नगर में मुनि संघ की आहार-व्यवस्था पर समाज की आपत्ति होने पर हमारा क्या कर्तव्य है?
जब भी साधु के आगमन की बात हो और आपके समाज के प्रमुख ऐसा कहें “व्यवस्था नहीं कर पाएँगे” तो पहले तो मैं कहूँगा कि उस समाज के लिए लानत है, जिसके गाँव में साधु आए और साधु की आहार की व्यवस्था करने में समाज असमर्थ हो, तो वो समाज, समाज कहलाने के लायक भी नहीं है। देव-शास्त्र-गुरु की सेवा करना समाज का मुख्य धर्म है।
आप रोज देव-शास्त्र-गुरु का अर्घ चढ़ाते हो, तो कागज़ के पन्नों पर अर्घ चढ़ाते हो क्या? सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के प्रति समाज का तन-मन-धन सब न्यौछावर होना चाहिए। साधु को आहार दान देना तो तुम्हारा धर्म है। यदि समाज के लोग ऐसा कह कर के साधु के आगमन पर आपत्ति रखते हैं कि “उनका आहार कौन करेगा?” तो सच्चे अर्थों में ऐसे लोग समाज के पदाधिकारी होने के लायक भी नहीं हैं, क्योंकि उनके मन में देव-शास्त्र-गुरु के प्रति जैसी श्रद्धा होनी चाहिए, वह नहीं है। यदि ऐसा कहे तो समाज के सदस्यों को यह कहना चाहिए – “चिंता मत करिए, आप साधु को लाइए, व्यवस्था हम करेंगे! हम तय कर लेंगे। चार माह हम शुद्ध भोजन करेंगे, साधु आएँगे उनको भी खिलाएँगे फिर हम खाएँगे, जो मुझसे बन पड़ेगा वह खिलाएँगे”, साहस करके आगे आएं।
सामूहिक चौका लगाना कतई उचित नहीं है। आहार दान व्यवस्था नहीं, तुम्हारा धर्म है। गृहस्थ को अति सर्जन होना चाहिए और स्वयं के लिए तैयार द्रव्य का दान देना चाहिये। इसमें गलती श्रावकों की है। वहीं, साधुओं की भी गलती मुझे नजर आती है। प्राय: आजकल साधु जन अपनी व्यवस्था अपने साथ लेकर चलने लगे हैं। जब साधु खुद अपनी व्यवस्था साथ लेकर के चलने लगता है, तो श्रावक के लिए इससे आराम की बात क्या है! फिर श्रावक प्रमादी हो जाता है। दोनों तरफ से गड़बड़ है, साधु को मोही नहीं होना चाहिए और श्रावक को प्रमादी नहीं बनना चाहिए, तभी मोक्षमार्ग आगे बढ़ेगा।
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