विवाह क्या है, उसका उद्देश्य क्या है और विवाह कैसे हो?

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शंका

विवाह क्या है? इसका महत्त्व क्या है? और उद्देश्य क्या है? जैन परम्परा के अनुसार विवाह की विधि क्या है? और इस तरह किए गए विवाह का जीवन में क्या प्रभाव पड़ता है? और आजकल यह बहुओं का सौभाग्य है कि सास ससुर बहु को बेटी बना कर लाते हैं, लेकिन जो मर्यादा पहले आँखों की थी, वस्त्रों की थी, क्या वह रूढ़ि थी?

समाधान

देखिये, बहुत अच्छा सवाल किया है, विवाह का स्वरूप क्या है? उद्देश्य क्या है? विधि क्या है? और आपने पूछा है कि बेटी बनाकर किसी को लाना कहाँ तक उचित है? सबसे पहले विवाह एक पवित्र सामाजिक संस्कार है। एक ऐसा संस्कार जो सब प्रकार की सामाजिक मर्यादाओं की सुरक्षा करता हैं। विवाह एक ऐसा बन्धन है जिस बन्धन में बन्ध जाने के बाद व्यक्ति अपने पति या पत्नी तक सीमित रहता है। अपनी पत्नी या पति के अतिरिक्त संसार के हर स्त्री पुरुष के प्रति उसके सम्बन्ध पवित्रता के सम्बन्ध बन जाते हैं, जो हमारे जीवन में दृष्टि की पवित्रता को प्रकट करता है। यह एक आध्यात्मिक दृष्टि देता है, जीवन की मर्यादा को सुनिश्चित करता है, वह विवाह की विधि है। इसलिए हमारे यहाँ विवाह करके किसी एक के साथ अपना जीवन बिताने का विधान तो है, पर विवाह के बिना पशुओं की तरह स्वैर आचरण करने का कोई विधान नहीं है। इसीलिए विवाह को सामाजिक मर्यादाओं की सुरक्षा का आधार मानना चाहिए। 

दूसरा, विवाह वंश वृद्धि का मूल हेतु समझना चाहिए। आपने पूछा है विवाह का उद्देश्य क्या है? जैन शास्त्रों में विवाह के तीन उद्देश्य बताए गए हैं। सबसे पहला धर्म संपत्ति, दूसरा प्रजा उत्पत्ति, और तीसरा रति। सबसे पहला विवाह का उद्देश्य धर्म सम्पत्ति की प्राप्ति है। भारत में विवाह को धर्म विवाह की संज्ञा दी गई है। विवाह होने के बाद पत्नी अपना पत्नी धर्म निभाती है अब पति अपना पति धर्म निभाते हैं इसलिए विवाह का नाम धर्म विवाह है। यानी विवाह के बन्धन में बन्धते ही यौन सदाचार प्रकट होता है। यही सबसे बड़ा धर्म है। फिर विवाह के बन्धन में बन्धने के बाद व्यक्ति धर्म, अर्थ, और काम इन तीनों पुरुषार्थों के मध्य सम्यक सन्तुलन बनाकर के जीने का आदी-अभ्यासी बनता है। तो जब धर्म, अर्थ, काम इन तीनों पुरुषार्थों के मध्य सम्यक सन्तुलन बनाने में समर्थ हो जाता है, तो वह उसकी धर्म आराधना का मूलाधार होता है। और एक बात है, विशिष्ट धार्मिक क्रियाएँ जो एक गृहस्थ के द्वारा संपन्न होती है, वह किसी विवाहित पुरुष के ही द्वारा होती है। कहीं किसीको सौधर्म इन्द्र बनना है, तो कोई विधुर या ब्रह्मचारी नहीं बन सकता। वही बन सकता है जिसके साथ उसकी विवाहिता स्त्री हो। तो ये धार्मिक क्रियाएँ विवाह के बाद संपन्न होती है। इसीलिए विवाह के उद्देश्य में प्रथम स्थान पर धर्म सम्पत्ति को रखा गया है।

विवाह का दूसरा उद्देश्य है प्रजा उत्पत्ति, सन्तति का विकास, जो बिना विवाह की व्यवस्था के नहीं हो सकता। अगर सन्तति नहीं बढ़ेगी तो धर्म भी वहीं समाप्त हो जाएगा। संस्कृति भी वही लुप्त हो जाएगी। और आजकल ऐसा होने लगा है। अब तो एक ही सन्तान दिख रही है। दूसरी सन्तान तो लगभग गौण सी होने लगी है। मुझे लगता है कि आने वाले समय में यह घोर समस्या बन सकती है। क्योंकि आज जैनियों की TFR (टोटल फर्टिलिटी रेट) सबसे कम हो गई है। यह एक बहुत बड़ा चैलेंज है, बहुत बड़ी चुनौती है। फिर कभी इस विषय में चर्चा करूँगा। तीसरा उद्देश्य है रति। हर मनुष्य की अपनी शारीरिक और मानसिक आवश्यकता भी है और दुर्बलता भी है। जिसे तीसरे स्तर पर रखा गया और जिसको विवाह के आलम्बन से व नैतिकता और मर्यादाओं की सीमा में रहते हुए अपनी दुर्बलता को धीरे-धीरे कम कर सकता है। यह विवाह का उद्देश्य है। 

