सल्लेखना क्या है? सल्लेखना क्यों, कब और कैसे?

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शंका

सल्लेखना क्या है? सल्लेखना क्यों, कब और कैसे?

समाधान

सल्लेखना जैन साधना का प्राण है। जैन परम्परा में सल्लेखना का अति-महत्व है। ये कहा गया है कि ‘’जीवन भर तप साधना करने के बाद यदि किसी की सल्लेखना हो तो उसकी साधना अधूरी होती है।’ इसे सल्लेखना या सन्थारा भी कहते हैं। इसे तप का फल कहा गया है। 

सबसे पहले हम सल्लेखना शब्द को देखें, सत् + लेखन से सल्लेखना शब्द बना। सत् यानी भली प्रकार से, लेखन यानी कृष करना, क्षीण करना -अपनी काया और कषाय को। भली प्रकार से क्षीण करने का नाम सल्लेखना या समाधिमरण है। 

ये क्यों, कब, कैसे और किस विधि से? इसे हम कुछ संक्षेप में आप सबको बताना चाहेंगे। सल्लेखना क्यों? सबसे पहला सवाल! जन्म लिया है, एक दिन जाना है, मृत्यु तो अटल है, ऐसा तो एक भी प्राणी नहीं जो अमर हो। अगर तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम्हारी मृत्यु अवश्यंभावी है, तो उस समय तुम्हें मृत्यु से डरकर घबराने की जगह मृत्यु की अनिवार्यता को स्वीकार कर सहज भाव से मृत्यु के स्वागत में तत्पर हो जाना चाहिए; यही सल्लेखना का मूल उद्देश्य है। 

शरीर की नश्वरता और आत्मा की अमरता को जान कर, मृत्यु की अवश्यंभाविता को पहचान कर सामने आई हुई मृत्यु से घबराये बिना आत्मसाक्षात्कार पूर्वक अपने शरीर को छोड़ने का नाम सल्लेखना है। इसके लिए क्या किया जाता है, कब किया जाता है? जब कोई भयानक उपसर्ग हो जिस से बच पाने की कोई सम्भावना न हो, ऐसा दुष्काल हो जाए कि बचने की कोई गुंजाइश न हो, ऐसी बीमारी हो जिसका कोई इलाज भी न हो या अत्यधिक बुढ़ापा जिसमें हमारी काया इतनी जर्जर हो जाए कि हमारा शरीर स्वयं के लिए ही भारभूत दिखने लगे, उस घड़ी में शरीर से अपना मोह छोड़कर धीरे-धीरे अपनी साधना को प्रखर बनाते हुए, काया को क्षीण करते हुए, अपने अन्दर की कषायों को क्षीण करते हुए, समता पूर्वक शरीर के त्याग का नाम सल्लेखना है। 

एक बात ध्यान रखने की है, सल्लेखना जब चाहे ली नहीं जाती, जब चाहे दी नहीं जाती। सल्लेखना मरण की अनिवार्य और अपरिहार्य स्थितियों के निर्मित होने पर ही ली जाती है। अब मरना ही है, तो रोते हुए मरने की जगह समता से अपना प्राण छोड़ें, ये सल्लेखना है। कुछ लोग सल्लेखना के वैज्ञानिक स्वरूप को नहीं समझ पाने के कारण इसे आत्महत्या मानने की भूल कर लेते हैं। सन २०१५ में राजस्थान उच्च न्यायालय के द्वारा पारित निर्णय के बाद तो पूरे विश्व में सल्लेखना को लेकर एक बड़ी बहस चली और मैं समझता हूँ ये अच्छा ही हुआ, जिससे दुनिया के लोग सल्लेखना के बारे में, सन्थारा के बारे में अच्छे से जान पाए। सल्लेखना आत्महत्या नहीं है। सल्लेखना और आत्महत्या में ज़मीन-आसमान का अन्तर है। सल्लेखना समता पूर्वक ली जाती है, आत्महत्या कषायों से प्रेरित होकर। सल्लेखना करने वाले के मन में बड़ा धैर्य, संयम और सन्तुलन होता है जबकि आत्महत्या अधीरता और तीव्र मानसिक असन्तुलन की स्थिति में की जाती है। सल्लेखना मरण के अनिवार्य और अपरिहार्य होने की स्थिति में की जाती है, आत्महत्या कभी भी की जा सकती है। सल्लेखना का उद्देश्य देह की नश्वरता को समझते हुये अपनी आत्मा के उद्धार का है जबकि आत्महत्या देह विनाश को ही सर्वनाश मानकर की जाती है। दोनों में बड़ा अन्तर है इसलिये इन दोनों को एक कभी नहीं कहना। 

