अनुमोदना क्या है। अनुमोदना के बारे में विस्तार से बताएँ? क्या अब के समय में जाति स्मरण होना सम्भव है?
अनुमोदना क्या है? जब हम कोई कार्य स्वयं न कर सकें तो उसकी अनुमोदना करें। जैसे- बहुत सारे लोग दान देते हैं, दान देने की भावना हर किसी में नहीं होती है और यदि भावना होती है, तो कुछ की शक्ति नहीं होती है। एक व्यक्ति शक्ति के अनुरूप दान दे रहा है, अपनी भावना से दान दे रहा है और आपके मन में भावना है पर दान नहीं दे पा रहे हैं और आपके मन में हर्ष हो रहा है कि ‘अहो! कितना अच्छा कार्य किया! हे भगवन! इसको खूब सुख-शांति मिले और मेरी भी ऐसी सामर्थ्य हो!’ ये अच्छा कार्य है, अच्छे कार्य की आप अनुमोदना करो। क्या कमाओगे? पुण्य! हो सकता है कि आप अपनी अनुमोदना के बल पर वो पुण्य कमा लो जो सामने वाला दान देकर के या अच्छा कार्य करके भी नहीं कमा पाया। उसके मन में मान हो सकता है पर आपने उसका सम्मान किया।
ये अनुमोदना है, किंतु जब तुम दे न पाओ तब। देने की सामर्थ्य होते हुए केवल अनुमोदना की बात गलत है। मैं एक जगह था, एक विद्वतगोष्ठी थी करीब ३०-४० विद्वान् आये हुए थे। बहुत पुरानी बात है सन् १९८८ की! एक विद्वान् थे, थोड़ा मुनियों से दूरी रखते थे। बाकी सारे विद्वानों ने आहार दिया वो बाहर खड़े रहे। किसी ने बोला ‘पण्डित जी! आप भी आहार दे लो’ तो बाहर खड़े-खड़े बोले कि ‘हमारी तो अनुमोदना है।’ मैं आहार करने के उपरान्त जब बाहर निकला तो उनके साथी विद्वान् ने फिर छेड़ा कि ‘महाराज जी! इनको बोलो कि ये अनुमोदना करेंगे या कुछ देंगे भी।’ उन्होंने कहा कि ‘अनुमोदना में भी तो बराबर का पुण्य है।’ हमने कहा “सुनो पण्डित जी! अनुमोदना तो लूले-लंगड़ों के लिए है हाथ-पाँव वालों के लिए नहीं है। जो देने की इच्छा रखते हैं यदि अनुकूलता के अभाव में न दे पाएं उसके लिए अनुमोदना कहा है। तुम्हारे पास देने की अनुकूलता है, सर्व सामर्थ्य है, फिर भी कहो कि ‘मेरी अनुमोदना है’ तो तुम्हारी श्रद्धा ही नहीं है। तुम बहाना बना रहे हो। देने की भावना हो लेकिन अनुकूलता के अभाव में न दे पाओ तो अनुमोदना करो।”
मान लो गुरु को आहार देना है। आप आ गये तैयार होकर, देख रहे हैं कि इस समय बहुत भीड़ है इस समय जाऊँगा तो बहुत अव्यवस्था हो जायेगी। खड़े-खड़े अनुमोदना कर लो कि कैसे भी निरंतराय आहार हो जायें; यह पुण्य है लेकिन यदि कहो कि ‘हम तो केवल अनुमोदना ही करेंगे’ तो ये बात फलीभूत नहीं होगी। अच्छे कार्य को स्वयं करो-सबसे उत्तम! पहले कृत, फिर कारित फिर अनुमोदन। करो, कराओ फिर अनुमोदना करो, न कर पाने के बाद अनुमोदना तो कर ही सकते हैं। ये बात सही है कि अन्तर मन से यदि कोई व्यक्ति अनुमोदना करता है, तो वह फल प्राप्त कर लेता है जो व्यक्ति करके भी नहीं कर सकता है। जटायु पक्षी ने अनुमोदना के बल पर ही ये फल पाया था।
ये तो पुण्य के अनुमोदना की बात है। वैसे ही पाप कार्यों में भी आप अनुमोदना करते हो तो आप पाप के भागी हो सकते हैं। जैसे किसी व्यक्ति को गर्भपात कराना है और उसमें सहायक हो रहे हैं, उसकी अनुमोदना कर रहे हैं तो यह महापाप है। आप भी उसमें भागीदारी होंगे। कुल मिलाकर अच्छा हो या बुरा जो भी कार्य आप करते हैं। उसमें आप की मन-वचन-काय और कृत-कारित अनुमोदना से जैसी भागीदारी होगी आप उतने ही पुण्य या पाप के भागीदारी बनेंगे। अब जो पूछा है; कि अब के समय में जाति-स्मरण होना सम्भव है? हो सकता है, पंचम काल में जाति स्मरण का निषेध नहीं है।
कुछ जिज्ञासा चल रही थी मन में इस कार से इस पष्ट पर आ पहुंचा ! जय जिनेंद्र