आपने पूछा जैन परम्परा के अनुसार विवाह की विधि क्या होनी चाहिए? देखिये, हमारे यहाँ पाणिग्रहण का उल्लेख शास्त्रों में है और बहुत विस्तारित है। शास्त्रों के अनुसार किसी भी व्यक्ति को विवाह किसी धर्म स्थान में ही करना चाहिए। उसमें लिखा है 

क्वचित् पुण्याश्रमे सिद्ध प्रतिमा साक्षिके (आदिपुराण) 

– किसी पुण्य आश्रम में या पुण्य स्थान में जहाँ सिद्ध प्रतिमा हो; सिद्ध प्रतिमा के साक्ष्य में विवाह के संस्कार होने चाहिए। अब आजकल तो आप लोग होटल और रिसोर्ट में विवाह करते हैं। ऐसी जगह विवाह करते हैं जहाँ आपके विवाह के चार-छह घंटे पहले किसी का कत्ल हुआ है, माँस पका है। जहाँ सब तरह की नकारात्मकता है। सिद्ध प्रतिमा की जगह एक बीच का रास्ता निकाल लिया है, विनायक सिद्ध या सिद्धविनायक यन्त्र ले जाते हैं। रात में करते हैं, अन्धेरे में करते हैं। अनेक प्रकार के अनाचार होते हैं। तीन प्रकार की अग्नि जलाकर अग्नि की साक्षी में विवाह की विधि को संपन्न करने का शास्त्रीय विधान है। अगर मुझसे पूछते हो तो विवाह भगवान के मन्दिर में होना चाहिए और विवाह पूरे पूजा-आराधन के साथ होना चाहिए। पाणिग्रहण का संस्कार अत्यन्त पवित्रता के साथ होना चाहिए। शास्त्र के विधान अनुसार विवाह के दिन व्यक्ति को उपवास रखना चाहिए, दोनों प्राणियों को। और उसके बाद किसी तीर्थ का दर्शन करना चाहिए। उसके बाद अपने गृहस्थ जीवन की शुरुआत करनी चाहिए, जो आपको सद् गृहस्थ बनने के मार्ग पर ले जाए। इस तरह के संस्कार से भरकर जो विवाह जैसी विधि से जुड़ते हैं, उनके जीवन में पवित्रता बनी रहती है और वे ही लोग सच्चे अर्थों में दम्पति बनने का सौभाग्य पाते हैं। बाकी तो आजकल दम्पत्ति कम गमपति ज़्यादा है। आज जो विवाह हो रहा है, एक दिन विवाह होता है और विवाद जीवन भर चलता है। खींचातानी ज़्यादा हो रही है। सामंजस्य का अभाव दिखता है। यह सब चीजें कहीं न कहीं इन कुरीतियों के परिणाम स्वरूप भी आती हैं। इसलिए इस पर पुनर्विचार होना चाहिए। आजकल सब दूर जाकर विवाह करने की व्यवस्था करने लगे हैं। डेस्टिनेशन वेडिंग होने लगी है। यह सब अनेक कुरीतियों को जन्म दे रही है। इसमें पैसे की भी बर्बादी हो रही है, संस्कारों का भी सत्यानाश हो रहा है और हमारा समाज इससे बहुत छिन्न-भिन्न हो रहा है। और उसके परिणाम सबके सामने आते दिख रहे हैं। इसलिए इस पर बहुत गम्भीरता से विचार करना चाहिए और काम करना चाहिए। 

आप का चौथा सवाल, घर में बेटी की तरह बहू को लाने के बाद जो मर्यादाओं की हीनता है, वह कहाँ तक उचित है? अब मर्यादा की हीनता तो विवाह के पहले ही हो जाती है, जब प्री वेडिंग शूटिंग होती है, महिला संगीत के नाम पर भरी सभा में सबको दिखाया जाता है, और लोग बड़ी शान से देखते हैं। जहाँ उनकी बहन-बेटियाँ उनके सामने ही मर्यादा विहीन रूप से उपस्थित होती हैं। संस्कारों का इससे बड़ा मजाक और क्या होगा? लेकिन आज हमारे समाज के संभ्रांत लोग या गुरु भक्त कहलाने वाले लोग भी बड़ी प्रमुखता से रस ले लेकर ऐसे आयोजनों में अपने आपको गौरवान्वित महसूस करते हैं और उदाहरण देते हैं उसके विवाह का काम बड़ा अच्छा हुआ। संस्कारों की होली जलाकर तुम कौन सा अच्छा काम करोगे? विचार होना चाहिए। बहुत गम्भीरता से विचार होना चाहिए। यह परिणाम बहुत भयानक हो रहे हैं। और रहा सवाल बेटी बना करके बहू को लाना, मैं कहता हूँ बहू को बहू ही रखो, बेटी मत बनाओ क्योंकि बेटी बन गई तो बेटा उसका भाई हो गया। भाई बहन की शादी कैसे होगी? यह भाषा बदलो। बहू को बेटी मत बनाओ, बहू को बहू ही रहने दो, लेकिन बहू के साथ ऐसा व्यवहार करो जैसा अपनी बेटी के साथ करते हो। बेटी बनाने का काम क्यों? बहू को भी मर्यादाओं का पाठ सिखाना चाहिए और बेटी को भी मर्यादा में रहने के संस्कार देने चाहिए। अगर घर की मर्यादा खंडित हो जाए तो सब कुछ छिन्न-भिन्न होगा। हमें इन बातों पर बहुत गम्भीरता से विचार करना चाहिए।

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