जैन धर्म में सकरा और नकरा की परम्परा है जो एमपी और यूपी में ज़्यादा चलती है। जैसे फलका बनाया तो वह सकरा है और पराठा बना लिया तो वह नकरा है, तो इस पर थोड़ा सा नई आने वाली पीढ़ी के लिए प्रकाश डालें।
सकरा और नकरा के पीछे एक विज्ञान है।
एक बार एक डॉक्टर ने मुझसे पूछा कि “महाराज जी, इतनी ज़्यादा शुद्धि का विवेचन क्यों किया जाता है?” हमने पूछा “आप डॉक्टर हो, ऑपरेशन करते हो?” बोले “हाँ, करता हूँ”। तो “कैसे करते हो? जिन कपड़ों को पहने रहते हो, तो इन्हीं कपड़ों में ऑपरेशन करते हो?” बोले “नहीं महाराज, ऑपरेशन थिएटर में जाने से पहले हमें steralized कपड़े पहने होते हैं, ऊपर गाउन टाइप का कपड़ा होता है; वह पहनते है फिर ऑपरेशन करते हैं।” पूछा “क्यों?” बोले, “बाहर के कपड़ों से कोई वायरस वगैरह इंफेक्शन के चांस है।” हम बोले, “देखो, तुम जिस इंफेक्शन की बात करते हो उसी इंफेक्शन की बात हमारे जैन ग्रन्थ कहते हैं। जैन धर्म कहते हैं, तुम केवल इंफेक्शन की दृष्टि से उनसे बचते हो और जैन धर्म हिंसा की दृष्टि से बचता है।”
एक दूसरे के स्पर्श से सूक्ष्म जीवोंं की हिंसा की सम्भावना है। अहिंसा के अनुपालन के लिए वस्त्र आदि की शुद्धता का पालन होना चाहिए। इसी प्रकार भोजन बनाते समय सकरा और नकरा का मतलब फलके और पराठे से नहीं है। सकरा और नकरा का मतलब आप लोग जो अपने व्यवहार में करते हैं; जिसे आपने वापर लिया वह सकरा हो गया। अब बाकी जो आपके भंडारे में और आप के डब्बे में चीजें रखी वह शुद्ध है। भोजन बनाते समय आपके हाथ आटे का लग गया तो उसमें सुक्ष्म germs आ सकते हैं। उस चीज में अशुद्धि आ सकती है, विकृति आ सकती है। इसलिए एक दूसरे की चीजों को एक दूसरे के हाथ से न लगाएँ। यह सकरे का विचार जरूर करना चाहिए। और इसके बारे में जिन्हें बहुत विशेष जानकारी लेना है, जिनेंद्रवर्णीजी की एक कृति है ‘शांतिपथ प्रदर्शन’। उसमें एक ‘भक्ष्य अभक्ष्य’ नाम का चैप्टर है उसे पढ़ो, आपका दिमाग खुल जाएगा। इसका विज्ञान है और इसके विज्ञान को समझिए, रूढ़ि मत पालिए। गलत तो वो लोग करते हैं जो इसके विज्ञान को नहीं समझते। वह गलत है कि धोती को हाथ से तो नहीं छूएँगे लेकिन ऐसी लकड़ी से छुएँगे जो दरवाजे के बाजू में झाड़ू के साथ लगी है।
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