के अनुसार कन्यादान का क्या मतलब है?
चित्रा, महेश नगर
हमारे यहाँ समद्त्ति, सकलदत्ति, दयादत्ति और पात्रदत्ति, ये चार प्रकार की दत्ति यानि दान है। जो चतुर्विध संघ को आहार, औषधि आदि दान देते हैं उसको बोलते है पात्रदत्ति। जो दीन-दुखी प्राणियों के लिए, दीन-दुखी जीवों की रक्षा के लिए आप करुणा बुद्धि से दान देते उसको बोलते है- दयादत्ति। अपने साधर्मीजनों को वंश चलाने के लिए कन्या देना, भवन देना, धन देना, भूमि देना, स्वर्ण आदि देना इसको बोलते है समदत्ति। अपने पुत्र को और पुत्र के अभाव में अपने दत्तक पुत्र को जो अपना धन और धर्म सौंपा जाता है उसको बोलते है सकलदत्ति। कन्यादान की परिपाटी हमारे यहाँ पुराने समय से है लेकिन कन्यादान का मतलब यह नहीं है कि जैसे अन्य को दान दे दिए जैसे गोदान दे दिया, बछिया दान दे दिया, अब वह कन्या हमारी नही। वो वंश को चलाने के लिए दिया जाता है, पाणिग्रहण संस्कार के तहत। अब रहा सवाल कि कन्या के घर में भोजन न करें, मेरी दृष्टि में यह उचित नहीं है। आज के समय में यदि हम कहें तो बेटी और बेटे में फर्क नहीं करना चाहिए। इस मानसिकता से उबरना चाहिए और जैन संस्कृति में कभी भी बेटी और बेटे में फर्क नहीं रहा। एक बात बताऊँ, आप लोगों को अच्छा भी लगेगा और कुछ लोगों को मुसीबत भी सामने दिखेगी लेकिन बता देता हूँ। हमारे जैन कानून के अनुसार बेटी को भी बेटे के बराबर का हक उपलब्ध है और पिता की सम्पत्ति की वह भी बराबरी के अधिकारी है। जो आज कानून कहता है जैन कानून बहुत पहले से ऐसा कहता है। इसलिए इस तरह का फर्क और भेद नहीं होना चाहिए।
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