धर्म और सम्प्रदाय में क्या अन्तर है?
धर्म अंदर की परिणति और धर्म को मानने वाले लोगों का समूह संप्रदाय होता है। भारत में विभिन्न धर्म हैं और उनके अपने अपने अनुयाई है और विभिन्न अनुयायियों का समूह अलग-अलग संप्रदायों में बैठ गया है। इसे मैं बड़े सरल शब्दों में कहूँ – धर्म और संप्रदाय, धर्म हमारे भीतर की परिणति है और उसके मानने वालों के समूह का नाम संप्रदाय है।
इसे आप ऐसे कह सकते हैं, जैसे केला है, उसके अंदर का गूदा तो धर्म है और बाहर का छिलका संप्रदाय! संप्रदाय धर्म को संरक्षण देता है और धर्म से संप्रदाय का महत्व बढ़ता है। केले के छिलके का महत्व तभी तक है जब तक उसके भीतर गूदा है और गूदे की सुरक्षा तभी तक है जब तक उसके ऊपर छिलका है तो छिलके को कब तक रखा जाता है जब तक गूदे से प्रयोजन है, गूदा प्रेम से खा लिया जाता है और छिलके को उपेक्षा पूर्वक छोड़ दिया जाता है। तो गूदे का ध्यान रखो, छिलके का ख्याल मत रखो! यह मानकर के चलो की छिलका संरक्षक है, आश्रयदाता है। बिना संप्रदाय के धर्म टिकता नहीं इसलिए संप्रदाय भी आवश्यक है। और एक दृष्टि से संप्रदाय धर्म की प्रभावना में कारण बनता है लेकिन सांप्रदायिकता की भावना कभी नहीं होनी चाहिए। श्रद्धा आंतरिक होनी चाहिए, सांप्रदायिक नहीं!
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