ज्ञान धारा और कर्म धारा को समझाएँ। हम क्या पुरुषार्थ करें, जिससे कि हम ज्ञान धारा की तरफ़ अग्रसर हो सके?
आगम में ऐसी ज्ञान धारा और कर्म धारा के लिये स्पष्ट शब्द नहीं मिलता है। ज्ञान धारा यानी जहाँ केवल जानना हो और कर्म धारा यानी जहाँ जानने के साथ अटकना हो। किसी भी दृश्य को जब हम दृष्टा बन कर देखते हैं, तो उसके साथ हमारा इष्ट-अनिष्ट संकल्प-विकल्प नहीं जुड़ता, ये ज्ञान धारा कहलाती है। हम केवल उसके दृष्टा हैं, देख रहे हैं, ये ज्ञान धारा है, जहाँ केवल देखना व जानना मात्र बना रहता है। लेकिन जब जानने और देखने के साथ उसमें हम इष्ट-अनिष्ट, संकल्प-विकल्प करते हैं, तो वो कर्म धारा का रूप धारण कर लेती है। उस कर्म धारा से राग-द्वेष के निमित्त से नये कर्म का बन्ध होता है। ज्ञान धारा में केवल निर्जरा है और कर्म धारा में बन्ध है। ज्ञान धारा में निराकुलता है और कर्म धारा में आकुलता है। जहाँ आकुलता है, वहाँ संसार है और जहाँ निराकुलता है, वहाँ मोक्ष है। आप उस निराकुल परिणति को प्राप्त करना चाहते हैं, तो ज्ञान धारा में ऐसा अभ्यास कीजिये कि सही में तटस्थ रह सकें। तटस्थ भाव क्या कहलाता है? नदी के दो तट होते हैं, धारा आती है और बह जाती है पर दोनों तट जहाँ के तहाँ रहते हैं। बस, जीवन में कर्म का कैसा भी प्रभाव क्यों न आये, उससे प्रभावित न होना, ये ज्ञान धारा है और कर्म की धारा में बह जाना, उससे प्रभावित हो जाना ये कर्म धारा है, ऐसा समझना चाहिए।
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