कुछ लोग धार्मिक संस्थाओं में कार्य तो करते हैं लेकिन उस कार्य का लाभ स्वयं नहीं पाते हैं। जैसे हम ‘धार्मिक शिक्षण शिविर’ लगाते हैं तो हम व्यवस्थाओं में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि हम उसमें पठन-पाठन नहीं कर पाते हैं, तो इससे हमें ये शंका हो जाती है कि हमको क्या फायदा? शिविर लगाने से हम खुद तो उसमें लाभ ही नहीं ले पाते हैं?
सब यही सोचने लगें कि ‘हमको लाभ नहीं मिलता तो हम आयोजन में क्यों जुड़ें’ तो आयोजन ही नहीं होगा। अरे! आप ये सोचिए कि कुछ हाथ आगे आते हैं तो बड़े-बड़े आयोजन सम्पन्न होते हैं। जितने लोगों को लाभ मिलता है वह आपके निमित्त से मिलता है। आप उसमें भागीदार होंगे तो आपको उसमें अपने व्यक्तिगत भागीदारी (individual involvement) का फायदा होगा। आपने उन आयोजनों को आयोजित किया है, तो जितने उसमें भागीदार बनेगें सब के पुण्य का एक मोटा हिस्सा आपके खाते में जायेगा। इसलिए सोचने की बात नहीं है ऐसा करते रहना चाहिए। कार्यकर्ता के बिना कोई आयोजन आयोजित नहीं होते हैं। कृत, कारित और अनुमोदना-हम तीनों के फल को समझें।
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