अत्यन्त प्राचीन पूजा में चाहे वह संस्कृत या प्राकृत की हो, सभी में फल- फूल का उल्लेख है तो क्या उस जमाने में वह प्रासुक थे, अब अप्रासुक हो गए?
देखिये फूल-फल के प्रासुक और अप्रासुक की बात नहीं है। मैं पूजा-पाठ के विषय में केवल एक ही बात कहना चाहता हूँ – द्रव्य ज़्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं है, भाव महत्त्वपूर्ण है। द्रव्य सामग्री को चढ़ाते समय अपने विवेक का इस्तेमाल करें। मैं आपसे एक सवाल करता हूँ एक विधानमंडल रचा, आठ दिन का विधान है और उस विधान में आप नारियल की जगह केले का थंब रखोगे, आठवें दिन क्या हाल होगा? केले रखने का विधान तो है पर अब केले का थाम रखना है या श्री फल चढ़ाना है यह विवेक श्रावक को रखना है। केला चढाओगे तो आठ दिन में केले का क्या हाल होगा? केला कोई चढ़ाता भी नहीं है। इसी तरह भगवान के आगे विचार विवेकपूर्वक जो उपयुक्त लगे वह चढाये। श्रीफल भी फल है, बादाम भी फल है, सुपारी भी फल है, अखरोट भी फल है, छुआरा भी फल है, किशमिश भी फल है। आपको हरे फल चढ़ाने की इच्छा है, तो कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि सूखे चढाओगे तो सूखे रह जाओगे और गीले चढाओगे तो हरे-भरे रहोगे, यह कुतर्क है। खाने से व्यक्ति का जीवन प्रभावित होता है, द्रव्य चढ़ाने से जीवन प्रभावित नहीं होता, भाव अर्पित करने से प्रभावित होता है। तुम कुछ भी चढ़ा दो और शुष्क भाव से चढाओगे तो कुछ भी नहीं मिलेगा और कुछ भी न चढाओ और ह्रदय को चढ़ा दोगे तो सब कुछ पा जाओगे। इसलिए दृव्य के पीछे मत लगों अपने विवेक का इस्तेमाल करके आपको जो उचित लगे तो कीजिए। न किसी को रोकिए, न किसी को टोकिये।
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