जैन आचार्य पूज्यपाद ने एक बहुत अच्छा उदाहरण दिया, किसी मकान में आग लग जाए तो पहली कोशिश होगी उस मकान की आग को यथासम्भव नियन्त्रित किया जाए पर तमाम उपाय करने के बाद भी आग अगर बेकाबू होकर बढ़ती ही जाए तो समझदार आदमी पूरे मकान का मोह त्याग कर उसमें जो मूल्यवान सामग्री है उसे बचाने की कोशिश करता है। क्या ऐसे आदमी को हम मकान का विध्वंसक कहेंगे? कतई नहीं, वह मकान का विध्वंसक नहीं है उसने तो मकान बचाने की भरपूर कोशिश की लेकिन सब स्वाहा हो तो जो बच सके उसे बचा लिया जाये। इसी तरह जीवन भर शरीर के माध्यम से साधना करने के उपरान्त जब शरीर एकदम जाने ही वाला हो उस घड़ी में अपने व्रतों की रक्षा के साथ ज्ञानपूर्वक समतापूर्वक अपने शरीर को त्यागना आत्महत्या नहीं अपितु, सच्चे अर्थों में देखा जाए तो आत्म उत्थान की दिशा में प्रयास है। सल्लेखना को आत्महत्या नहीं समझें।

सल्लेखना किस विधि से की जाए? ऐसा नहीं है कि सल्लेखना में एक साथ पूरा भोजन-पानी छोड़ दिया जाए, ऐसी कोई आज्ञा शास्त्र में नहीं है। सल्लेखना के लिए जीवन भर साधना की जाती है। अपने तन को साधते हुये अपने मन को बांधा जाता है, अपनी कषायों का शमन किया जाता है और धीरे-धीरे जब शरीर क्षीण होने की स्थिति में होता है, तो जिसे सल्लेखना लेनी है वह सबसे पहले अपने और अपने परिवार के लोगों को इकट्ठा करके, परिजनों को इकट्ठा करके उन सब से ह्रदय से क्षमा माँगता है और अपनी ओर से क्षमा करता है कि ‘मैंने अभी तक घर-परिवार का एक सदस्य होने के नाते आप लोगों के लिए अनेक प्रकार के आदेश दिये, आपको कभी अच्छा भी कहा, बुरा भी कहा, आपकी रुचि के अनुकूल और मन के विरुद्ध व्यवहार भी किया, आप सबको उससे दुःख हुआ होगा, उसके लिए आप मुझे क्षमा करें और मैं भी आप सबके जितने भी गिले-शिकवे हैं उन सब को छोड़ता हूँ‌। हमारा इस संसार में इतने दिन का रहना एक नदी-नाव के संयोग की भांति था अब वह संयोग पूरा होने जा रहा है। मैं अपनी आत्मा का उत्थान करना चाहता हूँ, आप सब मुझे सहयोग दीजिए।’ और अच्छे वचनों से घर-परिवार के लोगों को सन्तुष्ट करके गुरु चरणों में जायें, गुरु चरणों में पहुँचनेके उपरान्त उनके भोजन-पानी को धीरे- धीरे कम किया जाता है, एकाएक नहीं। जैसे किसी की दो रोटी की खुराक हो तो धीरे-धीरे रोटी कम करके उन्हें दलिया जैसे पदार्थों पर रखा जाता है। धीरे-धीरे दलिया जैसे पदार्थों को कम करके लिक्विड को बढ़ाया जाता है और धीरे-धीरे दलिया को कम करके, खत्म करके केवल लिक्विड पर रखते हैं और लिक्विड को भी धीरे-धीरे कम करके पानी की मात्रा, गरम पानी की मात्रा बढ़ाते जाते हैं और धीरे-धीरे केवल पानी पर ले आते हैं। बीच-बीच में उपवास भी करते हैं ये तो शरीर की सल्लेखना है। इस बीच सतत उपदेश के बल पर आत्मप्रेरक आध्यात्मिक दृष्टि जगाते हैं और सामने वाले के सत्व को और उत्साह को हमेशा बढ़ाते हुये मन को प्रसन्न रखने का प्रयास किया जाता है। उनके भेद विज्ञान को पुष्ट किया जाता है। ये धीरे-धीरे कम होता है और फिर एक समय छूट जाता है। 

