धर्म क्या है और धर्म का मर्म क्या है?

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शंका

कुछ लोगों के लिए धर्म का मतलब होता है व्रत करना, उपवास करना, पूजा करना जो खुद का ही रहता है। कुछ लोगों के लिए धर्म से जुड़ने का मतलब होता है धर्म से जुड़े कार्यक्रमों से जुड़ना जिससे धर्म की प्रभावना होती है, ये जरूरी है क्योंकि आवश्यकता है आज की। और कुछ लोगों के लिए धर्म होता है सहायता करना और कुछ लोग ऐसे भी हैं जो यह सब करते हैं लेकिन उन्हें पता नहीं होता कि वो ये सब क्यों कर रहे हैं। धर्म है क्या? धर्म का मर्म क्या है? और जो आज तक धर्म से नहीं जुड़ें है, तो वह धर्म से जुड़ने की शुरुआत कहाँ से करें?

समाधान

लोग धर्म करते हैं और धर्म के प्रति सबका अलग-अलग नजरिया है। कुछ लोग क्रियाओं को धर्म मानते हैं, कुछ लोग कार्यक्रमों को धर्म मानते हैं और कुछ संवेदना को ही अपने धर्म का आधार मानते हैं। यह बात बिल्कुल सही है कि ज्यादातर लोग धर्म के विषय में बहुत अज्ञान रखते हैं। धर्म करने का जो उद्देश्य, किसी भी चीज को जो धर्म मानते हैं, वह तो बाद की बात है, धर्म करते क्यों है पहले इस बात का उत्तर हो जाना चाहिए। मेरा अनुभव यह बताता है कि जो लोग धर्म करते हैं उनके अलग-अलग उद्देश्य हैं। कुछ लोग धर्म इस भाव से करते हैं धर्म करेंगे तो पाप कट जाएँगे। कुछ लोग धर्म इस भाव से करते हैं कि धर्म करेंगे तो हमें स्वर्ग मिल जाएगा। कुछ लोग धर्म इस भाव से करते हैं कि धर्म करेंगे तो हमारा धंधा चल जाएगा। कुछ लोग धर्म इस भाव से करते हैं कि धर्म करेंगे तो मेरी सामाजिक साख बढ़ जाएगी, मेरी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ जाएगी और कुछ लोग धर्म इस उद्देश्य से करते हैं कि हमारे बाप दादा ने कहा था कि बेटा धर्म करना हमारा कर्त्तव्य है इसलिए धर्म करते हैं यानि वो धर्म करने के लिए धर्म करते हैं। 

ये जितने लोग हैं इनका धर्म करने का उद्देश्य ही सही नहीं और ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि उन्होंने धर्म के स्वरूप को जाना नहीं है। यदि इन्होंने धर्म के स्वरूप को जाना और पहचाना होता तो ऐसी स्थिति नहीं होती। आपने पूछा है वस्तुतः धर्म क्या है, तो धर्म है जहाँ अधर्म न हो। हमारे मन की शुद्धता, पवित्रता हृदय की शुद्धि का परिणाम है, चित्त की निर्मलता का परिणाम है, तो वह हमारा धर्म है और बाकी जितनी भी चीजें हैं वह सब उस धर्म के अभिव्यक्ति के साधन है। उसे हम धर्म आचरण का एक अंग कह सकते हैं पर वह धर्म नहीं है जैसे छिलका एक फल की सुरक्षा के लिए होता है। जैसे केला है, केला मूल्यवान है कि उसका छिलका? छिलके से केले की सुरक्षा है पर हम लोग छिलके को बाहर फेंकते हैं और गूदे को खाते है केले को खाते हैं। धर्म का जो अन्तरंग तत्त्व है वह तो उसका गूदा है और यह जितनी भी बाहर की चीजें हैं वो छिलका है, तो छिलके को एक सीमा तक ही रखिए। लक्ष्य रखिए गूदे को खाने का, जिससे हमारी भाव शुद्धि हो और जीवन में पवित्रता आये। बस धर्म करने की शुरुआत अगर करना है, तो सबसे पहले अपने आप को पहचानो, मैं कौन हूँ, मेरा क्या है, मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है, जब मनुष्य इस भाव भूमिका में जिएगा, अपने आप उसके अन्दर एक नई प्रेरणा जागेगी और वह प्रेरणा उसे पवित्रता के मार्ग में लगायेगी।

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