एक बात आपको विशेष ध्यान रखने की है कि अन्त के दिनों में हमारे शरीर की रिक्वायरमेंट भी लगभग खत्म सी हो जाती है। अस्पतालों में भर्ती लोगों को भी आप लोग देते हो तो जबरदस्ती देते हो, बॉडी उसे स्वीकार नहीं करती। हमने तो गोशालाओं में भी देखा है कि गाय आदि जब उनका अन्त समय आता है एक-दो दिन पहले से खाना ही छोड़ देती हैं, उनको अगर दिया भी जाए तो खाना पसन्द नहीं करती, ये शरीर नहीं चाहता। ये अभ्यास बने रहने से बहुत अच्छे तरीके से संपन्न होता है। ये सल्लेखना है जो गुरुओं के मार्गदर्शन में अथवा अनुभवी श्रावकों के मार्गदर्शन में करना चाहिए। एकाएक खाना-पीना छोड़ने का विधान सल्लेखना की प्रक्रिया में नहीं है, यह एक बहुत अच्छी प्रक्रिया है, इस को अपनाना चाहिए। 

आचार्य विनोवा भावे इस सल्लेखना की साधना से बहुत प्रभावित थे और इसलिए उन्होंने अन्त में इसी तरह की प्रक्रिया को अपनाया। कहते हैं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जब उनको औषधि आदिक लेने का आग्रह लेकर गई तो उन्होंने बहुत अच्छा जवाब दिया कि ‘मेरे और मेरे परमात्मा के बीच न न अब दवा की ज़रूरत है न दबाव की।’ न दवा की ज़रूरत है न दबाव की, वे दवा और दबाव दोनों से मुक्त होकर इसको छोड़े। पंडित सम्पूर्ण आनंद शास्त्री जो उत्तर प्रदेश के राज्यपाल या मुख्यमंत्री रहे, उनके बारे में भी मैंने कहीं पढ़ा कि उनको बहुमूत्र रोग हो गया था जीवन के अन्तिम दिनों में तो उन्होंने कहा कि आज मैं यहाँ पड़ा-पड़ा सोच रहा हूँ कि यदि मैंने जैनों जैसी सल्लेखना की साधना की होती तो आज इस समय मेरी ऐसी स्थिति नहीं होती क्योंकि वे वेद-वेदांत के पाठी थे, ब्राह्मण थे, अच्छे ज्ञानी ब्राह्मण थे लेकिन अपने रोगों के कारण उन्हें उन दिनों में अपनी धार्मिक क्रियाओं से वंचित होना पड़ा। ये एक प्रक्रिया है इस प्रक्रिया को अपना करके चलेंगे तो निश्चित सफल हो सकेंगे।

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